शैक्षिक रूप से पिछड़े बालकों के लिए किस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए और क्यों ?
पिछड़े बालक की शिक्षा (Education of Backward Child)
स्टोन्स के अनुसार- “आजकल पिछड़ेपन के क्षेत्र में किया जाने वाला अधिकांश अनुसंधान यह सिद्ध करता है कि उचित ध्यान दिये जाने पर पिछड़े बालक, शिक्षा में प्रगति कर सकते हैं।”
“Most research in the field of backwardness now-a-days, indicates that given the appropriate attention backward children can make progress.” – Stones
पिछड़े बालकों की शिक्षा के प्रति उचित ध्यान देने का अभिप्राय है उनकी शिक्षा का उपयुक्त संगठन। हम इस संगठन के आधारभूत तत्वों को प्रस्तुत कर रहे हैं; यथा-
1. विशिष्ट कक्षाओं की स्थापना (Establishment of Special Classes) – यदि किसी कारण से पिछड़े बालकों के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना सम्भव नहीं है, तो उनके लिए प्रत्येक विद्यालय में विशिष्ट कक्षायें स्थापित की जानी चाहिएँ। इन कक्षाओं के सम्बन्ध में स्टोन्स (Stones) के तीन सुझाव हैं-(i) इन कक्षाओं में 20 से अधिक छात्र नहीं होने चाहिए; (ii) ये कक्षायें भिन्न-भिन्न विषयों की होनी चाहिएँ और इनमें उन विषयों में पिछड़े हुए विद्यालय के सब छात्रों को शिक्षा दी जानी चाहिए: (iii) जिन विद्यालयों में इस प्रकार की कक्षाओं के लिए पर्याप्त स्थान नहीं हैं, उनमें एक या दो कक्षाओं को चलाने की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। इस कक्षा या इन दो कक्षाओं में विद्यालय के सब पिछड़े हुए छात्रों को व्यक्तिगत रूप से शिक्षा दी जानी चाहिए।
2. अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति (Appointment of Good Teachers) – पिछड़े हुए बालकों को शिक्षा देने के लिए अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए। अच्छे शिक्षक का वर्णन करते हुए बर्ट (Burt) ने लिखा है- “पिछड़े बालकों का अच्छा शिक्षक साहित्यिक रुचियों वाला मनुष्य होने के बजाय व्यावहारिक मनुष्य होता है। उसकी रुचियाँ पुस्तकीय होने के बजाय मूर्त्त होती हैं और उसमें शारीरिक कार्य करने की योग्यता होती है। “
3. विशेष पाठ्यक्रम का निर्माण (Special Curriculum)- पिछड़े बालकों के लिए विशेष प्रकार के पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम अधिक-से-अधिक लचीला और सामान्य बालकों के पाठ्यक्रम से कम बोझिल एवं कम विस्तृत होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, वह बालकों के लिए उपयोगी, उनके जीवन से सम्बन्धित और उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला होना चाहिए। उसके उद्देश्य के बारे में कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) का मत है— “पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए, जो पिछड़े बालकों को विद्वान् बनाने के बजाय जीवन के लिए तैयार करे एवं उनको बुद्धिमान नागरिक और कुशल कार्यकर्त्ता बनाये।”
4. विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना (Establishment of Special Schools) – पिछड़े बालकों के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिए। उनकी आवश्यकता पर बल देते हुए ये प्रो० उदय शंकर (Prof. Uday Shanker) ने लिखा है—“यदि पिछड़े बालकों को सामान्य बालकों के साथ शिक्षा दी जायगी, तो वे पिछड़ जायेंगे और फलस्वरूप वे अपने स्वयं के स्तर के बालकों से और अधिक पिछड़े हुए हो जायेंगे। विशिष्ट विद्यालयों में उनको अपनी कमियों का कम ज्ञान होगा और वे अपने समान बालकों के समूह में अधिक सुरक्षा का अनुभव करेंगे। इन विद्यालयों में उनके लिये प्रतिद्वन्द्विता कम होगी और प्रोत्साहन अधिक।”
