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प्रक्रिया उपागम: प्रदर्शन तथा माध्यम की खोज
कला स्वयं एक क्रियात्मक विषय है। इसमें प्रत्येक कार्य क्रियात्मक होता है, क्योंकि हृदय तथा मन के भाव बुद्धि से मेल खाकर हस्त-कौशल द्वारा अभिव्यक्त होते हैं। छात्र स्वभावतः कुछ-न-कुछ करना चाहता है। छात्र के शैशवकाल के अन्तिम पक्ष तथा बाल्यकाल के आदि पक्ष में विध्वंसात्मक प्रवृत्ति पायी जाती है, जो भविष्य में विधायकता की प्रवृत्ति में अभिभूत हो जाती है।
यह प्रवृत्ति छात्र को आन्तरिक दृष्टि से प्रेरित करती रहती है कि वह कुछ क्रिया तथा सृजन करें। इस प्रकार जब छात्र किसी निर्माण के कार्य में लगता है तो कल्पना का सहारा लेकर उसमें आत्माभिव्यक्ति का पुट अवश्य देता है।
कला-शिक्षण में क्रियात्मक विधि का तात्पर्य उन सभी क्रियाओं को कराने से है, जो चित्रण के अतिरिक्त शिल्प-कार्य से सम्बन्ध रखती है। स्कूल में सिखायी जाने वाली कला की तुलना संग्रहालयों में रखी हुई कलाकृतियों, सिनेमाघरों, नाटक गृहों. शास्त्रीय नृत्यों एवं संगीत प्रदर्शनी, विज्ञापनों, पोस्टरों, वास्तुकला, संगीत, मुशायरों अथवा कवि सम्मेलनों से नहीं की जा सकती है। विद्यालय की कला-शिक्षा, स्थानीय लोक कला, शिल्प कला तथा लोक रंगमंच के समीप है। यह उस चित्रकला से भी भिन्न है, जो हमने अपने अध्ययन काल में नकल कर सीखी थी या जो कलाकृतियाँ मूर्खन्य कलाकारों ने अजन्ता तथा एलोरा, मुगल या राजपूत शैली में श्री नन्दलाल बोस या टैगोर ने बनायी थीं। हम अपने समय में ऐसे फूल-पौधों, ज्यामिति आकारों अथवा दृश्यों के चित्र बनाते रहे हैं, जो भावना, विचार तथा अनुभूति शून्य थे। रचनात्मक कला का अर्थ कारीगरी से सम्बन्धित व्यवसाय प्रेरित गतिविधियों से नहीं, इसमें हम जो कुछ भी करेंगे उसका दृष्टिकोण तथा उद्देश्य भिन्न होगा।
विद्यालय में सृजनात्मक कला के कार्यक्रमों में छात्र सहज भाव से खेल-खेल में विभिन्न कलाकृतियाँ बनाते हैं, जिनमें छात्र अपने प्रतिदिन के अनुभवों को विभिन्न प्रकार के माध्यमों तथा सामग्री से व्यक्त करता है और इसके द्वारा अपनी भावनाओं, विचारों, भावों और कल्पनाओं को मूर्त रूप देता है। छात्र कागज, गत्ते, लकड़ी, मिट्टी तथा चर्म के माध्यम से कोई-न-कोई उपयोगी वस्तु बनाने का प्रयास करता है। वास्तव में, ललित कला ही उपयोगी वास्तुकला का मार्ग प्रशस्त करती है। छात्र चित्रण का कार्य करते-करते ऊब जाता है। उसकी मनोदशा बदलने के लिए अन्य कार्य खोजने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, कागज मोड़ना, काटना और चिपकाना, गत्ते को काटकर कोई वस्तु बनाना, मॉडल बनाना, मिट्टी के द्वारा आकृतियाँ बनाना, लकड़ी तथा चमड़े तथा पत्थर या मिट्टी से मूर्ति बनाना आदि क्रियाएँ क्रियाशीलता प्रदान करती हैं।
इन्हें क्रियात्मक कार्य इस दृष्टि से भी माना जाता है कि इन क्रियाओं में कुशलता प्राप्त कर लेने पर व्यवसाय भी निर्धारित किया जा सकता है। अतः इन्हीं क्रियात्मक कार्यों द्वारा कला का अध्ययन कराना क्रियात्मक विधि कहलाती है।
क्रियात्मक विधि में शिक्षक निम्नलिखित क्रियाओं को कराते हुए कलात्मक ज्ञान दे सकता है-
1. कागज का कार्य – इस क्रिया में कागज रंगना, अबरी बनाना, कागज मोड़ना, कागज काटना, कागज चिपकाना, आदि क्रियाएँ आती हैं। कागज रंगने की विविध क्रियाओं में स्प्रे, स्टेन्सिल छपाई एवं रंग में डुबोना, आदि क्रियाएँ आती हैं। इनके माध्यम से छात्र को रंगों का ज्ञान, रंगाई के उद्देश्यों से परिचित कराया जा सकता है। अवरी बनाने की प्रक्रिया में एक प्रकार से कागज की रंगाई तथा छपाई है, जिसके माध्यम से बालक क्रिया के परिणामस्वरूप आत्म-सन्तोष प्राप्त करता है। इन क्रियाओं से छात्र उत्पादन भी करता है। कागज काटने, मोड़ने और चिपकाने की क्रियाओं के द्वारा विविध प्रकार की वस्तुएँ, फाइलें, पैड, लिफाफे, पुस्तक संकेत (थैले), फूल, बेलें, आदि वस्तुएँ बनायी जा सकती हैं। इनके माध्यम से इनकी सज्जा करते समय छात्र रूपकारी कला एवं रंगाई, आदि से भी परिचित हो जाता है।
