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एजेन्सी का अर्थ एवं परिभाषा | एजेन्सी के प्रकार | एजेन्सी की समाप्ति अथवा खण्डन

एजेन्सी का अर्थ एवं परिभाषा | एजेन्सी के प्रकार | एजेन्सी की समाप्ति अथवा खण्डन
एजेन्सी का अर्थ एवं परिभाषा | एजेन्सी के प्रकार | एजेन्सी की समाप्ति अथवा खण्डन

एजेन्सी क्या है? यह किस प्रकार स्थापित की जाती है और किस प्रकार समाप्त की जाती है? विवेचना कीजिए। 

एजेन्सी का अर्थ एवं परिभाषा 

एजेन्सी से आशय दो पक्षकारों के बीच उस वैधानिक सम्बन्ध से है, जिसके अन्तर्गत एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार प्राप्त होता है। इसे निम्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है-

(1) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 की धारा 182 के अनुसार- “एक एजेन्ट वह व्यक्ति है जो किसी दूसरे व्यक्ति की ओर से कार्य करने के लिए अथवा तृतीय पक्षों के साथ व्यवहार में किसी दूसरे व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियुक्त किया जाता है।” यह व्यक्ति जिसकी ओर से ऐसा कार्य किया जाता है अथवा जिसकी ओर से इस प्रकार का प्रतिनिधित्व किया जाता है, प्रधान (Principal) कहलाता है और इनके मध्य स्थापित हुए सम्बन्धों की एजेन्सी कहते हैं।

(2) वारटन के अनुसार- “एजेन्सी एक ऐसा अनुबन्ध है जिसके द्वारा एक व्यक्ति निश्चित व्यवसायिक सम्बन्धों में अपनी विवेक शक्ति से दूसरे का प्रतिनिधित्व करने का दायित्व स्वीकार करता है। “

एजेन्सी की स्थापना (निर्माण) की रीतियाँ अथवा एजेन्सी के प्रकार-

एजेन्सी की स्थापना या प्रकार निम्न रीतियों से हो सकती है।

1. स्पष्ट अथवा गर्भित रूप से अधिकार प्रदान किये जाने पर- नियुक्ति तो लिखित अथवा मुखाग्र शब्दों द्वारा की जाती है। नियोक्ता के स्पष्ट अधिकार द्वारा की -एजेन्ट की गयी नियुक्ति स्पष्ट नियुक्ति अथवा परिस्थितियों के वश में होकर की गयी नियुक्ति गर्भित नियुक्ति कहलाती है। उदाहरणार्थ, किसी दुकान का प्रबन्धक, जो अपने स्वामी के नाम से माल और लेन-देन के सौदे करता रहा है, बिना औपचारिक नियुक्ति के स्वामी का गर्भित अधिकार द्वारा प्रतिनिधि माना जायेगा। (धारा 186-187)

2. पुष्टिकरण द्वारा- यो तो एजेन्ट की नियुक्ति के लिए नियोक्ता द्वारा उसे स्पष्ट अथवा गर्भित अधिकार प्रदान किये जाने चाहिए किन्तु यदि ऐसे अधिकारों के बिना ही कोई व्यक्ति दूसरे की ओर से कोई अनुबन्ध कर ले तो उस दूसरे व्यक्ति को ऐसे अनुबन्ध के पुष्टिकरण करने का अधिकार है। यदि यह अनुबन्ध को स्वीकार कर लेता है अर्थात् उसका पुष्टिकरण कर देता है, तो प्रथम व्यक्ति पुष्टिकरण द्वारा एजेन्ट नियुक्त हुआ माना जायेगा और उसके कार्य नियोक्ता पर बन्धकारक होंगे। पुष्टिकरण स्पष्ट या गर्भित हो सकता है। उदाहरणार्थ, ‘क’, ‘ख’ के मकान का एक किरायेदार है। ‘क’इस मकान का एक खाली हिस्सा ‘ग’ से किराया स्वीकार कर लेता है, तो ‘ख’ का यह कार्य ‘क’ के कार्य का गर्भित पुष्टिकरण माना जायेगा।

