‘दिनकर’ की परशुराम की प्रतीक्षा का सारांश लिखिए।
परशुराम की प्रतीक्षा- परशुराम की प्रतीक्षा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित खंडकाव्य की पुस्तक है। इस खंडकाव्य की रचना का काल 1962-63 के आसपास का है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर अत्यंत व्यथित हुये और इस खंडकाव्य की रचना की।
परशुराम की प्रतीक्षा दिनकर जी की सुप्रसिद्ध काव्यकृति है। कवि का स्वाभिमान सौभाग्य पौरुष से मिलकर नए भावी व्यक्ति की प्रतीक्षा में रत दिखाई देता है। सतत् जागरूकता परिस्थितियों के संदर्भ में समकालीनता एवं व्यवहारिक चिंतन एक कवि लिए आवश्यक है। प्रस्तुत रचना भारत-चीन युद्ध के पश्चात लिखी गई थी। कवि कहता है कि हमें अपने नैतिक मूल्यों की रक्षा करते हुए अपने राष्ट्रीय सम्मान की रक्षा के लिए सतत जागरूक रहना चाहिए। युद्धभूमि में शुत्रु का विनाश करने के लिए हिंसा अनुचित नहीं है। प्रस्तुत रचना की भूमिका में कवि ने स्वयं स्वीकार किया है दिनकर ने जिस समय लिखना शुरू किया उस समय हमारे देश में ब्रिटिश की गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर स्वाधीनता संग्राम का संघर्ष जोरों पर था। इससे संपूर्ण देश का मानस आदोलित हो चुका था। आंदोलन की वापसी गांधी इरविन समझौता, मेरठ षड्यंत्र और भगत सिंह एवं उनके साथियों की फांसी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना और शिक्षित लोगों के बीच समन्वयवादी विचारधारा खूब उमड़ रही थी। इसी समय किसान सभा की स्थापना और उसके समानांतर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना भी हो चुकी थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बोल्शेविक क्रांति की घटना के साथ-साथ समाजवादी सोवियत संघ नई आशावादी किरण लेकर आया था।
किसी आलोचक ने दिनकर जी और उनके युग के विषय में इस प्रकार लिखा है। माखनलाल और नवीन के काव्य का अनुशीलन करने से जो तथ्य उभरकर सामने आता है वह यह है कि उसकी मस्ती उनकी उत्सर्ग भावना की देन है। वह जो कि स्वाधीनता आंदोलन के उस दौर के कवि थे जो धीरे-धीरे काफी उग्र हो चुका था इसलिए पहले के राष्ट्रीय तत्ववादी कवियों की तुलना में एक बलिदानी का भाव है यही भाव दिनकर में आकर बहुत बढ़ जाता है।
सन् 1962 के चीनी आक्रमण के परिणाम स्वरूप भारत को मिली पराजय से क्षुब्ध होकर कवि के मन में जो तिलमिलाहट पैदा हुई उसका उद्बोधन आत्म अभिव्यंजना ही परशुराम की प्रतीक्षा है। प्रस्तुत काव्य में कवि सूरदारस एवं अग्नि धर्म को ही वरेण्य बताते हैं। जीवन की प्रत्येक परिस्थितियों में क्रांति का राग अलापने वाला कवि दिनकर इस रचना में परशुराम की प्रतीक्षा करता है। कविता सूर धर्म की यहां परशुराम धर्म में बदल गया है। एक समय था जब उसे अर्जुन एवं भीम जैसे वीरों की आवश्यकता थी। किंतु आज उसे लगता है कि देश पर जो संकटकाल मंडरा रहा है उसके घने बादलों में छिपे परशुराम का कुठार ही बाहर ला सकता है। इसलिए कवि ने प्रस्तुत कविता में परशुराम धर्म अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया है। कवि की सोच उसके विश्वास का साथ देती हुई यही निष्कर्ष निकालती है।
“वे पीयें शीत तुम आतम घाम पियो रें। वे जपें नाम तुम बनकर राम जी ओ रे॥”
20 अक्टूबर 1962 को भारत पर चीन ने आक्रमण कर दिया इससे पूर्व चीन भारत से मित्रता का स्वांग करता रहा। यह आक्रमण भारत के उत्तरी पश्चिमी सीमांत क्षेत्र लद्दाख पर किया और दूसरी तरफ उत्तरी पूर्वी सीमांत क्षेत्र नेफा पर तैयारी ना होने के कारण भारत हारा। चीन की इस धोखाधड़ी से भारत तिलमिला उठा। देश में जागृति की लहर दौड़ गई। जनसामान्य में आक्रोश और साहित्यकारों के मन मस्तिष्क में एक प्रतिक्रिया ने जन्म लिया। कितने ही कवियों की लेखनी से राष्ट्रीय कविताएं लिखी दिनकर जी द्वारा लिखित काव्य परशुराम की प्रतीक्षा अभी उपर्युक्त पराजय की प्रतिक्रिया का ही परिणाम था।
