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अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धान्त
अभिक्रमित अध्ययन के जन्मदाता बी०एफ० स्किनर हैं। अभिक्रमित अध्ययन मूल सिद्धान्तों का वर्णन निम्न है-
(1) लघु-पद सिद्धान्त (Principle of Small Steps )
इस सिद्धान्त के अनुसार-
- पहले शिक्षण सामग्री का विश्लेषण किया जाता है।
- फिर उसे छोटे-छोटे अर्थपूर्ण पदों या अंशों में विभाजित कर दिया जाता है।
- तत्पश्चात् छात्र के समक्ष एक समय में एक लघु-पद या अंश प्रस्तुत किया जाता है, ताकि वह उसे सरलतापूर्वक समझ सके ।
शिक्षण सामग्री के इस लघु-पद या लघु अंशको ‘फ्रेम’ (Frame) कहा जाता है।
(2) तुरन्त प्रतिपुष्टि का सिद्धान्त (Principle of Immediate Feedback or Confirmation )
अभिक्रमित अध्ययन का दूसरा सिद्धान्त है ‘परिणाम या उत्तर की तुरन्त जाँच’। इसमें—
- उत्तर लिखने के तुरन्त बाद छात्र को यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि उसका उत्तर ठीक है या नहीं।
- यदि उत्तर ठीक है तो छात्र अगले पद या अंश की ओर बढ़ सकता है।
- उत्तर अशुद्ध है तो वह पाठ को फिर से पढ़ता है ताकि अगली बार ठीक ठीक उत्तर देने की सम्भावना बढ़ सके।
इस बात को सभी स्वीकार करेंगे कि यदि सीखते समय छात्र को सफलता अथवा सन्तुष्टि मिलती है तो वह सीखी हुई शिक्षण सामग्री से अधिक स्थायित्व प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार तुरन्त प्रतिपुष्टि पा जाने पर छात्र को पुनर्बलन मिलता रहता है और वह सहं। उत्तरों के आधार पर अभिक्रमानुसार पदों या अंशों के माध्यम से आगे बढ़ता हुआ शिक्षणसामग्री से पूर्णता प्राप्त कर लेता है।
(3) सक्रिय-अनुक्रिया का सिद्धान्त ( Principle of Active Responding)
अभिक्रमित अध्ययन का तीसरा नियम है—
- सीखने में सक्रिय भाग लेना।
- सक्रिय अनुक्रिया करना।
केवल पाठ्य-वस्तु को प्रस्तुत कर देना ही यथेष्ट नहीं। इसमें सीखने वाले को निरन्तर कार्य करने और सक्रिय रहने के लिए विवश किया जाता है। अभिक्रम के पूरे होने तक सीखने वाला अनवरत रूप से सक्रिय रहता है।
(4) स्व-गति का सिद्धान्त (Principle of Self-pacing)
इस सिद्धान्त के अनुसार-
- व्यक्तिगत भेदों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है।
- छात्र को पूरा-पूरा अवसर दिया जाता है कि वह अपनी स्वाभाविक गति से शिक्षण सामग्री पर कार्य करे।
- कक्षा के दूसरे छात्रों के साथ चलने के लिए उसे बाध्य नहीं किया जाता।
(5) विद्यार्थी परीक्षण सिद्धान्त (Principle of Student Testing )
इस सिद्धान्त के अनुसार नियमित रूप से छात्रों की प्रगति की परीक्षा की जाती है। इससे-
- विद्यार्थी अपनी परीक्षा स्वयं ले सकता है।
- वह सरलता से ज्ञात कर सकता है कि उसकी अशुद्धियाँ क्या-क्या हैं ? उसकी दुर्बलताएँ क्या-क्या हैं ?
अभिक्रमित अध्ययन की रचना-
अभिक्रमित अध्ययन के निर्माण में तीन सोपान हैं—
(1) तैयारी- इसमें निम्न बातें आ जाती हैं-
- विषय अथवा इकाई का चयन करना ।
- उद्देश्यों को लिखना।
- विषय-वस्तु की रूपरेखा बनाना।
- प्रारम्भिक व्यवहार का परीक्षण बनाना।
- अन्तिम व्यवहार का परीक्षण बनाना।
(2) वास्तविक लेखन- तैयारी पूरी हो जाने पर निर्माण का वास्तविक कार्य प्रारम्भ हो जाता है। वास्तविक लेखन के अन्तर्गत निम्न बातें आयेंगी-
- विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों या अंशों अर्थात् ‘फ्रेम’ के रूप में प्रस्तुत करना।
- सक्रिय अनुक्रिया करना।
- पदों या अंशों (फ्रेम) को एक निश्चित क्रम देना ।
- उत्तरों के परीक्षण के लिए ठीक उत्तर लिखना।
(3) परीक्षण और पुनर्लेखन-वास्तविक लेखन हो जाने पर अभिक्रमित अध्ययन का प्रारम्भिक रूप तैयार हो जाता है। इसके बाद निम्न कार्य किये जाते हैं-
- मूल प्रारूप (Draft) को लिखना।
- प्रारूप (Draft) को सम्पादित करना।
- सम्पादित प्रारूप के आधार पर छात्रों की परीक्षा लेना।
- परीक्षा के आधार पर पुनर्लेखन ।
जब ये तीनों सोपान पूरे हो जाते हैं तो अभिक्रमित अध्ययन का पाठ तैयार हो जाता है।
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