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घनानन्द के संयोग वर्णन का सारगर्भित | The essence of Ghananand coincidence description in Hindi

घनानन्द के संयोग वर्णन का सारगर्भित | The essence of Ghananand coincidence description in Hindi
घनानन्द के संयोग वर्णन का सारगर्भित | The essence of Ghananand coincidence description in Hindi
घनानन्द के संयोग वर्णन का सारगर्भित विवेचन कीजिए।

घनानन्द का श्रृंगार वर्णन-

घनानन्द की शृंगार भावना – हिन्दी-साहित्य में शृंगार रस को रसराज माना गया है क्योंकि मानव मन की अधिकांश वृत्तियों को इसके अन्तर्गत स्थान मिल जाता है। इतना ही नहीं वरन् 33 संचारी भावों से लगभग 28 संचारी भाव भी इस रस के अन्तर्गत आ जाते हैं। यह रस व्यापकता की दृष्टि से भी महान सिद्ध होता है। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य में इस रस को विशेष महत्त्व दिया गया है। रीतिकाल में तो इस रस को आधार ही मान लिया गया है। रीति-मुक्त कवियों ने भी शृंगार को ही अपनाया है। रीतिबद्ध कवियों का श्रृंगार चित्रण ऊहात्मक एवं काल्पनिक होने के कारण हृदयग्राही नहीं बन सका। किन्तु रीतिमुक्त कवियों का श्रृंगार समृद्ध स्वानुभति पर आधारित होने के कारण सहृदयों पर तुरन्त प्रभाव डालता है। घनानन्द को सर्वप्रथम शृंगार की प्रेरणा लौकिक प्रेम से प्राप्त हुई थी किन्तु उसमें असफलता मिलने पर वह पारलौकिकता की ओर उन्मुख हो गये। शृंगार के दो रूप प्राप्त होते हैं- संयोग शृंगार, वियोग शृंगार, घनानन्द के काव्य में इन दोनों का सम्यक् चित्रण हुआ है किन्तु घनानन्द का अधिकांश काव्य विरह भावना से ओतप्रोत है।

संयोग चित्रण- जिस प्रेम का आधार वासना होता है वह भोगवाद की ओर बढ़ता है। और जो प्रेम आत्मानुभति के रूप में है अन्तिम रूप भी प्रेम ही होता है। हमारे यहाँ काव्यशास्त्रियों ने संयोग शृंगार के योग को स्वीकार किया है। घनानन्द के काव्य में संयोग चित्रण के चित्र कम मिलते हैं परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि सुजान से उन्हें शारीरिक सामीप्य स्थापना का सुयोग प्राप्त हुआ था। इसी कारण मादक स्मृतियों का चित्रण अत्यन्त मर्मस्पर्शी बन सकता है। यद्यपि यह संयोग चित्रण 30-40 छन्दों में ही व्यक्त हुआ है। फिर भी वह कसौटी पर खरा उतरता है। यहाँ पर कवि के आसन्न संभोग का एक चित्र देखिए, जिसमें रोम-रोम आनन्द से विभोर है, अंग-अंग से उल्लास फूट रहा है-

बोलत बधाई दौरि दौरि के छबीले द्वग ,
दसा सुभ सगुनौती नीके इन है पढ़ी।
कंचुकी तरकि मिले सरकि उरज, भुज,
फरकि सुजान चौप-चुहल महा बढ़ी।

प्रणय में वासना और वासना-पर्ति के लिए दैन्य किस सीमा तक पहुँचता है इसमें सदाचारहीनता नहीं। अपने प्रिय के प्रति ईमानदारी है। कामार्त व्यक्ति में दीनता एक स्वाभाविक लक्षण है:

घन आनन्द यौं बहु भाँतिन हौं, सुखदान सुजान समीप बसौं ।
हित चायिन च्वै हित चाहत नै, नत पायन ऊपर सीस धँसौ ॥

जब प्रेयसी अपने अंग-प्रत्यंगों से प्रिय को सामीप्य लाभ कराने की उत्सुकता व्यक्त कर रही हो तब मन को कैसे रोका जा सकता है। इस प्रकार कवि ने सुजान को देखकर कामोदीप्त शरीर की भूख को उत्तरोत्तर बढ़ने के चित्र भी उपस्थित किये हैं।

रति-सुख-स्वेद ओप्यो आनन विलोकि प्यारो,
प्राननि सिहाय मोह-मादिक महा छकै।
पीत-पट-छोर लै लै ढोरत समीर धीर,
चुम्बन को चायनि लुभाय रही नै सके।
पर सरस विधि रूधिर चिबुक त्यों ही
कंपित करनि केलि-चाप दाँव ही तकै ।
लाजनि लसौं ही चितवन चाहि जान प्यारी,
सींचत आनन्दघन हाँसी सों भरी नकै।

डॉ० कृष्णचन्द्र वर्मा ने घनानन्द का एक संभोग वर्णन का चित्र प्रस्तुत कर कहा है “साक्षात् संभोग के वर्णनों में कवि ने एक छन्द में सुजान के माधुर्य पूर्ण और प्रसन्न मुख मण्डल चंचल और विशाल नेत्रों की लाज, भीनी चितवन तथा काम की तरंगों में बहकर रस के वश में होकर आलिंगन करने और ललक मिटा चुकने के बाद शिथिल पड़ जाने का सांकेतिक चित्रण किया है।

