पन्त की सौन्दर्य – भावना का वर्णन कीजिए।
सत्यं, शिवं और सुन्दरम् काव्य के तीन गुण माने जाते हैं। पन्त की रचनाओं में यत्र तत्र सत्य और शिव के दर्शन होते हैं लेकिन मूलतः वे सुन्दरम् के कवि हैं। पन्त पर कतिपय आलोचकों द्वारा यह आक्षेप लगाया जाता है कि उनकी कल्पना कोमल, सौन्दर्य निहार कर चौंक उठती है और यथार्थ सत्य के सामने लजा जाती है।
पंत ने सुन्दरम् के मार्ग से उन दोनों मंजिलों पर पहुँचने का प्रयास किया है। प्रारम्भ से ही पंत सौन्दर्य के गायक रहे- सौन्दर्य भी कैसा ? कमनीय मसृण और कोमल झंझा-झकोरे, गर्जन, बिजली, नीदरमाला, भूकम्प जैसे कठोर और भयावह वस्तुओं की अपेक्षा किरण, चाँदनी, प्रभात, सन्ध्या, छाया, ज्योत्सना, अप्सरा, मधुपकुमारी में ही रमा निम्न पंक्तियों में कवि की कोमल कल्पना का संकेत मिल जाता है-
नव-नव सुमनों से चुन-चुन कर
धूलि, सुरभि, मधुरस, हिम कण,
मेरे उर की मृहकालिका में-
भर दे कर दे विकसित मन ।
कवि जीवन के आरम्भ में पंत की कल्पना प्राकृतिक सौन्दर्य में रमी हुई थी। प्राची से कोमल किरण फूट रही है, जगती तन्द्रिल है लेकिन पखेरू कूक उठा। कवि के मन में जिज्ञासा जागी और वह पूछ उठा-
प्रथम रश्मि का आना रंगिणि
तूने कैसे पहचाना?
कहाँ, कहाँ से बाल विहंगिनी!
पाया तूने यह गाना ?
पंत की प्रगतिवादी रचनाओं में भी कोमलता कोसों दूर से दृष्टिगत होती है। स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि और उत्तरा आदि काव्य संग्रहों में यद्यपि ऊर्ध्वगामिनी कविताओं का संकलन है तथापि कवि की दृष्टि कोमलता पर ही अटकी। ‘उत्तरा’ की स्वर्ग ‘विभा’ कविता में तो कमनीयता का जैसे बाजार लग गया हो-
लिपटी फूलों से रंग ज्वलि,
गूंजते मधुप गाती कोयम,
हरिताभ हर्ष से भरी धरा,
लहरों के रश्मि ज्वलित अंजल।
‘वसन्त’ के चित्रण में पक्षियों के कलरव को चिल्लाहट नहीं कहा केवल गूंजन कूजन। ‘वनश्री’ कविता में पंत का ध्यान तरुदल की मर्मर, निर्झर की कल-कल, कोयल की कुह-कुह मधुकर के गुंजन की ओर ही आकर्षित हुआ है, किसी कठोर स्वर या ध्वनि ने उन्हें आकर्षित नहीं किया-
मर्मर करते तरुदल मर्मर
कलकल झरते निर्मल निर्झर
कुह-कुह उठती कोयल की ध्वनि
गूँजन रह कह कर भरते मधुकर
– वनश्री
पंत की कोमल कल्पना कायिक सौन्दर्य में वहीं टिकती है जहाँ कोमलता विद्यमान है-
सरलपन ही था उसका मन
निरालापन था आभूषण
-‘उच्छ्वास’
पंत की सुकुमारता, कोमलता, प्राकृतिक, मानसिक और कायिक सौन्दर्य के वर्णन तक ही सीमित नहीं रही बल्कि भाषा को भी कोमल और कमनीय बनाने के लिए उपयुक्त शब्द चयन के प्रति भी सतर्क, सजग, और दृढ़ प्रतिज्ञ है। प्रतीत होता है कि उनकी भाषा कोमलता की चुनरी पहनकर आती है। कोमलता के बाहुल्य को देखकर ही कदाचित निराला ने टिप्पणी की थी कि उनकी कविता में स्त्रीत्व के चिह्न (Female Graces) पाये जाते हैं। भाषा की कोमलता के सम्बन्ध में पंत के निजी विचार भी अवलोकनीय हैं जो उन्होंने ‘पल्लव’ की भूमिका में लिखा है-