पुष्टिकरण उचित अवधि के अन्दर होना चाहिए। धारा 198 के अनुसार यदि नियोक्ता यह सिद्ध कर देता है कि पुष्टिकरण करते समय उसे मामले के महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी नहीं थी अथवा जानकारी दोषयुक्त थी, तो नियोक्ता उस पुष्टिकरण के लिए बाध्य नहीं होगा। धारा 199 के अनुसार नियोक्ता एजेन्ट के सम्पूर्ण कार्य का पुष्टिकरण कर सकता है, कार्य के किसी भाग या अंग का नहीं।

3. अवरोध अथवा प्रदर्शन द्वारा- जब कोई व्यक्ति अपने शब्दों अथवा आचरण द्वारा ऐसा प्रदर्शित करता है कि कोई व्यक्ति उनका एजेन्ट है (जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं) और यदि उसके इस व्यवहार में कोई अन्य व्यक्ति एजेन्सी की उपस्थिति में विश्वास करने को प्रेरित होता है, तो ऐसा प्रदर्शन करने वाला व्यक्ति इस एजेन्सी के अन्तर्गत उत्पन्न अपने दायित्वों से इन्कार नहीं कर सकता है। यह सिद्धान्त ‘भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 द्वारा प्रतिपादित अवरोध या प्रदर्शन (Estoppel or Holding out) का सिद्धान्त है। (धारा 237)

एजेन्सी का निर्माण, गत्यावरोध अथवा प्रदर्शन के अन्तर्गत निम्न दशाओं में सम्भव-

(i) एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को अपना एजेन्ट मान सकता है, यद्यपि दूसरा व्यक्ति उसका एजेन्ट नहीं है और न कभी रहा है।

(ii) एक व्यक्ति द्वारा किसी व्यक्ति के समक्ष इस बात का प्रदर्शन करना कि उसके एजेन्ट को व्यापक अधिकार प्राप्त है और वह व्यक्ति इस बात पर विश्वास करके व्यवहार करता है, तो वह व्यक्ति अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता।

(iii) किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को अपने एजेन्ट मान लेना, यद्यपि उसने एजेन्सी का कार्य बन्द कर दिया हो अथवा स्वयं नियोक्ता ने उसे छुड़ा दिया हो।

4. आवश्कता द्वारा एजेन्सी- किसी आकस्मिक घटना अथवा आवश्यकता के कारण एक व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों में पड़ सकता है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति के लिए उसके स्पष्ट आदेश के बिना ही एजेन्ट के रूप में कार्य करें। इससे ‘आवश्यकता द्वारा ऐजेन्सी’ की उत्पत्ति होती है वैसे ही यदि कोई एजेन्ट भी ऐसे कार्य करता है, जो उसके लिए अनाधिकृत है किन्तु यदि परिस्थितियां ऐसी हैं कि वह (1) अपने नियोक्ता से सम्पर्क स्थापित कर पूछताछ नहीं कर सकता, (ii) वह उपस्थित परिस्थितियों में उपयुक्त तथा आवश्यक तरीके से कार्य करता है, तथा (iii) इसका कार्य सद्भावना से प्रेरित हो तो स्वामी उसके कार्यों से बाध्य होगा उदाहरणार्थ, बन्दरगाह में रुके हुए जहाज को आगे की यात्रा के लिए कुछ सामग्री की नितान्त आवश्कता है। ऐसी दशा में जहाज का संचालक उसे गिरवी रखकर वे सामग्रियाँ प्राप्त कर लेता है, तो वह संचालक आवश्यकता के कारण अपने मालिक का एजेन्ट हुआ।

एजेन्सी की समाप्ति अथवा खण्डन

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 201 तथा राज नियम के प्रभावशील होने पर एजेन्सी व्यवहार निम्नलिखित प्रकार से समाप्त किया जा सकता है?

