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पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा एवं आधुनिक अवधारणा

पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा एवं आधुनिक अवधारणा
पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा एवं आधुनिक अवधारणा

पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा एवं आधुनिक अवधारणा की चर्चा कीजिए।

पाठ्यचर्या शिक्षण प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है। पाठ्यचर्या को विद्यालय की शिक्षा व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु कहा जाता है। विद्यालय में उपलब्ध सभी संसाधन जैसे विद्यालय भवन, उपकरण, पुस्तकालय की पुस्तकें तथा अन्य शिक्षण सामग्री का एकमात्र उद्देश्य है- पाठ्यचर्या के प्रभावी क्रियान्वयन में सहयोग देना। कक्षा की समस्त क्रियाएँ पाठ्य सहगामी कार्यकलाप तथा मूल्यांकन की समस्त प्रक्रिया विद्यालय पाठ्यचर्या के परिणामस्वरूप ही नियोजित किए जाते है।

पाठ्यचर्या शब्द का प्रयोग भिन्न-भिन्न रूपों में किया जाता है। सामान्य रूप से इसका आशय है:-

  1. विद्यालय में अध्ययन के लिए निर्दिष्ट पाठ्यक्रम तथा अन्य संबंधित सामग्री;
  2. विद्यार्थियों को पढ़ाई जाने वाली विषय सामग्री;
  3. किसी विद्यालय में निर्दिष्ट विषय का पाठ्यक्रम;
  4. विद्यालय में विद्यार्थियों को दिए जाने वाले नियोजित अधिगम अनुभवों का सम्मिलित रूप

पाठ्यचर्या की अवधारणा के सम्बन्ध में दो विचारधाराएँ प्रचलित है। ये विचारधाराएँ हैं- प्राचीन या संकुचित अवधारणा तथा आधुनिक अवधारणा।

पाठ्यचर्या की प्राचीन अवधारणा – प्राचीन समय में शिक्षा का उद्देश्य बहुत ही सीमित था। इसलिए छात्रों को संस्कृत, इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र आदि जैसे विषयों का केवल मौखिक ज्ञान करा देना ही पाठ्यचर्या में शामिल था। इस प्रकार पुरानी धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या केवल पाठ्य-वस्तु का सैद्धान्तिक ज्ञान करा देने तक ही सीमित था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन धारणा के अनुसार पाठ्यचर्या को बहुत ही संकुचित अर्थ में लिया जाता था अर्थात् कुछ तथ्यों का ज्ञान कराना था यह ज्ञान विभिन्न विषयों द्वारा प्रदान किया जाता था।

पाठ्यचर्या की संकुचित अवधारणा को स्वीकार करते हुए कनिघम महोदय ने कहा है “पाठ्यचर्या कलाकार (अध्यापक) के हाथों में वह यंत्र (साधन) है जिसमें वह अपनी वस्तु (छात्र) को अपनी कला-कक्ष (विद्यालय) में अपने आदर्शों (उद्देश्यों) के अनुसार बनाता है।

पाठ्यचर्या की आधुनिक अवधारणा- आज हम एक ऐसे समाज में रह हैं एक ओर निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं तो दूसरी ओर ज्ञान का विस्फोट हो रहा है। जिसमें इसलिए आज पुराना ज्ञान गलत सिद्ध होता जा रहा है और साथ ही यह भी समस्या है कि क्या ज्ञान दिया जाए, कितना ज्ञान दिया जाए और ज्ञान कैसे दिया जाए। इसका अर्थ है कि आज दिए जाने वाले ज्ञान की समस्या है और साथ ही यह भी समस्या है कि अधिगम, किस प्रकार हो। यह जानते हुए कि आज के बालक को इस परिवर्तनशील समाज की आवश्यकताओं से जूझना है, हमें उस ज्ञान अथवा कौशलों का पुनर्वालोकन करना आवश्यक है जो हम बालकों को देना अथवा सिखाना चाहते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हमें शैक्षिक उद्देश्यों की व्यापकता को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या निर्माण पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। इसलिए नई पाठ्यचर्या में बालकों की आवश्यकताओं, रूचियों, प्रवृत्तियों, क्षमताओं एवं व्यावहारिक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। साथ ही श्रम के महत्त्व, व्यवसाय प्रधान विषय एवं गतिविधयों पर बल दिया जाता है। इस प्रकार आधुनिक पाठ्यचर्या की धारणा के अनुसार बालकों के सर्वांगीण विकास के विभिन्न विषयों तथा अनुभवों का समावेश किया जाता है।

आधुनिक पाठ्यचर्या की धारणा को स्पष्ट करते हुए हार्न ने कहा है, “पाठ्यचर्या वह है जिसे बालक को पढ़ाया जाता है। यह सीखने और शान्तिपूर्वक पढ़ने से कुछ अधिक है। इसमें समस्त उद्योग, व्यवसाय, ज्ञानोपार्जन, अभ्यास तथा क्रियाएँ होती है। इस प्रकार यह बालकों क स्नायुमण्डल के संगठन में होने वाली गति एवं संवेगात्मक तत्वों को व्यक्त करता है।

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Anjali Yadav

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