अधिगम सिद्धान्त तथा शिक्षण सिद्धान्त के प्रत्यय क्या हैं ? इनमें कौन से महत्वपूर्ण हैं और क्यों ?
सिद्धान्त (Theory), जो स्वयं में एक जटिल प्रश्न है, की व्याख्या नहीं की जा सकती। विन फ्रेड हिल (W. F. Hill) ज्ञान के क्षेत्र की क्रमबद्ध व्याख्या को सिद्धान्त मानता है। सिद्धान्त के तीन कार्य हैं-(i) ज्ञान तक पहुँचने का अभिगमन, (ii) ज्ञान के अपार भण्डार को सामान्य रूप में व्यक्त करना। (ii) अधिगम की क्रिया, क्यों तथा कैसे सम्पन्न होती है, इसकी व्याख्या करना ।
इस दृष्टि से अधिगम के सिद्धान्तों की धारणाएँ इस प्रकार हैं-
1. अधिगम, शिक्षण द्वारा उत्तेजित होता है- मूलतः शिक्षण अधिगम को उत्तेजित करने (Stimulating) एवं मार्ग प्रदर्शन (Guiding) करने की क्रिया है। कक्षागत शिक्षण में गृहकार्य, प्रश्नोत्तर, उदाहरण, दृष्टान्त आदि के द्वारा अध्यापक छात्रों को अधिगम के लिए प्रेरित करता है। शैक्षिक जगत में छात्रों की गतिविधियाँ महत्वपूर्ण रही हैं और यही शिक्षा में शोध को प्रोत्साहित करती है।
2. अधिगम को प्रशिक्षण द्वारा व्यवहार में संशोधन की प्रक्रिया माना गया है- शिक्षण की प्रक्रिया में अधिगम के सिद्धान्तों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। ये सिद्धान्त इस बात की ओर संकेत करते हैं कि सीखने की क्रिया किन परिस्थितियों में सम्पन्न होती है और किन में सम्पन्न नहीं होती। अधिगम का सिद्धान्त एक सामान्य अवधारणा है, जो सभी प्राणियों पर, सभी कार्यों में सभी स्थितियों में लागू होती है। अधिगम सिद्धान्त उन दशाओं पर विचार करते हैं, जिनमें सीखने की क्रिया सम्पन्न होती है। ये सिद्धान्त उन दशाओं की व्याख्या करते हैं, जिनमें सीखने की क्रिया पर नियन्त्रण किया जा सकता है, उसके बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। उदाहरणार्थ- एडवर्ड थार्नडाईक ने 1913 में अधिगम के एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसने अपने सिद्धान्त में यह बताया कि पशु तथा मानव की किसी वातावरण में सीखने की क्रिया के मध्य कौन-सी उत्तेजनाएँ-अनुक्रियाएँ उत्तरदायी हैं। इस मत के अनुसार सीखने की क्रिया के क्रमिक विकास में दो दशाएँ उद्दीपन-अनुक्रिया संयोग प्रदान करती हैं। उत्तेजना (Stimulus) तथा अनुक्रिया, दोनों का एक साथ होना आवश्यक है। अनुक्रिया, सीखने वाले को संतोष अथवा पुरस्कार प्रदान करती है। थार्नडाईक का सिद्धान्त अधिगम के सिद्धान्त की व्याख्या करता है।
3. अधिगम सिद्धान्त, शिक्षण सिद्धान्त पर आधारित हैं- शिक्षण के सिद्धान्त (Theories of Teaching) अधिगेम के सिद्धान्तों पर आधारित होने चाहिएँ। शिक्षण के सिद्धान्त अध्यापक के व्यवहार और छात्रों पर उसके प्रभाव की व्याख्या करते हैं। किसी वातावरण में अध्यापक का व्यवहार केवल एक पक्ष है। इसके पक्षों में छात्रों का पक्ष प्रबल है। सीखने की क्रिया पशुओं में भी होती है और व्यक्ति में भी इन क्रियाओं में अध्यापक नहीं होता। विद्यालय में आने से पहले बच्चे काफी कुछ सीख चुके होते हैं। प्रौढ़ व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी जीवन भर सीखते रहते हैं। सीखना, सिखाने की अपेक्षा सर्वव्यापी अनुभव है।
4. अधिगम के सिद्धान्त, शिक्षण के सिद्धान्तों से अधिक प्रगत (Advance) तथा परिष्कृत हैं- अधिगम के सिद्धान्तों के क्षेत्र में अभी भी अनुसंधान की आवश्यकता है। अधिगम के सिद्धान्तों में भी मतभेद है। विनफ्रेड हिल (Winfred Hill) के अनुसार, अधिगम सिद्धान्त व्यापक भी हैं और संकीर्ण भी संकीर्ण मत अधिक कठिन हैं और उदार मत अधिक सरल एवं सटीक हैं। हिल ने एक दृष्टान्त द्वारा व्याख्या करने का प्रयास किया है। वह व्यक्ति जो विविध व्यक्तियों के सम्पर्क में आता है, वह उदार सामान्यीकरण से लाभ उठाता है। अधिगम की क्रिया