2. मिट्टी का क्रियात्मक कार्य- मुलायम चिकनी मिट्टी द्वारा मॉडल बनाना, बर्तन बनाना और उन्हें पकाना तथा रंगकर सजाना कलात्मक क्रियाओं का एक भाग होता है। अपने उद्देश्यानुसार मिट्टी को इच्छानुसार परिवर्तित किया जा सकता है, अतः यह कार्य छात्रों को रुचिकर और सरल प्रतीत होता है।
3. लकड़ी और धातु के कार्य- लकड़ी एवं धातु के कार्यों में अधिक बल और कुशलता की आवश्यकता होती है। इसलिए ये कार्य उच्च कक्षाओं के लिए उपयोगी हैं। यन्त्र, हथौड़े और छैनी, आदि चलाना छोटे बच्चों के लिए कठिन होता है, लकड़ी तथा धातु की वस्तुओं की सजावट के लिए पक्के और चमकदार रंगों की आवश्यकता होती है। फर्नीचर रंगना, पक्के रंग बनाना, आदि का कलात्मक ज्ञान इनके माध्यम से छात्रों को कराया जाता है।
4. गृह-शिल्प के कार्य- छात्राओं के लिए यह कार्य उपयुक्त और उपयोगी होता है। कपड़े काटने, छाँटने, सिलने, काढ़ने, बुनने, आदि की क्रियाएँ गृह-शिल्प में आती हैं। छात्राएँ छात्रों की अपेक्षा अधिक कलात्मक रुचि की होती हैं। वे सज्जाकारी में अधिक कुशल और दक्ष होती हैं।
5. गत्ते का कार्य- मुलायम या कड़े गत्ते को खुरचकर, मोड़कर और काटकर विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का प्रतिरूप जैसे-बॉक्स, डिब्बे, तस्तरी, खोल, जिल्दें, नोटबुक, फाइलें, आदि बनाने की क्रियाएँ कर इनका कलात्मक ज्ञान इनसे सह-सम्बन्धित रूप में दिया जाता है। माप, आदि की गणना करके लेही द्वारा कागज चिपकाकर उसको सजाना कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है।
6. चर्म कार्य- चर्म द्वारा विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनायी जाती हैं, जैसे-पर्स, बैग, पेटी, आदि। इन्हें विभिन्न रंगों और आलेखनों से सजाया भी जा सकता है। चमड़ा मूल्यवान होता है, इस कारण इसका कार्य उच्च कक्षाओं में ही कराया जाता है।
7. कृषि सम्बन्धी कार्य तथा बागवानी- कृषि में विभिन्न साधनों, औजारों के उपयोग के द्वारा प्रकृति का अध्ययन कराना कलात्मक जागृति को दक्षता प्रदान करना है। कला के अध्ययन में प्रकृति का अध्ययन महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रकृति की गोद में जो कुछ देखा जाता है, उसका चित्रण और ज्ञान इस कृषि के अन्तर्गत आता है। शिल्प कलाओं को पढ़ाते समय शिक्षक को विश्लेषण-संश्लेषण का सहारा लेना चाहिए। किसी मॉडल को बनवाते समय अथवा लिफाफा, फाइल, आदि बनवाते समय शिक्षक को प्रदर्शन कराना चाहिए। नमूने की वस्तुओं का छात्र छात्राओं को विश्लेषण कराकर पूर्ण जानकारी देना चाहिए। जब छात्र उस नमूने से भली-भाँति परिचित हो जाएँ तो उसके संश्लेषण कराकर वैसी ही वस्तु बनाने का कलात्मक अवसर उन्हें देना चाहिए।
गृह-शिल्प के कार्य में सावधानियाँ
गृह-शिल्प पढ़ाते समय निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिएँ-
1. क्रिया में प्रयोग की जाने वाली सामग्री विदेशी नहीं होनी चाहिए। स्वदेशी और स्वनिर्मित सामग्री का प्रयोग लाभदायक होता है।
2. क्रिया में प्रयोग की जाने वाली सामग्री छात्रों की समझ, शक्ति और क्षमता के अन्तर्गत हो। अधिक महँगी सामग्री का प्रयोग नहीं करना चाहिए। जो सामग्री स्थानीय और सुलभ हो, उसी के माध्यम से इन क्रियाओं को करना चाहिए।
3. इन क्रियाओं का उद्देश्य छात्र को व्यवसायी बनाना नहीं, अपितु कला का ज्ञान देना है। अतः व्यावसायिकता के दृष्टिकोण को प्रधानता न देकर शिल्प की कलात्मकता पर अधिक बल देना चाहिए।
4. सामग्री ऐसी होनी चाहिए, जो छात्रों के लिए हानिकारक और अधिक बल देने वाली न हो। सामग्री स्वच्छता की दृष्टि से उत्तम होनी चाहिए।
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