‘केलि की कला-निधान सुन्दर महा सुजान,
आन न समान छवि छाँपै छिपैये सौनि।
माधुरी मुदित मुख उदित सुसील भाल,
चंचल विसाल नेत्र लाज भीजिए चितौनि।
पिय-अंग-संग घनाआनन्द उमंग हिय,
सुरति तरंग-रस-विवस उर-भिलौनि ।
झुलनि अलक आधी खुलन पलक स्त्रम,
स्वेदहिं झलक भरि ललक सिथिल हौनि।

प्रेमिका अभी-अभी सोकर जगी है। वह अंगड़ाई ले रही है, नेत्रों में लज्जा का भाव झलक रहा है। रात्रि में नायिका को संभोग सुख मिला है। शरीर से अनंग की दीप्ति उठ रही है। बोल भी अस्फुट रूप में निकल रहे हैं।

रस आरस भोय उठी कछु सोय लसै पीक पगीं पलकैं ।
घन आनन्द ओप बढ़ी मुख औरें सुफैलि फबी सुधरी अलकैं।
अँगरति जम्हाति लजाति लखे, अंग-अंग अनंग दिर्पं झलकैं।
अधरानि में आधिये बात धरैं लड़कानि की आनि परै छलकैं।

घनानन्द का लौकिक संयोग भी आंतरिक संयम के साथ है। कवि बोधा की सी उच्छृंखलता-कामुकता उसमें नहीं है-

“यौं दुरि केलि करै जग मैं, नर धन्य वहै, धनि है वह नारी ॥ “

संयोग में वियोग संयोग की स्थिति में कवि सदैव चिंतित दिखलाई देता है। संयोग के थोड़े से सुखद क्षणों की स्मृति में वे निरन्तर बिसूरते हुए प्रतीत होते हैं। उनके जीवन में वियोगतत्व बराबर बना रहा। इस वियोग से उन्हें वियोग न मिल सका। संयोग के क्षणों में भी शंका रही कि कहीं वियोग न हो जाए-

“यह कैसो संयोग न जानि परै, जु वियोग न क्यों हू बिछोहत है।” सूर के संयोग में यह स्थिति नहीं थी। संयोग के क्षणों में उनके प्रेमियों में इस प्रकार का भय नहीं था। परन्तु घनानन्द की स्थिति भिन्न है। यहाँ तो संयोग में भी वियोग की खटक बनी रहती है। मिलने पर भी संयोग सुख नहीं मिल पाता। सतत् पृथकत्व की आशंका बनी रहती है। बिछुड़ने पर मिलने की उत्कण्ठा जागृत होती है और मिलने पर अलगाव का भय सताता रहता है।

अदशर्ने दर्शनमात्र थामा दृष्टा परिष्वंगरसैकलोला ।
आलिंगितायां पुनरायताक्ष्यां आशास्महे विग्रहयोरभेदम् ॥
“मोहन अनूप रूप सुन्दर सुजान जू को,
ताहि चाहि मन मोहि दशा महामोह की।
अनोखी हिलग दैया, बिछुरे तो मिल्यौ चाहे,
मिले हू में मारे जारे खरक बिछोह की ॥ “

कभी-कभी स्वप्न में भी संयोग के सुखद क्षण उपस्थित हो जाते हैं परन्तु सुखद अवस्था आने के पूर्व ही स्वप्न भंग हो जाता है। यदि स्वप्न न भी टूटे तो भी कुछ ऐसी स्थिति आ जाती है कि संयोग का सुख दूभर हो जाता है-

“कबहूँ जो दइ गति सौ सपनो सो लखौ तों मनोरथ-भीर भरै।
मिलहु न मिलाप मिलै तब कौ उर की गति क्यों करि व्योरि गरे।”

यहाँ पर एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि संयोग की अवस्था में वियोग का दुख क्यों होता हैं संभवतः इसका मूल कारण प्रेम की अधिकता है। जो वस्तु हमें जितनी अधिक प्रिय होती है हम उसके विलग होने से उतने ही आशंकित होते हैं। घनानन्द की प्रेम की अधिकता ही इस वियोग की शंका का कारण है कि कहीं सुजान से उसका विछोह न हो जाए और हुआ भी ऐसा ही अब तो केवल कवि को पूर्व स्मृतियों के सहारे ही जीवन व्यतीत करना था। वियोग में उन सुखद संयोग के संस्मरण ही अवलम्ब बनते थे-

रूप सुभाय लगी तब तौ ह लागत नाहिं सुभाय निभेखे।
जो रस रंग अभंग लसौ सुरहयो नहिं पेखिये लाखन लेखैं ।
हां घन आनन्द ए हो सुजान, तउ ये दहें दुखदाई परेखैं ।
आँखिन आपनी आँख न देख्यो, कियो अपनो सपनेऊ न देखैं।

कभी-कभी प्रिय का वियोग जब सीमातीत हो जाता है और उसे निरन्तर भोगना पड़ता है तब व्यक्ति विरह की स्थिति से इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसे संयोग भी वियोग सा लगने लगता है। विरही को यह विश्वास ही नहीं होता कि यह संयोग का अवसर है या कि प्रवंचना है।

देखें अन देखनि-प्रतीति पेखियत प्यारे,
दीठन परत जानि दीठि किधौं छल है।
दीपक सनेह की बिछोह मोहि जोहित,
आरसी दरस लौं परम ध्यान जल है’

इस प्रकार हम देखते हैं कि घनानन्द का संयोग सर्वत्र वियोग से युक्त है। घनान्द का वियोग भावात्मकता से बौद्धिक होता गया है।

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Anjali Yadav

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