नैदानिक परीक्षाओं की उपयोगिताओं का वर्णन कीजिए। प्रतिभावान् व मन्द बुद्धि बालकों के लिए किस प्रकार का शिक्षण दिया जाना चाहिए।
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नैदानिक परीक्षाओं की उपयोगिताएँ
नैदानिक परीक्षाएँ उपचार का आधार तो बनती हैं, लेकिन उनके और भी कई लाभ हैं-
1. नैदानिक परीक्षणों को उपचारात्मक शिक्षण से सम्बद्ध करके हिन्दी शिक्षण का स्वर सुधार सकते हैं। वर्तनी के सुधार में तो ये परीक्षाएँ अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुई हैं।
2. वाचन भी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें छात्र कठिनाई का अनुभव करते हैं। वाचन का अन्तिम लक्ष्य होता है, अर्थ ग्रहण वाचन की कमी के कारण छात्रों को विषयवस्तु का ज्ञान नहीं होता। वाचन में पिछड़ेपन के कारण हैं- शारीरिक कमजोरी, दोषपूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ, घन की हीन अवस्था, बुद्धि की कमी, पाठ्यवस्तु में आसक्ति, मानसिक क्लेश, कक्षा में स्तर के लिए अपरिपक्वता, वाचनाभ्यास में कमी। परिणाम यह होता है कि वे जो कुछ पढ़ते हैं, उनकी समझ में नहीं आता। उसका भाव ग्रहण नहीं कर पाते। अध्यापक को यह जानने के लिए कि कौन-सा छात्र किस कारण वाचन में पिछड़ रहा है, नैदानिक परीक्षण करना होता है। नैदानिक शिक्षण में उनके कठिनाई के स्थलों का लेखा-जोखा रखना पड़ेगा, तभी वह स्थिति में सुधार ला सकता है।
3. बहुत से अध्यापक नहीं जान पाते कि कौन-कौन से बालक किस प्रकार की अशुद्धियाँ करते हैं, इसीलिए वे विषय को बार-बार पढ़ाते हैं, ऐसा करने से उनकी शक्ति और समय का दुरुपयोग होता है और काम भी नहीं बनता। यदि वे यह विश्लेषण कर लेते हैं कि उनके छात्रों के कठिनाई के स्थल क्या-क्या हैं, स्थलों का पुनः शिक्षण जरूरी है तो वे केवल उन्हीं स्थलों की जानकारी पुनः देते। नैदानिक परीक्षाएँ तथा नैदानिक चार्ट उनको बता सकते हैं कि वर्तनी, उच्चारण, अर्थ ग्रहण आदि स्थलों के किस अंग पर उन्हें अधिक जोर देना है।
4. छात्रों को भी नैदानिक परीक्षाओं से लाभ होता है। वे भी समझ लेते हैं कि वे किस स्थल पर कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं। इसलिए उस स्थल का अधिक ज्ञान पाने के लिए वे उत्सुक हो जाते हैं।
5. यदि नैदानिक परीक्षाएँ पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बन जायें, यदि वे पूर्ण विश्लेषणात्मक हों और बालकों की मानसिक प्रक्रिया को खोलकर रख दें तो परीक्षाफल सुधारने में भी उनसे सहायता मिल सकती है।
प्रतिभावान् छात्रों के लिए शिक्षण
प्रतिभावान् छात्र और – कोई भी दो बालक किसी भी गुण के समान नहीं होते। इस प्रकार की असमानता को वैयक्तिक विभिन्नता कहते हैं। वैयक्तिक विभिन्नताएँ दो प्रकार की होती हैं-
1. व्यक्तिगत, 2. अर्न्तव्यक्तिगत ।
दो व्यक्तियों का सर्वथा भिन्न होना व्यक्तिगत विभिन्नता का उदाहरण है। एक बालक यदि प्रतिभाशाली है, तो दूसरा जड़। एक शीघ्र ही अर्थ ग्रहण कर लेता है, दूसरा दिये गये गद्यांश को समझने के लिए उसे बार-बार पढ़ता है फिर भी समझ में नहीं आता अर्न्तव्यक्तिगत विभिन्नताओं से हमारा आशय है कि एक ही व्यक्ति में विभिन्नता का होना। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति पढ़ने में कमजोर है तो व्यावहारिक कार्यों में बड़ा निपुण देखा गया है।
व्यक्तिगत विभिन्नताएँ देखने के लिए एक प्रामाणिक भाषा परीक्षा कुछ बालकों की ली गई तो निम्न प्रकार की विभिन्नताएँ मिलीं-
अधिकतम प्राप्तांक | न्यूनतम प्राप्तांक | |
शब्द ज्ञान | 34 | 4 |
सुलेख | 73 | 14 |
वाचन | 68 | 20 |
निबन्ध रचना | 90 | 30 |
