जयशंकर प्रसाद जी की काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
जयशंकर प्रसाद छायावाद युग के प्रमुख कवि माने जाते हैं। प्रसाद जी के समान सौन्दर्य के प्रेमी कवि बहुत ही विरले हैं और पार्थिव सौन्दर्य को स्वर्गीय महिमा से मंडित करके प्रकट करने की सामार्थ्य तो इतनी और किसी में है ही नहीं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन विश्व साहित्य को ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्य ग्रन्थ प्रदान करने वाले छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के लिए कहा गया है, प्रसाद जी निश्चय ही आधुनिक हिन्दी साहित्य के कलाकार हैं इस पारसमणि को पाते ही द्विवेदी युग का लौह काव्य छायावाद की कंचनी- कान्ति से दैदीप्यामान हो उठा। उनमें एक नयी आभा, एक नया सौन्दर्य, एक नई रसिकता, एक नई भंगिमा के साथ नवस्फूर्ति का संचरण हुआ। उनकी काव्यगत विशेषतायें निम्नवत् रुप में हैं-
(अ) भावपक्षीय विशेषताएँ-
1. प्रेम और सौन्दर्य- प्रसाद जी सौन्दर्य और प्रेम के कुशल चितेरे हैं। वे प्रेम की अभिव्यक्ति लौकिक पृष्ठभूमि से प्रारम्भ करते हैं। वह क्रमशः उठता हुआ अलौकिकता की सीमा तक पहुँच जाता है। आँसू उनका लौकिक प्रेम अलौकिकता का रूप धारण करके विश्वमंगल की कामना करने लगता है। उसकी समस्त विश्व वेदना से व्यथित दिखाई देने लगता है।
प्रसाद जी प्रियतम के सौन्दर्य चित्र उतारते समय थकते नहीं हैं। उनका सौन्दर्य-वर्णन करने के लिए वे एक-एक सुन्दर उपमान ढूंढ़ लाते हैं।
“काली आँखों में कितनी, यौवन के मद की लाली।
मनिक मदिरा ने भर दी, किसने नीलम की प्याली।”
प्रसाद जी के काव्य में सौन्दर्य के स्थल जगह-जगह विद्यमान हैं। कामायनी में ही एक स्थान पर श्रद्धा का रुप अद्वितीय है-
“और देखा वह सुन्दर दृश्य, नयन का इन्द्रजाल अभिराम।
कुसुम वैभव में लता समान, चन्द्रिका में लिया घनश्याम॥”
प्रसाद जी ने प्रेमानुभूति में विरहानुभूति का भी पर्याप्त मात्रा में चित्रण किया है। प्रसाद जी के सौन्दर्यानुभूति में सर्वत्र सजीवता ही व्यक्त हुई है। अपनी सौन्दर्य उपासना के कारण उन्हें प्रलय की भीषण बेला में भी तरल-तिमिर’ (तरल अंधकार) और ‘प्रलय-पवन’ (प्रलयकारी पवन) आलिंगन करते प्रतीत होते हैं।
2. वेदना और निराशा का स्वर- प्रसाद जी के काव्य में वेदना एवं निराशा का स्वर झलकता हुआ नजर आता है। आँसू उनके प्रेम की कहानी है। दुःख एवं पीड़ा से कवि स्वयं दुःखित हो गया है। प्रसाद जी की वेदना और असहनीय हो जाती है जब उसकी वेदना सम्पूर्ण संसार का चक्कर लगाकर पुनः उन्हीं के पास लौट आती है।
3. नारी की महत्ता- प्रसाद जी अपनी ‘कामायनी’ में नारी को साक्षात् श्रद्धा का रुप मानकर ही कहते हैं
“नारी ! केवल तुम श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्त्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ॥”
4. देश प्रेम की भावना- छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के काव्य में देश प्रेम का भाव सर्वत्र मिलता है। देश-प्रेम के गींतो में प्रसाद की छायावादी काव्य शैली से मधुरता और कोमलता का संचार होने लगता है-
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।”
5. आध्यात्मिक रहस्यवाद- प्रसाद जी के काव्य में हमें विभिन्न स्थानों में रहस्य भावना के दर्शन होते हैं।
(ब) कलापक्षीय विशेषताएँ- प्रसाद की कलापक्षीय विशेषताओं को हम निम्न शीर्षको के अन्तर्गत दर्शा सकते हैं-
1. लाक्षणिकता एवं प्रतीकात्मकता- अपने सूक्ष्म भावों और विशिष्ट क्रियाकलापों को प्रस्तुत करने के लिए प्रसाद जी ने लक्षणा और व्यंजना का अपने काव्य में आश्रय लिया है। इसके लिए प्रसाद जी ने प्रतीक्षात्मक शब्दावली का प्रयोग किया है यथा-
“शशिमुख पर घूँघट डाले,
अंचल में दीप छिपाए।
जीवन की गोधूलि में,
कौतूहल से तुम आए।’
2. बिम्बात्मकता– छायावादी कवि प्रसाद ने अपने काव्य में बिम्बविधान का पर्याप्त प्रयोग किया है। ‘कामायनी’ और ‘आँसू’ में अनेक बिम्ब देखने को मिल जाते हैं। ‘आँसू’ के एक बिम्ब में सौन्दर्य का दर्शन कराया गया है-
“प्रतिमा से सजीवता सी,
बस गई सुछवि आँखों में।
थी एक लकीर हृदय में,
जो अलग रही लाखों में ।’
3. छन्द विधान– प्रसाद जी की प्रारम्भिक रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं इस कारण इनमें कवित्त और सवैया छन्दों की प्रधानता है किन्तु बाद के छन्दों में विविधता है। प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य ‘कामायनी’ में ‘नाटक’ और ‘वीरछन्द’ को अपनाया है कहीं-कहीं गति भी हैं। ‘आँसू’ में ‘प्रसाद छन्द’ प्रयोग है जबकि अपने ‘प्रेम पथिक’ की रचना प्रसाद जी का अपना विचार इस प्रकार है-“प्रायः संक्षिप्त और प्रवाहमयी तथा चिरस्थायिनी जितनी पद्यमय रचना होती है। उतनी गद्य रचना नहीं। इसी स्थान में हम संगीत की भी रचना कर सकते हैं। सद्यः प्रभावोत्पादक जैसा संगीतमय पद्य होता है, वैसी गद्य रचना नहीं।”
4. अलंकार योजना- प्रसाद जी के काव्य में उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष आदि अलंकारों के प्रयोग मिलते हैं। इन सब का स्पष्टीकरण निम्न उदाहरणों से होता है-
उपमा-
” घन में सुन्दर-सी, बिजली में चपल-चमक-सी।
आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक सी।।”
रुपक-
“ बीती विभावरी जाग री,
अम्बर पनघट में डुबो रही,
उत्प्रेक्षा-
“नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग। “
खिला ही ज्यों बिजली का फूल, मेघ वन बीच गुलाब रंग।।
4. भाषा- भाषा पर प्रसाद जी का पूरा नियंत्रण रहा। उन्होंने खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया। उनकी भाषा शुद्ध संस्कृत निष्ठ, परिष्कृत व स्वाभाविक है। उनकी भाषा उनके व्यक्तित्व को प्रकाशित करती है।
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