यदि ये विशिष्ट विद्यालय, सावास (Residential) विद्यालय हों, तो पिछड़े बालकों को और अधिक लाभ हो सकता है। ऐसे विद्यालयों में उनके पिछड़ेपन के कारणों का सरलता से अध्ययन करके उपचार किया जा सकता है। इंग्लैण्ड में इस प्रकार के विद्यालय हैं और उनमें 100 से अधिक छात्र नहीं रखे जाते हैं।
5. विशिष्ट विद्यालयों का संगठन (Organisation of Special School)- कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) के अनुसार- “पिछड़े हुए बालकों के विशिष्ट विद्यालयों का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए, जिससे कि उनमें विभिन्न प्रकार की अधिकतम छात्र-क्रियायें, बालकों को पर्याप्त पर नियन्त्रित स्वतन्त्रता, स्वतन्त्र अनुशासन और प्रत्येक बालक की प्रगति का पूर्ण अभिलेख विकसित हो सकें।”
6. छोटे समूहों में शिक्षा (Education in Small Groups)- पिछड़े हुए बालक वास्तविक प्रगति तभी कर सकते हैं, जब शिक्षकों द्वारा उनके प्रति व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया जाय यह तभी सम्भव है, जब उनको छोटे समूहों में शिक्षा दी जाय। इस सम्बन्ध में स्टोन्स (Stones) के तीन सुझाव हैं- (i) एक कक्षा में 20 से अधिक छात्र नहीं होने चाहिएँ । (ii) यदि छात्रों में किसी प्रकार के शारीरिक दोष हैं, तो उनकी संख्या 20 से कम होनी चाहिए। (iii) एक कक्षा के छात्रों को केवल एक अध्यापक द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए।
7. हस्तशिल्पों की शिक्षा (Training in Handicrafts) – पिछड़े बालकों में तर्क और चिन्तन की शक्तियों का अभाव होता है। अत: उनके लिए मूर्त्त विषयों के रूप में हस्तशिल्पों की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। बालकों को अग्रांकित शिल्पों की शिक्षा दी जा सकती है- (i) कताई, बुनाई, जिल्दसाजी और टोकरी बनाना; (ii) बेंत, धातु, लकड़ी • और चमड़े का काम। बालिकाओं के लिए आगे लिखे शिल्प हो सकते हैं- बुनना, काढ़ना, सिलाई करना, भोजन बनाना और गृह-विज्ञान से सम्बन्धित अन्य कार्य ।
8. विशेष शिक्षण विधियों का प्रयोग (Use of Special Teaching Methods) – सामान्य बालकों की तुलना में पिछड़े बालकों में सामान्य बुद्धि कम होती है। अतः उनके लिए विशेष शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। इनमें निम्नलिखित पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए – (i) शिक्षण की धीमी गति; (ii) शिक्षण के विभिन्न उपकरणों का उदार प्रयोग; (iii) पढ़ाये गए विषय की बार-बार पुनरावृत्ति; (iv) सरल और रोचक शिक्षण विधियाँ; (v) स्टोन्स (Stones) के अनुसार- “इस बात की सावधानी रखनी चाहिए कि एक बार में अधिक न पढ़ा दिया जाय।” (vi) योजना-पद्धति के आधार पर कार्य; (vii) शिक्षण का बालकों के दैनिक जीवन और मूर्त वस्तुओं से सम्बन्ध; (vii) कम-से-कम मौखिक शिक्षण; (ix) अर्जित ज्ञान को प्रयोग करने के अवसर; (x) भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक आदि स्थानों का भ्रमण ।
9. अध्ययन के विषय (Study Subjects) – पिछड़े बालकों में अमूर्त चिन्तन की योग्यता नहीं होती है। अत: उसके अध्ययन के विषय न तो अमूर्त्त होने चाहिएँ और न उनमें सिद्धान्तों एवं सामान्य नियमों की अधिकता होनी चाहिए। स्किनर एवं हैरीमैन (Skinner and Harriman) के अनुसार- “पिछड़े बालकों के अध्ययन के विषयों का सम्बन्ध उनके सामाजिक वातावरण से होना चाहिए, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य-बालक में सामाजिक वातावरण उत्पन्न करना है।”
10. सांस्कृतिक विषयों की शिक्षा (Cultural Education) – पिछड़े बालकों की आत्म-अभिव्यक्ति की शक्तियों का विकास करने के लिए उनको उनकी रुचियों और क्षमताओं के अनुसार संगीत, नृत्य, ड्रांइग और अभिनय की शिक्षा दी जानी चाहिए। उनमें नैतिक गुणों का विकास करने के लिए उनको वीर मनुष्यों और महान् पुरुषों एवं महिलाओं की कहानियों की नाटकों के रूप में शिक्षा दी जानी चाहिए।
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