हिन्दी साहित्य

‘कामायनी’ आशा सर्ग की कला पक्ष और भाव पक्ष के आधार

'कामायनी' आशा सर्ग की कला पक्ष और भाव पक्ष के आधार
‘कामायनी’ आशा सर्ग की कला पक्ष और भाव पक्ष के आधार
आशा सर्ग की कला पक्ष और भाव पक्ष के आधार  पर विवेचना कीजिए।

प्रसाद कृत ‘कामायनी’ में कुल पंद्रह सर्ग हैं। क्रमानुसार ‘आशा सर्ग’ कामायनी का दूसरा सर्ग है। मानव जाति के आदिपुरुष मनु हैं। वे देव जाति के हैं। देव जाति के मनु के किस प्रकार मानवीय जाति का सूत्रपात किया यह वास्तव में अपने में एक विलक्षण घटना है। किन्तु इस घटना का सीधा सम्बन्ध खण्ड-प्रलय की घटना है। खण्ड-प्रलय के अनंतर अकेले मनु जीवित बचे थे।

आशा सर्ग के आधार पर जयशंकर प्रसाद के काव्य-सौष्ठव।

                         अथवा

भाव पक्ष एवं कला पक्ष का विवरण निम्नवत् है-

आशा सर्ग का भावपक्ष-

आशा सर्ग की कथा वस्तु कई चित्रों के योग से निर्मित हुई है। जलप्लावन समाप्त हो चुका है। शनैः शनैः पृथ्वी निकालने लगी है। प्राकृतिक वनस्पतियाँ पुनः अंकुरित होने लगी हैं। चतुर्दिक प्रकृति उन्मुक्त होकर क्रीड़ा करने लगी है। प्रकृति की इस हरितिमा से मनु के मन को शांति मिली। उनमें आशा का संचार हुआ। फलतः भावी जीवन के प्रति उनमें आस्था पैदा हुई।

छायावादी काव्य में कथा तत्त्व को गौण समझा गया है। प्रसाद जी छायावाद के आधार स्तम्भ हैं। इसलिए उनका काव्य इस मान्यता का अपवाद नहीं। इसलिए कहा जा सकता है कि आशा सर्ग में कथा का अधिक विस्तार नहीं। इसमें केवल आशा भाव को ही विस्तार दिया गया। है। किन्तु यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि आशा के उदय होने पर जहाँ हर्ष, उल्लास उत्सुकता और जिज्ञासा एवं कुतूहल का भाव पैदा होता है वहीं पर विगत विषमताओं का ध्यान भी आता है। जिसमें मन कातर हो उठता है और आशा की ज्योत्सना धूमिल होने लगती है। लेकिन यदि आशा का धनीभूत संचार हो गया है तो स्मृतियों के कुहासे में वह धुल नहीं पाती और व्यक्ति में सुखद जीवन की मधुर कल्पना तरंगित होने लगती है।

स्मरणीय है कि मनु ने समृद्धियों भरा जीवन भोगा था, सुरा-सुन्दरियों का उन्मुक्त आनंद लिया था, सम्पूर्ण सृष्टि में इस देव संस्कृति का वैभवशाली साम्राज्य स्थापित था, परन्तु प्रलय की लहरों में सब कुछ सहसा बढ़ गया। अतः मनु के जीवन में जब आशा भाव का उदय हुआ तो इसस विनष्ट वैभव की चिंता भी मस्तिष्क पर मंडराने लगी और उनमें निराशा भरने लगी। किन्तु मनु के समक्ष प्रकृति का आलोक क्रीड़ा कर रहा था। इससे उनकी टूटती आशा को बल मिला और वे जीवन की मधुर कल्पनाओं में खो गये।

“यह क्या मधुर स्वपन सी झिलमिल,
सदय हृदय में अधिक अधीर।
व्याकुलता-सी व्यक्त हो रही,
आशा बनकर प्राण समीर॥”