कवि की बाद की रचनाओं की अनुभूति की कमी कल्पना द्वारा पूरी हुई है, जो वस्तुतः बहुत ही खलती है। उदाहरणार्थ ‘उत्तरा’ काव्य संग्रह का गीत ‘युगछाया’ को देखा जाय तो पूरी रचना का आलम्बन आकार-विहीन, अनुभूति शून्य और कल्पनाजन्य है-
ज्ञात मर्त्य की मुझे विवशता
जन्म ले रही भव मानवता
स्वप्न द्वार फिर खोल उषा ने
स्वर्ण विभाव रसाई।
छायावाद तो प्रकृति का सहारा लेता है लेकिन रहस्यवाद का महल तो नितान्त और सर्वथा कल्पना के आधार पर खड़ा किया जाता है। कुछ भी प्रकट किया जाएगा वह गोचर व्यक्ति के प्रति ही होगा। प्रतिबिम्बवाद, कल्पनावाद आदि वादों का सहारा लेकर इन गाँवों को अव्यक्त के प्रति कहना और काल्पनिक रूप विधान को ब्रह्म या परमार्थिक सत्ता की अनुभूति बनाना काव्य क्षेत्र में एक आवश्यक आडम्बर खड़ा करना है। इस दृष्टि से पन्त ने जहाँ-जहाँ अव्यक्त अगोचर के लिए दुहाई दी है। वहाँ-वहाँ कल्पना की ही कसरत दिखाई पड़ती है। अनुभूति की यथार्थता नहीं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पंत की रचनायें मात्र कल्पनाशील ही नहीं है। ‘अन्थि’ में कई कवितायें ऐसी हैं जिनमें अनुभूति की मात्रा अधिक है, कल्पना की कम
शीश रख मेरा सुकोमल जाँघ पर
शशि कला सी एक वाला व्यक्त हो
देखती थी म्लान-मुख मेरा ।
यदि उपर्युक्त पंक्तियाँ कल्पना का चमत्कार हैं तब तो निस्सन्देह कवि को साधुवाद ऐसी श्लाघ्य एवं यथार्थ से भी अधिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए। ‘पल्लव’ की कई रचनायें रहस्यवाद की ओर इंगित करती हैं। कवि को लगता है कि प्रकृति के प्रत्येक व्यापार में उसके लिए आमन्त्रण है, लेकिन यह आमन्त्रण है किसका? कवि मौन है-
स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान
* * * * * *
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमन्त्रण देता मुझको मौन?
इस रहस्यात्मकता में भी एक कोमलता है, कल्पनाशीलता है। ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की अधिकांश रचनाओं में कल्पना की उड़ान यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है अन्यथा अनुभूतिमय ही है।
सुन्दरम् और शिवम् कवि को सत्यम् का भी दर्शन कराता है। कवि केवल कल्पनागत सुन्दरम् के क्रोड़ में ही नहीं खेलता। इस ‘बादल’ कविता में बादल के रंगों का वर्णन करते हुए। सजीव सत्य को आकार कर देता है-
धूम धुआँरे काजर कारे, हम ही हैं विकरारे बादल,
मदन राज के वीर बहादुर, पावस के उड़ते फणिधर ।
इस प्रकार यह कहना कि पंत के काव्य में जहाँ पर कल्पना की तरलता है वहाँ अनूभूति का अभाव या गौण सत्य नहीं है। उसकी बाद की रचनाओं में विशेषकर राजनीतिक मानवतावादी एवं प्रगतिवादी रचनाओं में अनुभव का आधार मिलता है।
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