“पंत सुकुमार कल्पनाओं के कवि हैं” उदाहरण सहित बताइये।
काव्यवस्तु का सम्पूर्ण मूर्त-विधान कल्पना से ही सम्पन्न होता है। इसकी महत्ता को ब्लेक (Black) ने इस प्रकार स्वीकार किया है-
“केवल एक शक्ति कवि का निर्माण करती है वह है कल्पना दिव्य दृष्टि ।” स्वच्छन्द काव्य का तो कल्पना प्राण ही है। उसका सीधा सम्बन्ध हृदयगत अनुभूतियों से होने के कारण काव्य में उसकी उपादेयता निर्विवाद है। कल्पना वह मानसिक क्रिया है जो नवीन रूपों की सृष्टि बिम्ब निर्माण या मूर्ति निर्माण करती है।”
पंत और कल्पना- पंत की सभी रचनाओं में कल्पना की अधिकता मिलती है, जिससे बौद्धिकता की प्रधानता उभर आयी है। बच्चन जी के अनुसार- “पंत जी कल्पना के गायक हैं, अनुभूति के नहीं- इच्छा के गायक हैं- वासना, तीव्रतम इच्छा के नहीं, वैसे तो उनके काव्य में कई प्रकार की कल्पना के दर्शन होते हैं- कहीं क्लिष्ट, कहीं दुरारूढ़, कहीं मधुर एवं रंगीन पर अधिकांश स्थलों पर उसमें कोमलता एवं सुकुमार की ही प्रधानता है।
प्रकृति-चित्रण में कोमलता- प्रकृति के नाना रूपों को जिस भाव बोध के साथ उन्होंने उभारा है, उसमें उनकी कल्पना के कई रूप उभरकर सामने आये हैं-
कवि प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण करके, जब आत्मविभोर होकर तल्लीनता में हृदय की मुक्तावस्था को प्राप्त होकर कल्पना द्वारा उस सौंदर्य की अभिव्यक्ति नाना रूपों में इस प्रकार करता है कि पाठक को प्रत्यक्ष दर्शन का सा आनन्द मिलता है, तब वहाँ यही सौन्दर्यानुभूति सौंदर्य चेतना सक्रिय दिखाई देती है-
आज सोने का संध्याकाल
जल रहा लाक्षागृह सा विकराल
पटक रवि को बलि सा पाताल
एक ही वामन पग में
लपकता है तमिका तत्काल
प्रेम और सौन्दर्य सम्बन्धी कल्पना- ‘ग्रन्थि’ जो कवि के ही शब्दों में एकदम काल्पनिक है, एक विरह-प्रधान काव्य है। इसी प्रकार की ‘उच्छ्वास’ भी है। ऐसे चित्रों में कल्पना भावना की सहेली बनकर ही उभरी है।
प्रेम के सम्बन्ध में कवि ने अनेक कल्पनाएँ की हैं। कहीं प्रेम झूमते गज सा बिचर रहा है’ वह हृदय रखता है मस्तिष्क नहीं ‘कहीं उनका प्रेम वारि पीकर पूछता है वर सदा, प्रणय के बाद प्रिया की प्रत्येक चेष्टा उन्हें आल्हादित करती है। रूप चित्रण की कल्पना-
तुम्हारे छूने में था प्राण, संग में पावन गंगा स्नान।
तुम्हारी वाणी में कल्याणि त्रिवेणी की लहरों का गान।
भाव निरूपण में कोमलता- पंत जी में अनुभूति से अधिक कल्पना है। कल्पना के सहारे ग्रन्थि में विरह-वेदना का जो भावोन्मादपूर्ण चित्र अंकित किया है वह अत्यन्त सजीव एवं अनूठा है। इसी कारण कवि हताश होकर तीव्र वेदना में चीखता हुआ कहता है-
शैवालिनी! जाओ मिलो तुम सिन्धु से
अनिल! आलिंगन करो भू गगन का।
*****
पर हृदय! सब भाँति तू कंगाल है।