आशा भाव के उदय होने पर उनमें जीने की प्रबल जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी। आनंद का संगीत उनके कानों में गूंजने लगा और वे उत्साह से भर उठे।

जीवन जीवन की पुकार है
खेल रहा है शीतल दाह।
किसके चरणों का मत होता
नव प्रभात का शुभ उत्साह।

अभी तक मनु का मन भावी आशंकाओं से डूबता जा रहा था, किन्तु आशा के संचार से उनमें जीवन की सुखद अनुभूति होने लगी। उनमें जीने की प्रबल इच्छा जागृत हो उठी। मनु स्वयं प्रश्न करने लगे-

“मैं हूँ यह वरदान सदृश क्यों
लगा गूंजने कानों में:
मैं भी कहने लगी! मैं रहूँ
शाश्वत नभ के गानों में ॥”

मन में जिज्ञासा एवं कौतूहल कौंध उठा। मनु के जीवन में जीवित रहने का भाव पुनः जागृत हो उठा तो एक बार उन्हें विगत विभीषिका का और स्मरण हो आया। उनकी चेतना पुनः निराशा में डूब गयी। वे प्रश्न कर बैठे

“तो फिर क्या मैं जिऊँ और भी
जीकर क्या करना होगा।
देव! बता तो अमर वेदना
लेकर कब मरना होगा।”

इतना ही नहीं,  जब प्रलय के उपरांत सम्पूर्ण सृष्टि में शारदीय विकास परिलक्षित होने लगा। समग्र प्रकृति लहलहाती हुई मधुमय संगीत छेड़ने लगी, ग्रह, नक्षत्र और सूर्य पुनः पूर्ववत अस्त-उदय के क्रम में निकलने और छिपने लगे, मनु को प्रकृति के इन क्रिया-कलापों ने जिज्ञासु बना दिया। उनमें इस रहस्य को जानने का कुतूहल जाग उठा कि इन प्राकृतिक शक्तियों को संचालित करने में किस अव्यक्त सत्ता का हाथ है? वह किसका माधुर्य है जिससे सिक्त होकर लताएँ और वृक्ष लहरा रहे हैं।

छिप जाते हैं और निकलते
आकर्षण में खिंचे हुए।
तृण वीरुध लहलहे हो रहे
किसके रस से खिंचे हुए।

इतना ही नहीं, प्रसाद जी ने अमूर्त भावों को भी मूर्त उपमानों से उपमित करके उनका चित्र प्रस्तुत कर दिया है।

खुली उसी रमणीय दृश्य में
अलस चेतना की आँखें। 
हृदय कुसुम की खिली अचानक
मधु से वे भींगी पाँखें ॥

यहाँ पर आशा के उदित होने पर चेतना ही प्रफुल्लता का वर्णन किया गया है। इस स्थिति के उदय होने पर व्यक्ति की भावनाएं भी स्वप्निल हो उठती है। उसमें तरह-तरह के स्वप्न उठने लगते हैं जो बड़े ही मनोरंजक होते हैं। मनु की भी यही स्थिति हुई-

“व्यक्त नील में चल प्रकाश का
कंपन सुख बन बजता था।
एक अतीन्द्रिय स्वप्नलोक का
मधुर रहस्य उलझता था।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रसाद जी की भावाभिव्यंजना उत्कृष्ट कोटि की थी। कवि का कवित्व ही इसी तथ्य में निहित है कि वर्ण्य को समग्र रूप से सहृदय के हृदय में उतार दे। उसको वैसी ही अनुभूति में डुबो दे। प्रसाद जी इस दृष्टि से एक सफल कलाकार सिद्ध होते हैं। कामायनी की भाव-प्रधानता उनकी कल्पना-शीलता और वर्णन की रोचकता का ही प्रतीक है। उसमें भावों का शुष्क वर्णन नहीं, अनुभूति की सरसता है।