नेफा युद्ध के प्रसंग में भगवान परशुराम का नाम अत्यंत समीचीन है जब परशुराम पर मातृ हत्या का पाप चढ़ाते हुए उससे मुक्ति पाने के लिए सभी तीर्थों में घूमते फिरते परंतु कहीं भी परशु पर भी वजन नहीं खुली यानी उनके मन में ताप का भाव दूर नहीं हुआ। ब्रह्म कुंड में डुबकी लगाते ही परशु उनके हाथ से छूट गया अर्थात उनका मन पाप मुक्त हो गया।
नेफा क्षेत्र उसी ब्रह्म कुंड से निकलती धारा का स्थल है जहां ब्रह्मपुत्र बहती है वही परशुराम कुंड है जो हिंदुओं का तीर्थ स्थान है। ब्रह्मपुत्र का नाम लोहित भी है, कवि कहता है कि भारत ने अब अहिंसा के भाव को तिलांजलि देकर पुनः शस्त्र बल का आश्रय लिया है।
‘तांडवी तेज फिर से पुकार उठा है। लोहित में था जो गिरा कुठार उठा है।”
प्रस्तुत कविता पौराणिक पृष्ठभूमि में भी है। इसकी पौराणिक पृष्ठभूमि ही परशुराम धर्म की अनियमितता है। कवि द्वारा परशुराम धर्म की प्रतिष्ठा का उद्देश्य यही है कि चीन द्वारा आक्रांत एवं पद आक्रांत भी है यही इस कविता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।
कवि द्वारा परशुराम धर्म की प्रतिष्ठा का उद्देश्य यही है कि चीन द्वारा आक्रांत एवं पद आक्रांत नेफा क्षेत्र से परशुराम का ऐतिहासिक संबंध रहा है। प्रस्तुत रचना में कवि ने शस्त्र प्रयोग को अस्वीकार्य मानन तथा शारीरिक बल प्रयोग न करने की शिक्षा देने वाला तथाकथित महापुरुषों पर व्यंग्य किया है।
गीता मेंजो त्रिपिटक निकाय पढ़ते हैं, तलवार गला कर जो तकली गढ़ती है।
शीतल करते हैं जो अतल प्रबुद्ध प्रजा का, शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का ॥
परशुराम धर्म भारत की जनता का धर्म है। परशुराम भारत की जागरूक जनता के प्रतीक थे। कवि द्वारा परशुराम धर्म की व्याख्या किए जाने के दो कारण हैं। पहला कारण तो यह है। प्रशासक वर्ग ने जनता का प्रतिनिधि बनकर भी उसकी उपेक्षा की है फलतः जनता लगातार अभाव एवं शोषण की चक्की में पिसती हुई शाप भोग रही है। दूसरा कारण यह है कि आज सभी अपने अपने स्वार्थ भाव के पोषण में लगे हैं। वस्तुतः आज आवश्यकता है एक ऐसे धर्म की जो सर्वजन हितकारी और लोगों की उक्ति हो। परशुराम धर्म वह धर्म है जो पुरुष मयी चेतना का वाहक है अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वह धर्म अवश्य है पर उसमें प्रसंगिक औचित्य भी है। समय की है मांग है भी यह समय की आवाज को न सुनना अर्थात बहरा होने की गवाही तो है ही कायरता एवं नपुंसकता का स्वीकार्य भी है।
प्रस्तुत रचना में पूर्ण सत्ताधारियों को कोसा गया है जिनकी गलत नीतियों के कारण भारत को चीन के आक्रमण का शिकार होना पड़ा जिनके गलत आदेशों के परिणाम स्वरूप असंख्य सैनिकों को मृत्यु की घाटी में कूदना पड़ा।
घात है जो देवता सदृश्य दिखता है। लेकिन कमरे गलत में हुक्म लिखता है ॥
जिस पापी को गुण नहीं गोत्र प्यार है, समझो उसने ही हमें यहां मारा है।
कवि ने तिब्बत पर चीन आक्रमण का विरोध ना करने तथा चुप रहने के लिए तत्कालीन भारतीय सत्ताधारियों की कड़ी भर्त्सना की है।
उस कुटिल राज्यतंत्री कदर्य को धिक है, वह मूक सत्य हन्ता कम नहीं बधिक है।
कवि के परशुराम धर्म के वर्णन के लिए अनेक भागों तथ्यों एवं स्थितियों को स्वीकार करना आवश्यक है। इस धर्म के निर्वाहक के लिए आवश्यक तत्व है। स्वतंत्रता की कामना 2. वीर भाव 3 जागृति 4. निवृत्ति मूल्क मार्ग का परित्याग 5 वर्ग वैमनस्य का विरोध 6 भविष्य के प्रति सतर्क तथा आस्था मूल्क दृष्टि 7 परशुराम धर्म की महत्ता और औचित्य जीवन को 8 जीवन मानकर सिर ऊंचा कर जीवित करना।
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