भिन्न-भिन्न भाषायी तत्वों के अधिगम में भी छात्रों में विभिन्नता देखी जाती है। यदि कक्षा 8 के छात्रों को हिन्दी में निष्पत्ति परीक्षा लें तो दो-एक छात्र अवश्य ऐसे मिलेंगे जिनका निष्पादन कक्षा 6 के सामान्य बालक के निष्पादन से भी कम हो। इस प्रकार की वैयक्तिक विभिन्नताएँ सभी जगह, सभी देश में, सभी भाषाओं के अध्ययन करने वाले छात्रों में मिलती हैं। वैयक्तिक विभिन्नता सार्वभौमिक गुण है।
प्रतिभावान् छात्रों की पहचान – सम्पूर्ण देश में 1% से अधिक किसी भी स्तर – पर प्रतिभावान् छात्र नहीं होते। यदि कक्षा 6 में 100 छात्र हैं तो एक छात्र ही प्रतिभावान् हो सकता है। इसलिए यह अध्यापक के लिए समस्याजनक नहीं होता। यह छात्र सामान्यतया धनी शिक्षित परिवार से आता है। पारिवारिक परिस्थितियाँ उसके मानसिक, शारीरिक, सामाजिक विकास में पूर्ण सहयोग देती हैं। ऐसा छात्र कद और भार में सामान्य छात्रों से अधिक स्तर का होता है। उसका स्वास्थ्य उत्तम होता है। कक्षा में प्रथम आता है, उसकी बुद्धिलब्धि 140 या उससे अधिक होती है। उसका कार्य उत्तम और प्रशंसनीय होता है। समाज में अपने साथियों का नेतृत्व करता है। उसका सांवेगिक विकास भी उत्तम होता है।
ऐसा छात्र अपने सहपाठियों के साथ समायोजन स्थापित नहीं कर पाता। कारण यह है कि वह उनसे सदैव आगे चलता है। जिस विषय bको अध्यापक पढ़ाता है, उस विषय की जानकारी उसे पहले से होती है और वह अध्यापक के लिए कभी-कभी समस्या बन जाता है।
कक्षा में उसे अब का अनुभव होता है, क्योंकि सामान्य शिक्षण में उसे रुचि नहीं होती। सामान्य बातें उसको चिन्तन के लिए प्रेरित नहीं करती। यदि वह कक्षा 8 में पढ़ रहा है तो उसमें इतनी शैक्षणिक योग्यता होती है कि कक्षा 10 की परीक्षा में भी अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सकता है, किन्तु माध्यमिक शिक्षा परिषद् उसको परीक्षा में बैठने नहीं देती। क्योंकि उसकी आयु कम होती है। इसलिए कभी-कभी ऐसे छात्र कक्षा 10 के स्तर तक तो उछलकर पहुंच जाते हैं, लेकिन बाह्य परीक्षा के नियमों के प्रतिकूल न जा सकने के कारण कक्षा 10 में ही सड़ते रहते हैं। इसलिए उनमें असन्तुलन कुसमायोग जैसे दोष पैदा हो जाते हैं।
प्रतिभावान् छात्र के लिए शैक्षणिक प्रोग्राम – यद्यपि शिक्षा सम्बन्धी कोई समस्या ऐसा छात्र पैदा करता है, उसका उच्चारण शुद्ध होता है। वर्तनी सम्बन्धी कोई अशुद्धि वह कदापि नहीं करता, जो कुछ पढ़ता है, पाठ्यपुस्तक में जो कुछ लिखा है गद्य में या पृष्ठ में उसे जुबानी याद होता है। स्मृति ही उसकी अच्छी नहीं होती, उसकी अवबोधन शक्ति भी अधिक होती है, ऐसे बालक को उसकी आयु वाले बालकों के साथ रखना उसकी टाँगें पीछे खींचकर जमीन पर पटक देने के समान है। फिर ऐसे बालक के लिए शिक्षक क्या करे कि उसका मानसिक, सांवेगिक विकास उचित ढंग से निरन्तर होता रहे।
शैक्षणिक प्रोग्राम में समृद्धि ही एक ऐसा उपाय है, जिसके अपनाने से समस्या का समाधान हो सकता है। ऐसे छात्र को पाठ्यक्रम में निर्धारित पाठ्यवस्तु से बाँधकर नहीं रखा जा सकता। प्रत्येक पाठ के पढ़ाने में कुछ ऐसी बातें उसके समक्ष प्रस्तुत की जा सकती हैं, जो उसकी मानसिक क्षमता के अनुकूल हों। यदि नालन्दा विश्वविद्यालय का पाठ पढ़ाया गया तो उसे प्राचीन अन्य विश्वविद्यालयों के विषय में निम्नलिखित जानकारियाँ इकट्ठी करने के लिए पुस्तकालय से पुस्तकें दी जायें-
- भौगोलिक स्थिति,
- स्थापना और विस्तार,
- अन्य विशेषताएँ।
यदि कक्षा में कश्मीर की झाँकी पाठ का अध्ययन किया गया है तो दक्षिण की झाँकी, केरल की झाँकी आदि विषयों पर विषयवस्तु संग्रह करने के लिए उसे प्रेरित किया जा सकता है, कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे बालक को सामान्य कार्य के अतिरिक्त और विशेष कार्य देना चाहिए, ऐसा करने से उसकी मानसिक शक्तियों का विकास हो सकेगा।