प्रकृति वर्णन- आशा सर्गे में प्रकृति भूमिका रूप में चित्रित हुई है। इसके साथ ही वातावरण सृजन में भी इसका विशेष हाथ है। प्रकृति का सूक्ष्म पर्यवेक्षण हमें प्रसाद के वर्णनों में देखने को मिलता है। इसमें प्रकृति मुख्य रूप से मानवीय चेतना से संयुक्त जीवनदायिनी शक्ति से सम्पन्न है। इसके साथा ही उसका गम्भीर रूप भी चित्रित किया गया है। वह मनु के हर्षाकुल होने पर अत्यन्त रमणीय और मोहक है। उनमें विकास की प्रक्रिया दिखाई पड़ती है, परन्तु मनु के चिंताकुल होते ही प्रकृति भी शांत एवं स्तब्ध हो जाती है।

प्रलय के समाप्त होने पर जल के घट जाने पर पृथ्वी का कुछ-कुछ भाग दिखाई पड़ने लगा। प्रसाद कल्पना करते हैं मानो कोई नववधू रात्रि-मिलन, की स्मृति में खोई हुई लजाई-सी संकुचित होकर शय्या पर बैठी है-

“सिन्धु-सेज पर धरा-वधू अब
तनिक संकुचित बैठी सी।
प्रलय-निशा की हलचल स्मृति में
मान किये-सी ऐंठी-सी ॥

आशा सर्ग का कलापक्ष-

कलापक्ष की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में छायावाद का विशेष महत्त्व है क्योंकि इसने नवीन अलंकारों तथा नवीन भाषा शक्ति को जन्म दिया है। जहाँ तक प्रसाद जी के कलापक्ष का प्रश्न है, वह अद्वितीय है।

इनके कलापक्ष की विशेषताएँ निम्नांकित हैं—

( 1 ) भाषा- भाषा पर प्रसाद जी का पूर्ण अधिकार है। वह लाक्षणिकता से परिपूर्ण है। उसमें माधुर्य है। प्रवाह है और है मानव-मन को आकृष्ट करने की शक्ति। अथवा यह कहा जाये कि उनकी भाषा भावानुरूपिणी भी है तो इसमें अत्युक्ति न होगी। देखिए –

व्यक्त नील में चल प्रकाश का
कंपन सुख बन बजता था।
एक अतीन्द्रिय स्वप्न लोक का
मधुर रहस्य उलझता था।

( 2 ) शैली- भाषा की ही भाँति उनकी शैली भी आकर्षक, चित्रात्मक, प्रभावोत्पादक एवं सूक्ष्म अभिव्यंजना पर आधारित है। उनकी चित्रात्मक शैली की एक बानगी लीजिए-

स्वर्ण शालियों की वलयें थीं
दूर-दूर तक फैल रही।
शरद इंदिरा के मन्दिर की
मानों कोई गैल रही ॥

( 3 ) अलंकार-आशा सर्ग में अलंकारां का प्रयोग भाषा को अलंकृत करने के लिए नहीं वरन् भावों के उत्कर्ष के लिए किया गया है। इसमें उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष एवं मानवीकरण आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। मानवीकरण का एक उदाहरण लीजिए-

सिन्धु-सेज पर धरा-वधू अब
तनिक संकुचित बैठी-सी।
प्रलय- निशा की हलचल स्मृति में
मान किये-सी ऐंठी-सी ॥

निष्कर्ष – इस प्रकार यह कहा जा सकसता है कि भावपक्ष एवं कलापक्ष की दृष्टि से- जयशंकर प्रसाद कृत कामायनी का आशा सर्ग पूर्ण सफल है। छायावादी कवि ‘कला कला के लिए’ के सिद्धांत को मानने वाले हैं। इसलिए छायावादी कवियों ने भाषा, छन्द एवं अलंकारों के उपयोग में विशेष सावधानी बरती है। इसमें प्रकृति का बड़ा मनोरम चित्र उपस्थित किया गया है साथ ही आशा भाव का बड़ा भी विशुद्ध चित्रण हुआ है।

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Anjali Yadav

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