छायावादी काव्य के आधार पर सुमित्रानन्दन पंत के काव्य की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
छायावाद की विशेषतायें और पंत- छायावाद के इतने लम्बे विचार के पश्चात् अब हमें पन्त की कविताओं का मूल्यांकन समीचीन प्रतीत होता है। जिन बिन्दुओं पर विचार करना है वे इस प्रकार हैं-
स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह- द्विवेदी युग नीरसता, शुष्कता का काल माना जाता है। साथ ही काव्य खण्डों की स्थूलता के रूप को लेकर छायावाद आगे बढ़ा है।
नारी छायावाद का एक आकर्षण केन्द्र रही है। रीतिकाल तक नारी का चित्रण पर्याप्त रूप से स्थूल रूप में रहा है। नारी छायावाद काल में आकर अपने परिवेश को बदलकर सामने आई है। वह अब पवित्रता की मात्र साधिका है।
स्थूल जगत चेतन सत्ता की छाया में- इसके अन्तर्गत ब्रह्म की स्थिति का अभाव है। स्थूल जगत को कवि सत्ता की छाया के रूप में माना है। उसे प्रतिबिम्बवाद की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं। सर्वात्मवाद से उसका अल्प अन्तर भी है। सर्वात्मवाद में जहाँ भावना तथा संवेदना का प्रश्न है। वहीं प्रतिबिम्बवाद में ज्ञान तथा दर्शन का समायोजन है। अनेक ऐसे स्थल हैं पर कवि पन्त ने स्थूल जगत को चेतन सत्ता की छाया मानकर कविता की पंक्तियों में अपने विचार को उद्धृत किया है।
अचल तारक पलकों में हास
लोल लहरों में ‘लास’।
विविध द्रव्यों में विधि प्रकार
एक ही मर्म मधुर झंकार
आत्माभिव्यंजन व्यक्तित्व का प्रकाशन- छायावादी कवियों में व्यक्तित्व कथन का महत्व है। व्यक्तित्व प्रकाश की परम्परा पूर्व सिद्ध थी, रीतिकालीन कवि कविता के अन्तिम अंशों में नामोल्लेख किया करता था जिसके पीछे वही व्यक्तित्व प्रकाशन वाली बात स्पष्ट रही है। यही छायावादी कवि अपनी कविता में अपना नाम तो नहीं लेकिन अपने व्यक्तित्व की छाप अवश्य छोड़ देता है।
वैयक्तिकता का प्रवेश यही नहीं रुका, भगवतीचरण वर्मा, बच्चन आदि पर भी इसका प्रभाव पड़ा। बच्चन की कविताओं में इसका अवलोकन करें-
मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता
प्रिय शेर बहुत है मत अभी रात जाओ।
वैयक्तिकता का यह रूप छायावादी कवियों में प्रकृत रूप से विद्यमान है। फिर कवित उससे अछूते होते यह कैसे सम्भव था। कवि का आंकाक्षाओं, आशा-निराशा, दुःख – दैन्य से शिक्षित भावनायें उनकी कविताओं से सर्वोपरि दृश्य है।
शृंगारात्मक व्यक्तित्व- भावी पत्नी के प्रति उनकी एक प्रमुख कविता है। उनकी इस प्रकार की रचनाओं से परिदृश्य है कि उनकी प्रेयसियाँ, तन्वंगी, अल्हड़ तथा मुग्धा कोटि की हैं। सरलता उनका सहज गुण है। संयोग के एक रूप में-
एक पल मेरे प्रिया के दृग पलक
थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे
चपलता ने इसे विकम्पित पुलक से
दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था