वस्तु – वर्णन में कोमलता- पंत जी की कोमल-कल्पना वस्तु-वर्णन में भी अत्यन्त सजीव हो उठी है। उन्होंने जिस वस्तु का भी वर्णन किया है उसकी अमिट छाप उभर आती है। ‘पल्लव’ कविता में पल्लवों के रंगीन चित्र अंकित करते हुए कवि की कोमल कल्पना प्रखर हो उठी है और कवि ने अपनी कल्पना की तूलिका से पल्लवों के रंगीन चित्र उभारे हैं-
दिवस का इनमें रजत प्रसार उषा का स्वर्ण सुहास
निशा का तुहिन अश्रु-शृंगार साँझ का निःखल राग।
नवोढ़ा की लज्जा सुकुमार, तरुणमय सुन्दरता की आग
जीवन की विभिन्न दशाओं के चित्रण में कोमलता- ‘युगान्त’ में कवि ‘सुन्दर से शिव की ओर मुड़ता दिखायी देता है। अतः उसकी कल्पना ऐसे जीवन सत्य की ओर बढ़ती है जो समाज को मानवता के सूत्र में बाँध सके। नवीन परिणीता के सद्य वैधव्य के इस स्केच में अपनी कोमल कल्पना के द्वारा कवि ने वेदना, करुणा एवं पीड़ा का चित्र अंकित किया है-
अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हलदी के हाथ,
खुले भी न थे लाज के बोल, खिले भी चुम्बन शून्य कपोल।
हाय! रुक गया यहीं संसार, बना सिंदूर अंगार,
बातहत लतिका वह सुकुमार, पड़ी है छिन्नाधार ।
आध्यात्म कल्पना- ‘स्वर्ण किरण’ से ‘लोकायतन’ की रचनाओं में इसी गूढ़ रहस्यात्मक, किन्तु आकर्षक अध्यात्म चेतना की सहयोगिनी कलपना के दर्शन होते हैं-
स्वर्ग और वसुधा का करने स्वर्णिम परिणय,
इन्द्रचाप का सेतुश्च रहे तुम ज्योर्तिमय ।
भविष्यत कल्पना- डॉ. (श्रीमती) ब्रजरानी भार्गव की मान्यता है कि ‘लोकायतन’ भविष्योन्मुखी काव्य है। जीवन-साधना के अनुभूत सत्य के आधार पर वर्तमान से ऊपर उठकर मंगलप्रद सुखमय भविष्य का अंकन करना ही यहाँ महाकाव्यकार का प्रमुख उद्देश्य है। अतः नव सृजन की प्रेरणा भी कवि की कल्पना शक्ति का ही आधार है-
देख रहा मैं मनश्चक्षु के सम्मुख,
के जन भविष्य का स्वप्न तुम्हारा उज्ज्वल ।
चूम रहा नत स्वप्न मुग्ध भू पद तल,
विहंस रहा जड़िमा बन चेतन मङ्गल॥
नश्वरता में कोमलता- नश्वरता के भाव में भी पंत जी ने कोमलता का ही आश्रय लिया है। उनकी कल्पनाएँ आकर्षक और मधुर हैं-
मोतियों जड़ी ओस की डार,
हिला जाता चुपचाप बयार।
भाषा में कोमलता- पन्त जी भावानुकूली शब्द चयन में बड़े दक्ष हैं।
घूम धुँआरे काजरे-कारे, हम ही बिकरारे बादर,
मदनराज रे बीर बहादुर, पावस के उड़ते फणिधर ।
अलंकार योजना में कोमलता- इस कल्पना का प्रयोग उन्होंने सादृश्य विधान में किया है। उनके उपमा, रूपक अत्यन्त सरस और प्रभावी हैं जिनमें सुकुमार कल्पना के सहारे ही नवीनता लाने का प्रयास पंत जी ने किया है-
मेरा पावस ऋतु-सा जीवन
मानस-सा उमड़ा अपार मन।
छन्द योजना- लय, सौन्दर्य कोमलकान्त पदावली से छन्दों में एक प्रकार की चिकनाहट सी आ गयी है
आज बचपन का कोमल गात जरा का पीला पात।
चार दिन सुखद चाँदनी रति और फिर अन्धकार अजात ॥
उपसंहार- उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पंत सुकुमार कल्पना के सिद्धहस्त कवि थे। बाजपेयी के अनुसार, “कल्पना ही पंतजी की कविता की विशेषता, रमणीयता का विस्तार करती है।
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