कामायनी छायावाद की प्रौढ़ कृति है। सोदाहरण विवेचना कीजिये।
हिन्दी तथा विश्व साहित्य में प्रसाद का साहित्य अत्यधिक समर्थ एवं मानवता का संवाहक रूप रहा है। उनकी प्रतिभा ने हिन्दी साहित्य की समस्त विधाओं को प्रभावित किया है। उनकी दार्शनिक क्षेत्र में भी व्यापक पहुँच है। साहित्य के माध्यम से उन्होंने मित्रमय कोष से आनन्द मय कोष की व्याख्या प्रस्तुत की। उनके काव्य में अभिनव भावों को अनुपमेय अभिव्यक्ति मिली है। अतः उनके काव्य में भावपक्ष एवं कलापक्ष का अनुशीलन उपयुक्त प्रतीत होता है।
स्वच्छन्द काव्य के प्रणेता, प्रसाद स्वच्छन्द काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। उनके पूर्व इतिवृत्तात्मक रचनाओं का बाहुल्य था। प्रसाद जी ने इस लोक से हटकर स्वतन्त्र भावों से ओत प्रोत रचनायें लिखी, जिसमें कथा की अपेक्षा मानसिक बोध पर बल दिया गया।
शृंगारिकता – रीतियुग शृंगारी कविता के क्षेत्र में सर्वाधिक सम्पन्न माना जाता है। ऐन्द्रिक विलास और अश्लील शृंगार के कारण उस युग की विगर्हणा भी समीक्षकों द्वारा की गई। द्विवेदी युग में शृंगार को हेय तथा समाज विरोधी बताया गया किन्तु प्रसाद जी ने शृंगार के क्षेत्र में मुक्त प्रेम की भावधारा का विकास किया तथा उपयुक्त प्रेम के ऐसे के ऐसे चित्र खींचे जो हिन्दी साहित्य में अनूठे थे। यथा-
अरे कहीं देखा है तुमने, मुझे प्यार करने वाले को।
मेरी आँखों में आकर फिर आँसू बन ढरने वाले को ॥
निराशावादिता- निराशावादिता प्रसाद के काव्य में यत्र-तत्र लक्षित होती है। राष्ट्रीय पराधीनता से प्रभावित होने के कारण प्रसाद एक नये लोक की कल्पना कर रहे थे जो मात्र कल्पना लोक थी-
ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे ॥
वेदना और दुःखमय- प्रसाद जी का जीवन झंझावातों के मध्य विकसित हुआ था।
कवि ने जीवन के दुःखों को समझा था। उन्हें इसकी गहन अनुभूति हुई थी। इसीलिए उनके समस्त पात्र एकाकी और दुःख की अनुभूति से अनुप्राणित थे। वेदना उनकी कविता का मूल स्वर है। कवि की निजी वेदना कालान्तर में सार्वभौमिक बनकर विश्व में व्याप्त हो जाती है। प्रसाद की यही सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। वे प्रारम्भ से भले ही दुःख से अभिभूत रहे हों। किन्तु धीरे-धीरे वह दुःख सुख को का पर्याय मान लेते हैं।
नारी भावना- प्रसाद ने नारी को भक्ति एवं रीतिकालीन स्वरूप के स्थान पर एक नये रूप से देखा है जहाँ नारी न पुरुष की क्रीत दासी है और न ऐन्द्रिक विलास की सामग्री। वह नरक की खान और प्रतारणा की अधिकारिणी भी नहीं है तथा द्विवेदी युगीन कवियों की भांति उसमें दैन्य भी नहीं है। प्रसाद की नारी आदर्श, प्रेमिका, सौन्दर्य की प्रतिमा, कोमल भावों की सूत्रधारिणी तथा विश्व की प्रकाशिका है। कवि ने कहा-
नारी तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत ही बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में।
