राजनीति विज्ञान / Political Science

आस्टिन के प्रभुस्ता के सिद्धान्त की आलोचनात्मक | Criticism of Austin’s theory of sovereignty In Hindi

आस्टिन के प्रभुस्ता के सिद्धान्त की आलोचनात्मक | Criticism of Austin's theory of sovereignty In Hindi
आस्टिन के प्रभुस्ता के सिद्धान्त की आलोचनात्मक | Criticism of Austin’s theory of sovereignty In Hindi

ऑस्टिन के प्रभुस्ता के सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

ऑस्टिन का प्रभुसत्ता सिद्धान्त (AUSTIN’S THEORY OF SOVEREIGNTY)

19वीं शताब्दी के प्रख्यात कानूनवेत्ता जॉन ऑस्टिन ने अपनी पुस्तक ‘लेक्चर्स ऑन जूरिसप्रूडेंस’ (Lectures on Jurisprudence) में राज्य की प्रभुसत्ता पर बहुत विस्तार से विचार किया है और उसके विचारों का राजनीतिशास्त्र में अत्यधिक महत्व है।

ऑस्टिन के सिद्धान्त की व्याख्या (Explanation of the Theory of Austian)

ऑस्टिन ने हॉब्स और बैन्थम के सिद्धान्तों का अनुकरण करते हुए कानून को ‘राज्य के आदेश का नाम दिया है। इसी मत के आधार पर उसने प्रभुसत्ता का प्रतिपादन इस प्रकार किया है कि “यदि कोई निश्चित विशिष्ट मानव, जिस इसी प्रकार के किसी अन्य श्रेष्ठ मानव के आदेशों का पालन करने की आदत न हो, समाज के अधिकांश लोगों से अपनी आज्ञाओं का पालन करा लेता हो तो वह विशिष्ट मानव उस समाज का ‘प्रभु’ होता है और वह समाज एक राजनीतिक व स्वाधीन समाज माना जाता है।”

ऑस्टिन के सम्प्रभुता सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

1. स्थायित्व (Permanence )- प्रभुसत्ता राज्य की एक अनिवार्य विशेषता है। कोई भी समाज तब तक राजनीतिक या स्वाधीन नहीं माना जायेगा जब तक कि वह प्रभुत्व सम्पन्न न हो। ऑस्टिन ने राज्य को एक राजनीतिक और स्वाधीन समाज के नाम से पुकारा है और स्वाधीन समाज में प्रभुसत्ता का होना अनिवार्य है।

2. निश्चित विशिष्ट मानव ( Determinate Human Superior )- ऑस्टिन के मतानुसार प्रभुत्व शक्ति चाहे एक व्यक्ति में निहित हो या अनेक व्यक्तियों में परन्तु वह निश्चित (Determinate) होनी चाहिए। इसका आशय यह है कि सम्प्रभुता उस सत्ता का नाम है जिसे सम्बोधित कर हम यह कह सकें कि अमुक राज्य में प्रभुसत्ता उस व्यक्ति अथवा समुदाय को प्राप्त है। इस प्रकार सम्प्रभुता का निवास ‘सामान्य इच्छा’ (General Will) या ‘सर्वसाधारण जनता’ (People taken as a whole) में नहीं हो सकता क्योंकि सामान्य इच्छा या सर्वसाधारण जनता का कोई निश्चित आकार नहीं होता।

3. असीम अथवा निरंकुश (Absolute ) – सम्प्रभुत्व शक्ति असीम और निरंकुश होती है। उसे अन्य कोई शक्ति किसी प्रकार का आदेश नहीं दे सकती। इसका आशय यह है कि राज्य में उससे ऊँची अन्य कोई शक्ति नहीं होती। राज्य को कैसे भी कानून बनाने, उनमें परिवर्तन करने तथा उन्हें मिटाने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है।

4. जनता सम्प्रभु की आज्ञा का पालन आदतन करती है ( People habitually obey their Rulers ) – प्रभुत्व शक्ति, समाज के अधिकांश लोगों से अपनी आज्ञा का पालन कराने की क्षमता रखता है। उसका आदेश ही कानून है। दूसरे शब्दों में, प्रभुसत्ता सर्वव्यापक है अर्थात् राज्य के भू-क्षेत्र में जितने भी मनुष्य या समुदाय हैं, वे सभी प्रभुसत्ता के अधीन होने चाहिए।

5. अविभाज्यता ( Indivisibility )- प्रभुत्व शक्ति अविभाज्य है। जब प्रभुसत्ता एक से अधिक लोगों यानी संसद में निहित होती है तो इसका अभिप्राय यह नहीं होता कि प्रभुसत्ता का विभाजन हो जाता है। एक से अधिक व्यक्ति पृथक-पृथक सम्प्रभुता का प्रयोग नहीं करते। वे मिलकर ही सारे निर्णय करते हैं और इसलिए सम्भुत्व शक्ति एक से अधिक लोगों के हाथों में केन्द्रित होते हुए भी अविभाज्य रहती है।

ऑस्टिन के सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Austin’s Theory) 

ऑस्टिन ने कानून, सत्ता और आज्ञापालन पर विशेष बल दिया है। वास्तव में, उसके मतानुसार कानून (Law), अधिकार (Right), और प्रभुसत्ता (Sovereignty) ये तीनों परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध होते हैं अर्थात् इन पर हमें केवल कानूनी दृष्टि से ही विचार करना चाहिए किन्तु आलोचकों, विशेषकर बहुलवादियों (Pluralists) ने ऑस्टिन की सभी महत्वपूर्ण मान्यताओं का खण्डन किया है। उन्होंने इस सिद्धान्त के निम्नांकित दोषों की ओर ध्यान दिलाया है।

