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अनुबन्ध अधिनियम के अधीन भुगतान के नियोजन सम्बन्धी नियम

अनुबन्ध अधिनियम के अधीन भुगतान के नियोजन सम्बन्धी नियम
अनुबन्ध अधिनियम के अधीन भुगतान के नियोजन सम्बन्धी नियम

अनुबन्ध अधिनियम के अधीन भुगतान के नियोजन सम्बन्धी नियमों का उल्लेख कीजिए।

भुगतान नियोजन सम्बन्धी नियम

(1) विनियोजन के लिए स्पष्ट तथा गर्भित निर्देश की दशा में- जब किसी ऋणी व्यक्ति पर एक ही व्यक्ति के कई ऋण बकाया हों और वह (ऋणी) स्पष्ट निर्देश के साथ अथवा ऐसी परिस्थितियों में भुगतान करता है जिसमें यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह किसी खास ऋण के भुगतान के लिए है तो उसके द्वारा किये गये भुगतान को स्वीकार किये जाने पर उसका उसी प्रकार नियोजन होना चाहिए।

उपर्युक्त नियम के आधार पर ऋणी को यह अधिकार प्रदान किया गया है कि वह इस बात का स्पष्ट निर्देश दे सकता है कि उसके द्वारा दिया जाने वाला भुगतान किस ऋण को चुकता करने के काम में लाया जाये। यदि ऋणदाता, ॠणी की इच्छानुसार उस भुगतान राशि का नियोजन नहीं करता है। तो उसे भेजी गयी धनराशि को अस्वीकार करके वापस कर देना चाहिए किन्तु यदि धन उसके द्वारा एक बार स्वीकार कर लिया गया हो तो उसका नियोजन निर्देशों के अनुसार ही उसे करना अनिवार्य होगा।

उदाहरण-‘अ’ अन्य कई ऋणों के साथ ‘ब’ के प्रति 1,000 रुपये का भी ऋणी है जिसके लिए उसने प्रतिज्ञापत्र भी लिख दिया है, जो उसे 11 जून 2011 को देय हैं। उसे इस राशि का ‘ब’ को अन्य कोई ऋण नहीं देना है। ‘अ’ब’ को 1,000 रुपये का भुगतान करता है। यहाँ पर इस भुगतान का प्रयोग उक्त प्रतिज्ञा-पत्र के लिए किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में वासुदेव बनाम रामदेव का विवाद महत्वपूर्ण है।

2. निर्देश न दिये जाने पर भुगतान का नियोजन- यदि ऋणी ने न तो कोई निर्देश दिया हो और न ऐसी परिस्थितियाँ ही हों जिनसे यह अनुमान लगाया जा सके कि भुगतान किस ऋण के भुगतान के लिए है, तो ऐसी परिस्थिति में ऋणदाता अपनी इच्छानुसार उसे किसी भी वैध ऋण के सम्बन्ध में प्रयोग कर सकता है जो कि वास्तविक रूप में बकाया हो, चाहे उसका वसूल किया जाना किसी प्रचलित अवधि-वर्जित अधिनियम के अनुसार वर्जित हो अथवा नहीं हो। (धारा-60)

उदाहरण- ‘क’, ‘ख’ को 5,000 रुपये भेजता है और वह न तो निर्देश ही करता है और न परिस्थितियों से ही साबित होता है कि भुगतान किस ऋण के भुगतान के प्रयोग में लाना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में यह ‘ख’ की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी ऋण के भुगतान में इसे स्वीकार करे। यदि वह चाहे, तो अवधि-वर्जित ऋण के भुगतान में भी इसे काम में ला सकते हैं।

3. किसी भी पक्षकार द्वारा नियोजन न किये जाने की दशा में- जब पक्षकार में भुगतान का नियोजन करने में असमर्थ रहते हैं, तो भुगतान का प्रयोग समयक्रमानुसार किया जायेगा, चाहे वह प्रचलित राजनियम के अन्तर्गत अवधि वर्जित हो अथवा नहीं हो। यदि समकालीन है तो भुगतान का प्रयोग प्रत्येक ऋण के आनुपातिक भुगतान के रूप में माना जायेगा।

उदाहरण– ‘अ’ ‘ब’ के प्रति निम्नलिखित ऋणों का देनदार है-

1,500 रु. यह ऋण अवधि-वर्जित है।

2,000 रु. इसकी भुगतान तिथि 5 जुलाई 2010 है।

500रु. इसकी भुगतान तिथि 10 जुलाई 2010 है।

1,000 रु. इसकी भुगतान तिथि 15 जुलाई 2010 है।

2,000 रु. इसकी भुगतान तिथि 20 जुलाई 2010 है।

‘अ’ 30 जून सन् 2010 को ‘ब’ के पास 1,500 रुपये भेजता है। वह यह निर्देश नहीं देता है कि वह किस ऋण के भुगतान हेतु प्रयुक्त किया जाये। इधर ऋणदाता भी किसी प्रकार का नियोजन करने में असमर्थ रहता है। ऐसी दशा में इस भुगतान को अवधि-वर्जित ऋण के नियोजन में मानना चाहिए।

4. यदि मूलधन तथा ब्याज दोनों ही बकाया हों – यदि ऋणी धनराशि का भुगतान करते समयता को यह नहीं बताता है कि उसके द्वारा दी गयी धनराशि का नियोजन मूलधन के लिए है अथवा ब्याज के लिए, तो उसके द्वारा दी जाने वाली धनराशि का नियोजन सर्वप्रथम, ब्याज की राशि के भुगतान हेतु किया जायेगा। यदि इसके बाद भी कुछ धनराशि शेष बचती है तो, उसे मूलधन के लिए समायोजित किया जायेगा।

केस लॉ—’रूलिया देवी बनाम रघुनाथ प्रसाद’ (1979) के विवाद में पटना उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यदि मूलधन तथा ब्याज दोनों बकाया हों तो ऋणी द्वारा दी गयी धनराशि का उपयोग सबसे पहले ब्याज के भुगतान में किया जायेगा यदि बाद में कुछ धनराशि शेष बचती है तो उसका उपयोग मूलधन के भुगतान में होगा।

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Anjali Yadav

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