उस समय अधिक प्रभावशाली होती है, जबकि छात्र को भयभीत करने के बजाय उसे प्रेरित किया जाता है। वैज्ञानिक नियम के अनुसार यह सामान्यीकरण अस्पष्ट है, क्योंकि इसमें अभिप्रेरणा तथा भय की विशेषता की व्याख्या नहीं की गई है। अधिगम की परिस्थितियों में इस कथन का प्रयोग महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार कोई और व्यक्ति किसी विशेष अधिगम परिस्थिति का अवलोकन करता है। वह देखता है कि किसी शस्त्र के संचालन की क्रिया नाश्ता करने से तीन घण्टे बाद प्रभावशाली होती है, यह सामान्यीकरण अधिक संक्षिप्त प्रभाव उत्पन्न करता है। इस सिद्धान्त का विनियोग क्षेत्र अत्यन्त सीमित है।
अधिगम के सिद्धान्त की अवधारणा का आधार यह है- अधिगम मूलतः स्वाभाविक क्रिया है। विकास की प्रक्रिया अधिगम की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्त होती है।
अधिगम सिद्धान्तों की अवधारणा
अधिगम के सिद्धान्तों की आवश्यकता, शिक्षण तथा अधिगम को प्रभावशाली बनाने के लिए हुई। अनेक मनोवैज्ञानिकों ने मानव के व्यवहार के आधारभूत क्षेत्रों को आधार मानकर अधिगम सिद्धान्तों की अवधारणा को विकसित किया। संयोजनवाद (Connectionism), व्यवहारवाद (Behaviourism), अन्तर्दृष्टि (Insight), चिन्ह पूर्णाकार (Sign Gestalt) आदि अनेक अवधारणाएँ अधिगम की प्रक्रिया पर नये दृष्टिकोण प्रस्तुत करती रही हैं। इसीलिए अधिगम की अवधारणाओं में दो आधार प्रकट होते हैं-
1. व्यवहार-जी० लेस्टर एन्डरसन ने कहा है— “सभी प्राणी निरन्तर अनुक्रिया करते हैं। हमारी मांसपेशियाँ संकुचन या प्रन्थियों का स्राव करती हैं। इसी क्रियाकलाप को व्यवहार कहते हैं। व्यवहार मनोविज्ञान की मूल सामग्री होती है और इसी व्यवहार में परिवर्तन के आधार को अधिगम की अवधारणा कहते हैं।”
2. परिपक्वता – अधिगम सिद्धान्तों की अवधारणा का आधार परिपक्वता भी है। व्यक्ति की शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता अधिगम की क्रिया को प्रभावित करती है। यदि अध्यापक को यह पता है कि परिपक्वता तथा अघिगम, छात्र की प्रगति को किस प्रकार प्रभावित करते हैं तो वह इसका लाभ उठा सकता है।
इसके साथ-साथ अधिगम से सम्बन्धित कारक भी अधिगम की धारणा की पुष्टि करते हैं। इसमें (1) योग्यता या क्षमता, (2) अभिप्रेरणा, (3) प्रयोजन, (4) पुरस्कार का प्रभाव, (5) अभ्यास, (6) विस्मरण, तथा (7) शिक्षण-अन्तरण भी अधिगम के सिद्धान्तों के विकास करने में योग देते हैं।
अधिगम की इन अवधारणाओं से यह स्पष्ट है कि (i) स्थिति और अनुक्रिया दोनों ही जटिल क्रियाएँ हैं और विशेष रूप में घटने वाली क्रियाएँ हैं। (ii) अधिगम के सिद्धान्तों की अवधारणा में घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करनी चाहिए। (iii) व्यक्ति को अधिगम के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। (iv) इसमें अनुक्रिया, परिणामों में परिवर्तित होती है। (v) इसमें अभिप्रेरणा की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है।
अधिगम की सभी अवधारणाओं का केन्द्र बिन्दु समायोजन है। अधिगम के सभी सिद्धान्त न केवल व्यक्ति को अपितु अधिगम की क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। अधिगम के सिद्धान्त व्यक्ति के संघर्षों को शान्त करते हैं; इच्छाओं की पूर्ति करते हैं; लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं और संवेगात्मक अस्थिरता को शान्त करते हैं। अधिगम सिद्धान्तों की अवधारणा इस बात की ओर संकेत करती है कि व्यक्ति कैसे सीखता है। सामान्य परिस्थितियों में अधिगम समस्या नहीं है, अपितु किन्हीं विशिष्ट स्थितियों में अवधारणात्मक समस्याएँ आती हैं। अतः अधिगम के सिद्धान्तों की अवधारणा ने शिक्षण को नई दिशा दी है।
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