चिन्तापरक व्यक्तित्व- चिन्तनमूलक प्रवृत्ति पन्त की एक आवश्यक मनोदशा रही है। उनका समय जीवन ही जिज्ञासा चमत्कार से आंकठ निमग्न तथा अपूर्ण है। जिज्ञासा का यही स्वरूप उनकी कविताओं में परिदृश्य है।
अतीत का आकर्षण- सांस्कृतिक पुनर्जागरण छायावादी कवि में पुरातनता के प्रति मोह सर्वत्र दिखाई पड़ता है। वर्तमान से असन्तुष्ट कवि अतीत की गहरी घाटियों में उतर गया है।
अतीत काल के वैभव के प्रति राग, विराग, शोक, सुख दोनों ही बातों को वे सोचते रहे। अतीत के उसी काल के प्रति कवि पन्त की बड़ी भाव विह्वल पंक्तियाँ यहां पर दृष्टव्य हैं।
कहाँ आज वह पूर्ण पुरातन
वह सुवर्ण का काल
भूतियों का दिगन्त छवि जाल,
ज्योति चुम्बित जगती का भाल।
छायावादी कवि परम्परा के प्रति विद्रोह को लेकर उठे थे, लेकिन वह परम्परा ऐसी नहीं जो जीर्ण-शीर्ण रूढ़िग्रस्त थी। वे उन तत्वों का संहार करना चाहते थे जिनमें जीवन का अंश मात्र भी शेष था। विद्रोह का यह स्वर पन्त की भी कविता में सहज ही दृश्य है।
द्रुत झरो जब्त के जीर्ण पत्र,
हे त्रस्त ध्वस्त, शुष्क जीर्ण।
हिम ताप पीत, मधुवत भीत,
तुम वीत राग, जड़ पुराचीन ।
निष्प्राण विगत! मृत विहंग ॥
निश्चय ही अतीत के आकर्षण तथा सांस्कृतिक जागरण के भाव इस काल के कवियों में दिखाई पड़ते हैं।
पलायनवाद – छायावादी कवियों में पलायनवादी भावना का भी बीजारोपण प्राप्त है। कवि वर्तमान से पूर्ण असन्तुष्ट था यथार्थ की कठोरता से वह परम क्षुब्ध तथा व्याकुल है। वह कवि एक संवेदनशील प्राणी था, अतः उसमें पलायन स्वतः सहज उठ जाता है। लगभग सभी कवि यथार्थ से, कवि पन्त भी कल्पना को अधिक संजोते हैं। ‘बादल’ कविता में उनकी कल्पनाशीलता सचमुच ही दर्शनीय है जो यद्यपि यथार्थ से असन्तुष्ट कवि बलवान को स्वीकारता है। यहाँ पर सत्यं, शिवं, सुन्दरम् के कारण भी कुछ यथार्थ से हटकर आदर्श की ओर हटता दृष्टिगत है। पलायनवादी दृष्टि को अधिकारिता प्राप्त होने का एक प्रमुख कारण यह आदर्श की नियोजित स्थिति भी है।
वेदनावाद, करुणावाद, दुःखवाद- बताया गया है कि छायावादी कवि जगत की वास्तविकता में पूर्णरूपेण परिचित है। उसने उसे कहीं कहीं पलायनवादी बना दिया है। वह कवि जगत की वास्तविकता को सुनकर बड़ा ही कारुणिक तथा दुखी हुआ है। यही कारण है कि प्रत्येक छायावादी कवि करुणा, वेदना, दुःख ताप कष्ट की ही भावनाओं को संजोये आगे बढ़ता है। प्रसाद जी के ‘आँसू’ की चन्द पंक्तियों द्वारा पुष्ट किया जाना यहां अपरिहार्य होगा।
जो घनीभूत पीड़ा थी,
मस्तक में स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसू बनकर,
वह आज बरसने आई।
कवि पन्त भी दुःख से बचे नहीं। दुःख उनकी प्रेमिका थी। उसे वे चाहते थे, वह छूट गई। आँखों के सामने पराई हो गयी। ‘ग्रन्थि’ में उनके उसी असफल प्रेम का एक तीव्र विवरण है। कवि का यह भौतिक शरीर उसके दुख से सिहर उठता है और ‘आँसू’ भी इसी करुणा मिश्रित भावना से भरा है।
निष्कर्षतः पंतजी के काव्य में छायावादी काव्य चिन्तन का समग्र रूप दिखलाई देता है।
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