आधुनिक हिन्दी काव्य में मैथिलीशरण गुप्त के योगदान पर प्रकाश डालते हुए उनका स्थान और महत्व निश्चित कीजिये।
मैथिलीकरण गुप्त की प्रथम कृति ‘भारत भारती’ ने ही अतीत गौरव और भारत दुर्दशा की ओर ध्यान आकर्षित किये और पराधीनता की बेड़ियों को तोड़ने की प्रेरणा दी। गुप्त जी की मान्यता थी-
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिये।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिये ॥
गुप्त जी की समस्त रचनाओं का अध्ययन करने पर यह बात स्वतः ही सिद्ध हो जाती है।
गुप्त जी के काव्य में सामाजिक चेतना- गुप्त जी के काल में जहाँ एक ओर स्वाधीनता आन्दोलन अपने पूरे जोर पर था, वहीं ब्रह्म समाज, आर्य समाज, विवेकानन्द, रामतीर्थ द्वारा जगायी चेतना भी उभर रही थी। परिणामतः भारत के विघटित, सुप्त, रूढ़िग्रस्त समाज को नव चेतना से मण्डित करके सामाजिक उन्नति का स्वर गुप्त जी ने प्रसारित किया। सबसे बड़ी समस्या सामाजिक विषमता की थी। उसके मिटाये बिना सम्पूर्ण समाज एकात्मक भाव के अभाव में पंगु में सा दिखता था। अतः गुप्त जी ने पतित, दलित, निम्न वर्ग की प्रतिष्ठा अनुभव की-
उत्पन्न हो तुम प्रभु पदों से जो सभी को ध्येय हैं।
तुम हो सहोदर सुरसरी के चरित जिसके गेय हैं।
पारिवारिक सामञ्जस्य- परिवार जहाँ गृहस्थ जीवन की रंगस्थली है वहीं उसकी श्रेष्ठता सामाजिक जीवन के उत्कर्ष का आधार भी है। पारिवारिक श्रेष्ठता और सामंजस्य का चित्र ‘साकेत’ में गुप्त जी ने जिस ढंग से अंकित किया है उसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। लक्ष्मण-उर्मिला संवाद दाम्पत्य जीवन की समरसता को प्रकट करता है-
किन्तु मैं भी तो तुम्हारा दास हूँ।
उर्मिला उत्तर देती है-
दास बनने का बहाना किसलिये।
क्या मुझे दासी कहाना इसलिये ॥
सम्प्रदाय – साम्प्रदायिकता सामाजिक जीवन में दावानल के समान फैलकर समाज और राष्ट्रोन्नति में बाधक होती है। वे हिन्दू मुस्लिम सद्भाव के पक्षधर थे-
“हिन्दू मुसलमान दोनों अब छोड़े वह विग्रह की नीति।”
यह तभी सम्भव हो सकेगा जब पारस्परिक भाईचारा का निर्माण होगा-
“हिन्दू-मुसलमान सब भाई, नित नवीन जय गान उदान,
वैष्णव, बौद्ध, जैन आदिक हम उस पर हिंसा करें कि प्यार”
दुर्बलता का नाश- अंग्रेजों ने हमारे भीतर हीनता भावना भरने का प्रयास किया, जब तक समाज विघटित रहेगा तब तक उन्नति की संभावना सीमित है और अशक्त समाज विदेशी आततायी शासन से संघर्ष करके राष्ट्र को सशक्त कैसे बना सकेगा अतः गुप्त जी ने शक्ति सम्पन्न सामाजिक रचना के गीत गाये-
“अपने युग को हीन समझना आत्महीनता, होगी।
सजग रहो इससे दुर्बलता और दीनता होगी
जिस युग हम हुए वही तो अपने लिये बड़ा है
अहा हमारे आगे कितना कर्म क्षेत्र पड़ा है।। “
अन्याय का प्रतिकार- अन्याय और अत्याचार के गुप्त जी विरोधी थे। अतः उन्होंने निर्भय होकर अन्याय के विरुद्ध आवाज उठायी-
न्याय धर्म के लिये लड़ो तुम ॠल हित समझो।
अनय-राज निर्दय समाज से निर्भय होकर जूझो ।
नारी महत्ता – नारी जननी है। परिवार की अधारशिला है। जिस समाज की नारियाँ श्रेष्ठ होती हैं वहाँ रत्न पैदा होते हैं। किन्तु मध्यकालीन चिन्तन ने नारी को भोग्या और दासी बनाकर उसके ऊपर मनमाने अत्याचार किये-
नर के बाँटे क्या नारी की नग्न मूर्ति ही आई?
माँ, बेटी, बहन हाय! क्या संग नहीं वह लाई?
मानवतावाद – गुप्त जी मानवतावाद के पक्षधर थे तभी उन्होंने ‘भारत भारती’ में ‘सर्व भूत हित रत निज धर्म की बात कही। विश्व बन्धुत्व की प्रेरणा देते हुए मानव को सर्वोपरि मानते हुये कहा-
“मनुष्यत्व सबके ऊपर है मान्य यही मण्डल के बीच”
राजनीतिक चेतना- गुप्त जी के काल में अंग्रेजों का शासन पूर्ण रूप से जमा हुआ
था। उसको उखाड़ने का संघर्ष भी चल रहा था तो अंग्रेजों का दमन भी जोरों पर था। अतः उस युग की पुकार थी देशभक्ति की भावना। उनकी ‘भारत भारती’ देशवासियों को पराधीनता से मुक्ति की प्रेरणा देती है
शासन किसी पर जाति का चाहे विवेक विशिष्ट हो
सम्भव नहीं है किन्तु जो सर्वांश में वह इष्ट हो ॥
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