पाठ-सामग्री के अतिरिक्त अन्य सामग्री का संकलन
ऐसे छात्र के लिए केवल पाठ्य-सामग्री को ही पर्याप्त न समझा जाये, उसके सम्मुख उस सामग्री के अतिरिक्त ऊँची कक्षा की सामग्री उसी प्रकरण से सम्बन्धित प्रस्तुत की जाये। उसके लिए ऐसे प्रश्नों का निर्माण किया जाये जो उसको चिंतन करने की प्रेरणा दे सकें। यदि प्रत्यय सिखाई गई है तो विशेष प्रकार के प्रत्ययों का उसे ज्ञान दिया जाये, लेकिन कक्षा में नहीं। कक्षोपरान्त, पुस्तकालय और वाचनालय में उसके विशेष अध्ययन के लिए पुस्तकें सुझाई जायें। प्रतिभावान् छात्र के लिए विशेष और विस्तृत पाठ्यक्रम पहले से ही तैयार करके रखा जाये, जिसके अनुशीलन से उसकी मौलिक योग्यता, सामान्य मानसिक योग्यता, तर्क चिन्तन, रचनात्मक शक्ति और प्रयोगात्मक कार्यों के लिए क्षमता का विकास हो सकेगा।
ऐसे बालक की रुचियाँ विभिन्न प्रकार की होती हैं। उन रुचियों की पहचान करके पाठ्य सहगामी क्रियाओं, सह-शैक्षिक प्रवृत्तियों की आयोजना तैयार की जाये और चूँकि उसमें नेतृत्व का भाव होता है इसलिए सह-शैक्षिक क्रियाओं के क्रियान्वयन से उसका पूर्ण सहयोग किया जाये। साहित्य गोष्टियों, कवि दरबारों, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, दल चर्चा, पैनल चर्चाओं, वार्षिक समारोहों, सहगानों में उसको नेतृत्व देकर उसकी रुचियों का विकास किया जाये।
यदि उसका पाठ्यक्रम विस्तृत कर दिया जाये और सह-शैक्षिक क्रियाओं में उसको भाग लेने की निरंतर प्रेरणा दी जाये तो इसमें कोई संदेह नहीं कि अध्यापक उत्तम को उत्तमतर बना सकता है।
मन्द बुद्धि बालक और उनका शिक्षण
जिस प्रकार कक्षा में प्रतिभावान् छात्र एक-दो होते हैं, उसी प्रकार मन्दबुद्धि अथवा पिछड़े हुए बालक भी दो-चार ही होते हैं। फिर भी ये बालक अध्यापक के लिए सिर दर्द पैदा कर देते हैं। अन्वेषणों से पता चला है कि 10% ऐसे बालक होते हैं जो बुद्धि में सामान्य बालकों से हीन होते हैं, इसलिए उनको बुद्धिहीन कहते हैं। इस वर्ग के बच्चे सामान्यतया कक्षा कार्य में पिछड़े रहते हैं। उनका उच्चारण ठीक नहीं होता, उनका लिखित कार्य वर्तनी की भूलों के कारण रंग जाता है, उनका वाचन कमजोर होता है, अर्थ ग्रहण करने की उनमें शक्ति नहीं होती।
किसी भी पाठ में उन्हें रुचि नहीं होती न गद्य पाठ में और न कविता पाठ में ही। परीक्षा से वे जी चुराते हैं। प्रश्न पूछे जाने पर हकलाने लगते हैं, प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाते। केवल गूंगे से मौन खड़े रहते हैं। उनको कठिनाई होती है भाषा में या गणित में, लेकिन ड्राइंग में सामान्य से ऊपर भी होते हैं। संगीत, दस्तकारी में रुचि रखते हैं, उनकी बुद्धिलब्धि 80 से ऊपर नहीं होती। कक्षा की मासिक, अर्द्धवार्षिक व वार्षिक परीक्षाओं में उनके अंक सदैव बहुत कम आते हैं। वे कभी-कभी इतने मन्द बुद्धि होते हैं कि उन्हें अपना पिछड़ापन महसूस नहीं होता। वे फेल होते हैं, कभी-कभी तो फेल होने की भी उनको चिन्ता नहीं होती।
लेकिन कुछ हालतों में असफलता उनको काटती है, बुरी लगती है। कक्षा में अध्यापक की लताड़ सुनकर उनके माथे पर शिकन छा जाती है, ऐसा मालूम हुआ होता है कि वे क्षुब्ध हो रहे हैं। प्रत्येक वस्तु उनको अप्रिय लगती है और कभी-कभी कुसमायोजन इस सीमा तक पहुँच जाता है कि वे कक्षा में सभी से लड़-झगड़ बैठते हैं। उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। ऐसे बालकों का मानसिक विकास तो अवरुद्ध होता ही है, उनका सांवेगिक विकास भी अच्छा नहीं होता। ऐसे बालकों की समस्याएँ होती हैं-
- विद्यालय की परीक्षाओं में न्यूनतम अंक भी न पा सकना,
- अपचरिता कक्षा से भाग जाना, स्कूल न आना, अध्यापकों की आज्ञा की अवहेलना करना आदि।
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