निर्मल वर्मा के साहित्यिक जीवन का वर्णन कीजिए।
निर्मल वर्मा- नई कहानी के सशक्त कथाकार निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल 1929 में हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में हुआ था। निर्मल वर्मा की माता धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत थीं और पिता रेलवे की नौकरी में थे। निर्मल जी का बचपन आठ भाई-बहनों के साथ पहाड़ों पर बीता। यही पहाड़, विशेषतः शिमला के परिवेश ने उनमें साहित्य के बीज अंकुरित करने में महत्पूर्ण भूमिका निभाई। पिता की सेवानिवृत्ति के पश्चात् सन् 1940 के मध्य में उनका परिवार दिल्ली आकर बस गया। भारत-पाक विभाजन की त्रासदी उन्होंने स्वयं देखी और पीड़ितों की सेवा की। उस समय आप सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली में अध्ययनरत रहते हुये स्टूडेन्ट फेडरेशन से जुड़े थे। उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा अंग्रेजी माध्यम से की और इतिहास स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। बाद में यही इतिहास के प्राध्यापक पद पर भी कार्य किया।
अपने लेखन हेतु निर्मल वर्मा ने हिन्दी भाषा को अपनाया क्योंकि उनका मन मस्तिष्क धर्म, उत्सव एवं हिन्दू संस्कारों से निर्मित हुआ था। उनके बड़े भाई कलाकार चित्रकार रामकुमार उनकी बड़ी बहन और दादा कृपा मुरारी वर्मा उनकी साहित्यिक अभिरुचि के पाथेय बने। उन्होंने बचपन में ही प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, गोर्की, अज्ञेय, टालस्टॉय, चेखव, रोमॉ रोला, रवीन्द्रनाथ टैगोर को पढ़कर अपने साहित्य सृजन की भूमि तैयार की प्रारम्भ में मार्क्स के प्रति झुकाव रहा किन्तु कालान्तर में अरविन्द, विवेकानन्द, महर्षि रमण, गाँधी, लोहिया और जयप्रकाश के विचारों के प्रति झुकते गये।
प्रारम्भ में निर्मल वर्मा ने प्राकृतिक सुषमा से आप्लावित होकर कविताएँ लिखीं किन्तु बाद में उनकी रुचि तथा सिद्धि कथा साहित्य में पल्लवित हुई। वर्मा जी की पहली कहानी सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली की पत्रिका में छपी। मुख्य धारा में उनकी कहानी भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित ‘कहानी’ पत्रिका में छपी। सन् 1954 में ‘रिश्ते’ शीर्षक कहानी ‘कल्पना’ पत्रिका में छपी। नई कहानी आन्दोलन में वह प्रमुख कहानीकार बनकर उभरे। हालांकि निर्मल वर्मा अपने को नई कहानी आन्दोलन से नहीं जोड़ते। निर्मल जी ने ‘कल्चरल फोरम, दिल्ली का गठन किया जिसमें देवेन्द्र की मुख्य भूमिका थी।
निर्मल जी ने सन् 1957 में राज्यसभा सचिवालय में अनुवादक के रूप में कार्य किया। बाद में 1959 में निर्मल जी चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य विद्या संस्थान और चेकोस्लोवेक लेखक संघ के आमंत्रण पर चेकोस्लोवाकिया चले गये। जहाँ उन्होंने अनेक चेक कथाकृतियों के अनुवाद किये। यहीं चेक भूमि पर आधारित ‘वे दिन’ उपन्यास सन् 1964 में सामने आया। हालांकि इससे पूर्व ‘परिन्दे’ कहानी संग्रह (1959 ई.) में प्रकाशित हो चुका था। उनके चार उपन्यास- वे दिन (1964 ई.), लालटीन की छत (1979 ई.) एक चिथड़ा सुख (1979 ई.) रात का रिपोर्टर (1989 ई.) तथा अन्तिम अरण्य (2000 ई.) प्रकाशित हुये। परिन्दे (1959 ई.), जलती झाड़ी (1965 ई0.) पिछली गर्मियों में (1968 ई.), बीच बहस में (1973 ई.) कव्वे और काला पानी (1983 ई.) सूखा तथा अन्य कहानियाँ (1995 ई.) कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। उनकी ‘माया दर्पण’ कहानी पर फिल्म भी बनी।
निर्मल जी ने उपन्यास एवं कहानी के अनेक विधाओं में लेखन किया। निबन्ध आलोचना के क्षेत्र में- शब्द और स्मृति (1976 ई.) कला का जोखिम (1984 ई.) भारत और यूरोप, प्रतिश्रुति के क्षेत्र (1991 ई.) आदि, अंत और आरंभ (2002ई.) दूसरे शब्दों में (1997 ई.) शताब्दी के ढलते वर्षों में (1995 ई.), सर्जना पथ के सहयात्री (2006 ई.). साहित्य का आत्मसत्य (2006 ई.), इतिहास, स्मृति और आकांक्षा (1997 ई.) प्रकाशित हुये। यात्रा वृत्तान्त के अंतर्गत चीड़ों पर चाँदनी (1978 ई.) तथा हर बारिश (1970 ई.) प्रकाशित हुये। इनके अतिरिक्त उनके डायरी, साक्षात्कार, नोट्स, पत्र और जर्नल्स के संग्रह भी सामने आये। आठ वर्ष पश्चात् चेकोस्लोवाकिया से लौटकर कुछ वर्ष लन्दन में रहे। वहाँ से लौटकर इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस (शिमला) में फेलो रहकर, मिथक चेतना पर कार्य किया। सन् 1977 में इन्टरनेशनल राईटिंग प्रोग्राम, आयोवा (अमेरिका) में हिस्सेदारी की। सन् 1988 में इंग्लैण्ड के प्रकाशक रीडर्स इण्टरनेशनल द्वारा निर्मल वर्मा की कहानियों का संग्रह ‘द. वर्ल्ड एल्स व्हेयर’ प्रकाशित हुआ।
निर्मल वर्मा को अनेक पुरस्कारों एवं सम्मानों से समय-समय पर विभूषित किया गया। ‘कव्वे और काला पानी’ कहानी संग्रह पर साहित्य अकादमी (1985) सम्मान, सम्पूर्ण कृतित्व पर सन् 1993 में ‘साधना-सम्मान’, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान का राममनोहर लोहिया अतिविशिष्ट सम्मान (1995), यूनिवर्सिटी ऑफ ओकला होमा, अमरीका की पत्रिका का न्यू स्मार्ट अवार्ड (1996 ) 1997 में भारतीय ज्ञानपीठ का ‘मूर्तिदेवी सम्मान’, 2002 में पद्मभूषण सम्मान आदि प्राप्त हुये।
इस प्रकार निर्मल वर्मा ने अपने साहित्य लेखन में जीवन की सच्चाई को अभिव्यक्त किया। देश-विदेश में साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्राएँ कीं। अंत में अक्टूबर 2005 में निर्मल वर्मा का निधन हो गया। इसी के साथ निर्मल वर्मा यात्रा साहित्य का अंत हो गया।
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