(1) एजेन्सी की अवधि समाप्त होने पर- यदि एजेन्सी की स्थापना किसी निश्चित अवधि के लिए हुई है तो निर्धारित कार्य के पूरा न होने पर भी निश्चित अवधि के बीत जाने पर एजेन्सी की समाप्ति हो सकती है।

(2) विषय वस्तु के नष्ट हो जाने पर- जिस वस्तु के स्बन्ध में एजेन्सी की स्थापना हुई है उसके नष्ट हो जाने पर एजेन्सी स्वत: समाप्त हो जायेगी।

(3) कम्पनी के समापन पर- यदि नियोक्ता अथवा एजेन्ट एक संयुक्त कम्पनी के रूप में हैं तो कम्पनी के समाप्त हो जाने पर एजेन्सी भी समाप्त हो जायेगी।

(4) नियोक्ता के दिवादिया होने पर- नियोक्ता के दिवालिया हो जाने पर एजेन्सी समाप्त हो जायेगी। यदि कोई एजेन्ट यह जानते हुए कि उसका नियोक्ता दिवालिया हो गया है, एजेन्सी का कार्य करे तो ऐसे कार्यों के लिए एजेन्ट व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है।

(5) एजेन्सी अनुबन्ध के निष्पादन द्वारा- जिस कार्य को करने के लिए नियोक्ता ने एजेन्ट को नियुक्त किया, उस कार्य के पूरा हो जाने पर एजेन्सी की समाप्ति स्वयं ही हो जाती है।

(6) समझौते द्वारा- एजेन्सी की समाप्ति किसी भी समय तथा किसी भी अवस्था में प्रधान (नियोक्ता) तथा एजेन्ट के आपसी समझौते द्वारा की जा सकती है।

(7) नियोक्ता अथवा एजेन्ट की मृत्यु हो जाने पर – धारा 209 कं अनुसार नियोक्ता अथवा एजेन्ट की मृत्यु हो जाने पर एजेन्सी समाप्त हो जाती है। नियोक्ता की मृत्यु के कारण एजेन्सी समाप्त हो जाने पर एजेन्ट को अपने नियोक्ता के प्रतिनिधियों की ओर से उसे सौंपे गये हितों की सुरक्षा के लिए सभी उचित उपाय करने चाहिए।

(8) नियोक्ता द्वारा खण्डन करने पर- जब एजेन्ट किसी कार्य विशेष को करने के लिए नियुक्त किया जाता है तो उस कार्य के आरम्भ होने से पहले कभी भी नियोक्ता एजेन्ट के अधिकार का खण्डन कर सकता है। एजेन्ट के अधिकार की समाप्ति ही एजेन्सी की समाप्ति मानी जाती है।

(9) नियोक्ता अथवा एजेन्ट के पागल हो जाने पर- नियोक्ता अथवा एजेन्ट के पागल हो जाने पर एजेन्सी समाप्त हो जाती है। परन्तु एजेन्सी का अन्त करने के लिए उनके पागल होने की सूचना देना आवश्यक है।

(10) निष्पादन के असम्भव हो जाने पर- राजनियम द्वारा एजेन्सी कार्य पर प्रतिबन्ध लगाये जाने अथवा अन्य किसी कारण से जब एजेन्सी कार्य का निष्पादन करना भविष्य में असम्भव हो जाये तो नियोक्ता और एजेन्ट दोनों विवश होकर अनुबन्ध की समाप्ति कर देते हैं।

(11) एजेन्सी का परित्याग करने पर- यदि एजेन्ट नियोक्ता को उचित सूचना देकर एजेन्सी का पद त्याग देता है तो एजेन्सी का अन्त हो जाता है। धारा 205 के अनुसार, यदि एजेन्सी किसी निश्चित अवधि के लिए और एजेन्ट इससे पहले ही पर्याप्त कारणों के अभाव में एजेन्सी समाप्त करता है, तो एजेन्ट नियोक्ता को इससे होने वाली क्षति की पूर्ति करने के लिए। उत्तरदायी होता है।

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Anjali Yadav

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