निराला जी की ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ कविता का काव्य सौंदर्य पर प्रकाश अथवा डालिए।
निराला जी की सन्ध्या-सुन्दरी कविता छायावाद की श्रेष्ठ रचना है। यह कविता प्रकृति काव्य की भी श्रेष्ठ कविता है। छायावाद की प्रमुख विशेषता भी प्रकृति-चित्रण है। प्रकृति के सुन्दर चित्रण के साथ-साथ निराला ने ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ कविता में जीवन की रहस्यानुभूति की भी है। ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ कविता में कवि निराला ने प्रेम की अभिव्यंजना प्रकृति के माध्यम से की है। मनुष्य के लिए नारी सुन्दरतम् पदार्थ है अतः प्रकृति पर नारीत्व की भावना का आरोप करके कवि निराला ने नारी की कोमलता और मधुरता का भी परिचय दिया है। भाषा और भाव दोनों की दृष्टि से यह कविता अद्वितीय है। ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ कविता का वैशिष्टय निम्न बिन्दुओं से व्याख्यायित किया जा सकता है
(1) सौन्दर्य का व्यापक चित्रण- छायावाद मूलतः सौन्दर्योपादक काव्य किन्तु छायावाद में रीतिकालीन भोगवादी सौन्दर्य के लिए यहाँ तक कहा है- “छायावादियों ने अपने कंगन ही सोने के नहीं बनाए अपितु उनको रखने की मंजूषा भी सोने की रच डाली है।” यही सौन्दर्य निराला की ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ में सर्वत्र दृष्टिगत होता है। सन्ध्या को सुन्दरी के रूप में प्रस्तुत करते हुए कवि ने उसके अनुपम सौन्दर्य का चित्रण किया है। कवि ने ‘सन्ध्या’ को एक सुन्दर परी के रूप में चित्रित किया है, जो मेधाच्छादित आसमान से धीरे-धीरे उतर रही है-
“दिवसावसान का समय,
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह सन्ध्या-सुन्दरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे।”
यहाँ सौन्दर्य की प्रबल आकांक्षा परी-सी और धीरे-धीरे शब्द में व्यक्त होती है, उपमाओं के सहारे प्रकृति का मानवीकरण प्रस्तुत करते हुए कवि सौन्दर्य की अभिव्यक्ति “सन्ध्या सुन्दरी’ के रूप में करता है।
( 2 ) मानवीकरण- छायावादी कवियों की विशेषता प्रकृति का वीकरण है। निराला ने सन्ध्या को सुन्दरी मानकर उस पर मानवीय क्रियाओं का आरोप किया है। सन्ध्या सुन्दरी अपनी सखी नीरवता के कन्धे पर अपनी बाहें डाले हुए धीरे-धीरे आकाश मार्ग से चली आ रही है। इस चित्र को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है-
‘असलता की-सी लता
किन्तु कोमलता की वह कली
सखी नीरवता के कन्धे पर डाले बाहु
छाँह-सी अम्बर पथ से चली।
यहाँ पर कवि ने प्रकृति के माध्यम से नारी के कोमल भाव भंगिमा का जो चित्र उतारा है वह सामान्य मन मानस को भाव विभोर कर देने वाला है। शब्दों के सामंजस्य से भावों की अप्रतिम व्यंजना कोमलता की वह ‘कली’ और ‘छाँह-सी अम्बर पथ से चली’ में जो भाव साम्य है, वह अद्वितीय है।
( 3 ) रहस्यवाद झलक- छायावादी कवियों ने प्रकृति के कण-कण में किसी रहस्यमयी सत्ता के दर्शन किए हैं, ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ नामक कविता में स्वस्थ प्राकृतिक रूप के साथ-साथ रहस्यमयी शक्ति की अनुपम झलक मिलती है-
“सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा, चुप, चुप, चुप”
है गूँज रहा सब कहीं।”
यह ‘अव्यक्त शब्द-सा’ रहस्य है जो ब्रह्म की व्यापकता को दिखाता है कविता की अगली पंक्तियों में यह स्पष्ट है-
“व्योम मण्डल में जगती तल में-
सीती शांत सरोवर पर उस अमल-कमिलिनी-दल में-
धीर वीर गंभीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में
उत्ताल, तरंगाघात, प्रलय घन गर्जन जलधि-प्रबल में-
क्षिति में जल में नभ में, अनिल-अनल में,
सिर्फ एक अव्यक्त शब्द-सा, “चुप, चुप, चुप”
है गूँज रहा सब कहीं।”
( 4 ) शिल्प-विधान काव्य-शिल्प की दृष्टि से निराला की ‘संध्या-सुन्दरी’ कविता उत्कृष्ट कोटि की रचना है। इसमें कवि ने मौन-गंभीर वातावरण को अत्यन्त सूक्ष्म रेखाओं और संकेतों के माध्यम से साकार कर दिया है, कवि ने आगे ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ मादक कर देने वाली सुरा-पान कराने वाली नायिका के रूप में दिखाया है-
“मदिरा की वह नदी बहती जाती,
थके हुए जीवों को स्नेह
प्याला एक पिलाती,
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,”
‘सन्ध्या-सुन्दरी’ कविता शब्द-विधान की दृष्टि से अनुपम है। इसका एक-एक शब्द सटीक, वातानुकूल और भावाभिव्यजंक है। मुक्त छन्द में कवि ने अपने सम्पूर्ण काव्य कौशल को प्रस्तुत कर दिया है। उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक, मानवीकरण, रूपकातिशयोक्ति तथा ध्वन्यार्थ आदि अलंकार पूरी कलात्मकता के साथ इस कविता में समाहित हुए हैं।
डॉ. रामरतन भटनागर ने निराला की कविता ‘सन्ध्या-सुन्दरी’ के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं- “सन्ध्या-सुन्दरी” कविता में सन्ध्या का यह चित्रण कदाचित् समस्त भारतीय भाषाओं की रचना में बेजोड़ होगा। इतनी व्यापक चित्रपटी और इतनी सहज कला जहाँ छायावाद के युग में प्राप्त थी, वह इतने वर्ष बाद आज भी दुष्प्राप्य है।”
इस प्रकार निराला की कविता “सन्ध्या-सुन्दरी” छायावादी काव्य बिन्दुओं पर खरी उतरी हैं।
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