1. यह मत कि कानून ऊँचे व्यक्ति द्वारा नीचे व्यक्ति को दिया गया आदेश है, उचित नहीं है (Austin’s notion of Law as a Command cannot be Justified)- सर हैनरी मेन (Sir Henry Maine) के मतानुसार ‘कानून’ की उपयुक्त परिभाषा सभी राज्यों पर समान रूप से लागू नहीं होती। बहुत-से-कानून रीति-रिवाज व धार्मिक परम्पराओं के आधार पर चले आते हैं और उनका पालन जनता इसलिए नहीं करती कि वे किसी शासक अथवा किसी उच्च सत्ता द्वारा दिये गये आदेश हैं बल्कि इसलिए कि वे बहुत प्राचीन काल से चले आ रहे और जनता के जीवन का अंग बन गये हैं। सर हैनरी मेन ने राजा रणजीतिसिंह का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह कहा है कि यद्यपि रणजीतसिंह की शक्ति पूर्ण व असीम थी।

( 1 ) आस्टिन का सिद्धान्त सार्वभौम नहीं है- यह सिद्धान्त प्रत्येक देश पर लागू नहीं होता है। क्योंकि प्रत्येक देश में निश्चित सर्वोच्च सत्ताधारी को खोज पाना मुश्किल है। उदाहरण स्वरूप अमेरिका में किसी व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समूह की ओर संकेत करना कठिन है, जिसे सर्वोच्च रूप से सत्ताधारी कहा जा सके। वेल्जियम सरीखे कुछ एकात्मक व्यवस्था वाले राज्यों में भी प्रभुसत्ता की खोज करना सरल नहीं है।

(2) प्रभुसत्ता में न एकता होती है न सम्पूर्णता- आस्टिन के अनुसार प्रभुसत्ता को निस्सीम होना चाहिए। लेकिन व्यवहार रूप से ऐसा नहीं होता है। प्रभुसत्ता राज्य के भीतर तथा बाहर चारों ओर से बँधी होती है। आन्तरिक क्षेत्र में मनुष्य के अन्य समुदाय इसकी सीमाएँ मर्यादित करते हैं तथा बाह्य क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय कानून की व्यवस्था इसको मर्यादित करती है।

( 3 ) शासक परम्परा का अभिभावक तथा अनुचर बनकर रहता है— ऑस्टिन के अनुसार शासक शब्द ही कानून है। लेकिन शासक को रीति-रिवाजों परम्पराओं को मानना पड़ता है। मेकाइवर के शब्दों में “राज्य की परम्परा निर्माण की शक्ति नहीं के बराबर होती है और परम्परा को नष्ट करने की सम्भवतः उसमें भी कम”। ऑस्टिन के इस सिद्धान्त की आलोचना लास्की तथा हेनरीमेन ने भी की है।

(4) ऑस्टिन राजनीतिक प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करता है- वह केवल कानूनी प्रभुसत्ता को स्वीकारता है, जबकि कानूनी शासक के पीछे सदा राजनीतिक सत्ता रहती है।

( 5 ) प्रभुसत्ता पूर्णरूपेण अविभाज्य नहीं होती है- ऑस्टिन ने प्रभुसत्ता को अविभाज्य माना है लेकिन व्यवहार रूप में ऐसा नहीं होता है। शासन को सुचारू रूप में चलाने के लिए कार्यों का विभाजन होता है। उदाहरणस्वरूप ब्रिटेन में पार्लियामेंट को केवल विधि निर्माण के क्षेत्र में ही प्रभुसत्ता प्राप्त है। कार्यपालिका सम्बन्धी प्रभुसत्ता क्राउन या मन्त्रिमण्डल में तथा न्यायपालिका सम्बन्धी प्रभुसत्ता हाउस ऑफ लार्ड द्वारा निर्मित सर्वोच्च न्यायालय के रूप में विद्यमान है।

(6) ऑस्टिन का सिद्धान्त व्यावहारिक कम तथा सैद्धान्तिक अधिक- प्रभुसत्ता का आस्टिन का सिद्धान्त व्यवहार रूप में किसी भी देश में पूर्णरपूण घटित नहीं होता।

(7) शासक निरंकुश नहीं- ऑस्टिन ने शासक को जिन शक्तियों से विभूषित किया है वह राजनीतिक तथा ऐतिहासिक दृष्टिकोण से असम्भव है।

( 8 ) बहुसमुदायवादी विचारधारा- प्रभुसत्ता के परम्परागत सिद्धान्त खण्डन करती है। लिण्डसे के अनुसार, “यदि वास्तविक तथ्यों पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य का सिद्धान्त खण्डित हो चुका है।” लॉस्की का मत था “यदि सर्वप्रभुत्व सम्पन्नता की समस्त धारणा का परित्याग कर दिया जाय तो राजनीतिशास्त्र को चिरस्थायी लाभ होगा।”

अन्त में हम यह कह सकते हैं कि आस्टिन के सिद्धान्त में अनेक दोष हैं, लेकिन आज भी आस्टिन के सिद्धान्त की गणना उच्चकोटि में की जाती है। आस्टिन ने प्रभुसत्ता के प्रमुख गुणों की व्याख्या सबसे अच्छी की है। इसका यह भी कारण सकता है कि आस्टिन एक वकील था। अतः उसने कानूनी दृष्टिकोण से सबसे अधिक प्रभुसत्ता को आँका है, इसलिए आस्टिन ने प्रभुसत्ता को राजनीतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण से बिल्कुल नहीं देखा है।

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Anjali Yadav

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