सौन्दर्यानुभूति- प्रसाद के काव्य में सुन्दरम कार साकार उपासना की गई है। उनका सत्यम् और शिवम् सुन्दरम् से ओत-प्रोत है। सौन्दर्य बोध उनकी अप्रितम विशेषता है। प्रकृति के प्रत्येक अणु को सौन्दर्य से परिपूर्ण देखना उनकी दृष्टि की विशेषता है। सौन्दर्य के विषय में वे स्वयं कहते हैं।
तुम कनक किरण के अन्तराल में लुक छिप कर चलते हो क्यों।
है राज भरे सौन्दर्य बता दो, मौन बने रहते हो क्यों ।
नियतिवाद- प्रसाद जी नियतिवादी थे। उनकी दृष्टि की नियोजिका, निरोधिका एवं नियामिका शक्ति नियति है। किन्तु नियतवादी होने पर भी उनका विश्वास कर्म में था। वे कर्म रहित नियति की कल्पना भी न करते थे।
प्रकृति-चित्रण- छायावादी काव्य चेतना का मूल स्वर उनके प्राकृतिक चित्रण में सन्निहित है। प्रसाद स्वयं प्रकृति के अनन्योपासक थे। प्रकृति को मानवीय चेतना जगत से भिन्न सत्ता के रूप में नहीं देखते। इसीलिये उनके काव्य में प्रकृति एवं मानव में पार्थक्य नहीं मिलता। प्रकृति में के इसी मानवीकरण के कारण प्रसाद का काव्य अत्यधिक मनोहारी एवं भावपूर्ण है। कामायनी में श्रद्धा का प्रथम दर्शन मनु के हृदय में एक प्राकृतिक सौन्दर्य पैदा करता है-
और देखा वह सुन्दर दृश्य नयन का इन्द्रजाल अभिराम।
कुसुम-वैभव में लता समान चन्द्रिका में लिपटा घनश्याम ॥
अभिव्यंजना कौशल व अभिव्यन्जना कौशल- की दृष्टि से प्रसाद का काव्य आधुनिक हिन्दी काव्य में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे एक कुशल शब्द शिल्ली के रूप में पाठकों के सामने आते हैं। स्वयं प्रसाद के शब्दों में छायावादी अभिव्यंजना एक तड़प उत्पन्न करने वाली सूक्ष्म अभिव्यक्ति है।
शब्द-सौष्ठव- प्रसाद ने कोमलकान्त पदावली के द्वारा प्रतीकों को ग्राह्य बनाया-
वह विश्व मुकुट सा उज्ज्वलतम शीशखण्ड सदृश या स्पष्ट भाल
दो पद्म पलाश चमकते दृग देते अनुराग विराग ढाल ॥
अप्रस्तुत विधान- लाक्षणिकता एवं सूक्ष्म सौन्दर्य बोध के कारण प्रसाद ने प्रस्तुत के स्थान पर अप्रस्तुत कथन किया है। ये अप्रस्तुत कवि की सूक्ष्म ग्रहिका शक्ति के परिचायक हैं। हैं-उषा-
प्रतीक योजना- प्रसाद के काव्य के कतिपय प्रतीक इस प्रकार प्रयुक्त हुए। सुख, प्रभात, आनन्द, मुकुल प्रिया, मधु-प्रफुल्लता, मधुप-प्रेमी, झंझा-वेदना, मुरली भाव इत्यादि ।
छन्द योजना- प्रसाद जी ने हिन्दी के नये पुराने समस्त छन्दों का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त लोकगीतों की लय पर आधारित छन्द भी उनके काव्य में मिलते हैं।
यथा- दोहा, कवित्त, लावनी, कजली, वीर, वर्णिक छन्द ।
महाकवि जयशंकर प्रसाद के काव्य की उपर्युक्त विशेषताओं से यह सिद्ध हो जाता है कि वे हिन्दी साहित्य में अनुभूति एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ कवि हैं तथा उनका काव्य हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व साहित्य में प्रमुख स्थान रखता है।
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