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कला-शिक्षा तथा बाल केन्द्रित उपागम
कला-शिक्षा- कला-शिक्षा के लिए बाल-केन्द्रित उपागम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कला जीवन को देखने का नवीन तरीका प्रदान करती है। यह जीवन के प्रत्येक पहलू को पूर्णता प्रदान करने की प्रक्रिया है। यह सृजनात्मक, उत्पादक एवं आनन्दपूर्ण ढंग से वर्तमान तथा भावी चुनौतियों का सामना करने का एक रास्ता है।
वर्तमान समय में रटने तथा परीक्षाओं पर अधिक जोर दिया जा रहा है। छात्र सीखने तथा ज्ञान प्राप्त करने में आनन्द नहीं लेते हैं। विद्यालयी शिक्षा निश्चित सूत्रों, नियमों तथा विधियों पर आधारित है, जिसमें छात्र अन्तःकरण से भाग नहीं लेते हैं। ऐसी परिस्थिति में कलाएँ एक अहम् भूमिका निभा सकती हैं। कला का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि सभी मानव अद्वितीय हैं तथा उनमें सजूनांत्मक योग्यता होती है। वे अपनी योग्यता, गति तथा अनुभव के आधार पर सीखते हैं। इस कारण वे एक जैसे नहीं बन सके। विद्यालयी शिक्षा में कला के समावेश के विचार के अन्तर्गत सभी कलाएँ आ जाती हैं। इनको निम्नलिखित प्रकार से विभाजित कर सकते हैं-
1. प्रदर्शनात्मक कला- इन कलाओं में संगीत, नृत्य, नाट्य कला सम्मिलित की जाती हैं।
2. दृश्य-श्रव्य कला- इसमें चित्रकला, स्थापत्य कला, मूर्तिकला, मिट्टी की वस्तुएँ बनाने की कला, आदि आती हैं।
3. भाषा सम्बन्धी कला- इस प्रकार की कला में कविता, लेखन, आदि की कला का समावेश किया जाता है। कला-शिक्षण से आशय यह नहीं कि छात्र कला को ही अपना व्यवसाय चुनें वरन् यह शिक्षा तो उनके जीवन के निर्माण के लिए है, जिसका अर्थ है कि वह सौन्दर्य के पारखी बनें। वे कुर्सी बनाने वाले बढ़ई ही न बनें, चित्रों को तूलिकाओं से रंगने मात्र के चित्रकार न बनें वरन् उनमें वह भी शक्ति हो कि वह अपने लिए उत्तम से उत्तम तथा शोभायुक्त सामान का चुनाव कर सकें। वस्तु क्रय करते समय वस्तु का अच्छा चुनाव करके उनको घर में किस प्रकार सजा कर रखा जाए ?
बाल-केन्द्रित उपागम
कला-शिक्षा अध्ययन को आनन्दप्रदायक बनाती है तथा उसमें छात्र की उत्सुकता बनी रहती है। यह शिक्षक तथा शिक्षार्थी को अवसर प्रदान करती है कि वे सृजनात्मक ढंग से मिल-जुलकर कार्य कर सकें। मानव इस भौतिक तथा अभौतिक संसार को प्रकाश, ध्वनि, स्पर्श, सुगन्ध, अनुभवों और ज्ञान के माध्यम से जानता है। प्रत्यक्ष अनुभव से प्राप्त ज्ञान प्रभावी और विकास में सहायक होता है। उस समय शिक्षा की जानकारी उत्कृष्ट होती है, जब सभी ज्ञानेन्द्रियाँ, संवेग तथा शारीरिक बोधात्मक क्षमताएँ भाग लें। इसलिए कला की शिक्षा में प्रेक्षण, परिवर्तन की अभिलाषा, विचारों का बोध तथा विचारों और संवेगों का विकास करने के लिए कौशल, आदि की आवश्यकता है। वह शिक्षा जो पढ़ने और सुनने पर आश्रित होती है, वह आंशिक होती है, जिसका परिणाम कोरा ज्ञान होता है। कला के ज्ञान को आत्मसात् करने के लिए अनुभव प्रदान करती है। इस प्रकार यह बाहरी तथा आन्तरिक संसार के बीच की खाई को पाटने का कार्य करती है। छात्र को पूर्ण ज्ञान की अभिव्यक्ति के अवसर देने की आवश्यकता है। अभिव्यक्ति में गत अनुभवों, प्रसंगों, विचारों और संकल्पनाओं को व्यवस्थित रूप से व्यक्त किया जाता है।
अनुभूति एवं अभिव्यक्ति दोनों में ही प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्न होते हैं ? व्यक्ति एक ही पुष्प को भिन्न-भिन्न रूपों में देखते हैं; कोई इसके रंग को पसन्द करता है, कोई उसकी सुगन्ध को पसन्द करता है, कोई इसके आकार, प्रकार तथा रूप की बनावट की तो प्रशंसा करता है। कुछ लोग उसकी समृद्धि पर मोहित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का सोचने और देखने का ढंग अलग-अलग होता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अपने ढंग से ही सुधारता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी कलाएँ छात्र को इस बात के अधिक अवसर देती हैं कि वे एक-दूसरे से भिन्न हो सकें और साथ ही बिना सही और गलत हुए अपना योगदान दे सकें। इस क्षेत्र में अध्यापक की भूमिका यह होनी चाहिए कि वह छात्रों को बिना भय एवं प्रतियोगिता के सीखने की दिशा में अनुकूल प्रोत्साहन दे।
छात्रों द्वारा बाहरी प्रभाव के बिना की गयी अभिव्यक्ति का आदर किया जाना चाहिए। संगीत, चित्रकला, रूप, गति, त्रिविमीय तथा अभिनय, आदि सभी कला के अंग हैं, जिनका विकास मानव ने अपने परिवेश को समझने के लिए किया है। साहित्य में भाषा के शब्द होते हैं तथा अंकगणित में भाषा की समस्याएँ होती हैं। कला में वे अन्य भाषाएँ हैं, जिनका सृजन परिवेश के अन्य पक्षों को समझने और अभिव्यक्त करने के लिए किया जाता है। इन भाषाओं में से किसी एक भाषा के विकास के लिए अवसरों का अभाव सम्पूर्ण मानव सामर्थ्य की समृद्धि को रोक सकता है। कला का अधिकतम सम्बन्ध छात्र की व्यक्तिगत रुचि से होता है। इस कारण यह बाल-केन्द्रित अधिक होती है।
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