प्रभुसत्ता की धारणा का विकास (DEVELOPMENT OF THE IDEA OF SOVEREIGNTY)
सम्प्रभुता या प्रभुसत्ता राज्य का सार है परन्तु प्रभुसत्ता की वर्तमान अवधारणा प्राचीन या मध्ययुगीन धारणाओं से भिन्न है। इसलिए सम्प्रभुता के ऐतिहासिक विकास को जानने की आवश्यकता है। सामान्यतः प्रभुसत्ता के इतिहास को चार कालों में बाँटा जाता है— प्राचीन युग, मध्य, युग, सोलहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक का काल तथा वर्तमान काल।
1. प्राचीन युग (Notion of Sovereignty of Olden Times ) – प्राचीन ग्रीक विचारकों, प्लेटो व अरस्तू, ने नगर-राज्यों की विवेचना की है। उनका नगर-राज्य न केवल सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न (Sovereign) है बल्कि व्यापक प्रयोजन वाली संस्था भी है। वही उनका धर्म-संघ है, वही विद्यालय है और वही एक ऐसा संगठन है जो कृषि और व्यापार की देखरेख करता है। उन्होंने राज्य को एक उच्चतम शक्ति के रूप में देखा है। ग्रीक विचारकों के लिए ‘राज्य’ और ‘समाज’ में कोई अंतर नहीं था। जहाँ तक प्राचीन रोमन लेखकों का प्रश्न है, उनकी रचनाओं में दो शब्दों का उल्लेख मिलता है— सुम्मा पोटेस्टाज (Summa Potestas) तथा इम्पीरियम (Imperium)। ‘सुम्मा पोटेस्टाज’ का अर्थ है— उच्चतम शक्ति तथा ‘इमरियम’ शब्द से ‘सर्वोच्च शक्ति’ का बोध होता है। अतएव प्राचीन रोम में भी राज्य को सर्वोच्च मानने की ही प्रथा थी। प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन में राज्य को सदैव ‘धर्म’ के अधीन माना गया है। राजा की शक्ति पर धर्म, प्रथा और परिपाटियों का अंकुश विद्यमान था।
2. मध्ययुगीन राज्य (Medieval Kingdoms) – मध्यकालीन यूरोपीय विचारकों की रचनाओं में हमें ‘प्रभुसत्ता’ का उल्लेख नहीं मिलता। व्यावहारिक दृष्टि से इस युग में राजाओं की शक्ति पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध थे।
प्रथम, इस समय तक राष्ट्र-राज्यों (Nation-States) का उदय नहीं हुआ था। यूरोप के अनेक प्रदेश रोमन साम्राज्य के अंग थे। इन प्रदेशों के शासक प्रभुसत्ता से युक्त नहीं थे क्योंकि बाहरी देशों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने मेंवे स्वतन्त्र नहीं थे।
द्वितीय, रोम के शासक और यूरोप के अन्य राजाओं ने ईसाई धर्म को अपना लिया था। पोप की ओर से यह दावा किया जाने लगा था कि ईसाई जगत का प्रत्येक राजा पोप की शक्ति के अधीन माना जायेगा।
तृतीय, रोमन साम्राज्य के पतन के बाद राजाओं ने अपनी भूमि सामन्तों और उपसामन्तों के बीच बाँट दी थी। सामन्तों पर राजाओं का कठोर नियन्त्रण नहीं था। सामन्ती युग में शाक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता का अभाव था जिसके कारण राज्य की शक्ति ‘उच्चतम’ नहीं मानी जा सकती थी।
चतुर्थ, इन दिनों कानून को ईश्वरीय नियम मानने की प्रवृत्ति थी जिसके कारण कानून की व्याख्या का अधिकार धर्मशास्त्रियों को प्राप्त था। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक और ईश्वरीय नियम भी राजाओं की शक्ति को सीमित करने वाले तत्व थे।
पाँचवें, विभिन्न उद्योगों और शिल्पों में लगे हुए लोगों के अपने जो पृथक-पृथक संघ (Occupational Guilds) थे, वे भी राजा के प्रतिद्वन्द्वी होते थे। राजा को उनके रीति-रिवाजों में परिवर्तन करने की शक्ति प्राप्त नहीं थी।
संक्षेप में, मध्ययुगीन व्यवस्था इस प्रकार की थी कि राज्य की शक्ति को उच्चतम शक्ति नहीं कहा जा सकता था।
3. सोलहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं सदी के अन्त तक का काल (The Sixteenth Century and the later Centuries) — यूरोप में राष्ट्र राज्यों का उदय ईसा की सोलहवीं शताब्दी से हुआ। फ्रांस, इंग्लैण्ड, स्पेन, नीदरलैण्ड और रूस में राष्ट्र राज्यों की स्थापना हो गयी थी। राजा न केवल शिक्षा, संस्कृति व व्यापार में हस्तक्षेप करने लगे थे वरन् प्रजा के धार्मिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने का अधिकार उन्हें प्राप्त था। राष्ट्र राज्यों के विकास के साथ-साथ ‘सम्प्रभुता’ के आधुनिक सिद्धान्त का उदय हुआ। जिन विचारकों ने प्रभुसत्ता के सिद्धान्त पर विशेष बल दिया, उनमें जीन बोदां, ग्रोशस, हॉब्स, रूसो, बैन्थम और जॉन ऑस्टिन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
बोदां (Bodin)– ने सम्प्रभुता को एक ऐसी शक्ति माना है जिसे “कानून द्वारा बाधित या सीमित न किया जा सके।” किन्तु साथ ही उसने यह भी कहा था कि राजा को ईश्वरीय नियमों में हस्तक्षेप करने अथवा निजी सम्पत्ति के विषय में मनमाने का अधिकार प्राप्त नहीं है। ग्रोशस ने “बाह्य सम्प्रभुता” की धारणा को जन्म दिया था।
टॉमस हॉब्स ( Thomas Hobbes)– के मतानुसार राज्य की स्थापना के बाद लोगों के पास कोई भी अधिकार शेष नहीं रह जाते। फ्रेंच विचारक रूसों (Rousseau) ने भी राज्य को निरंकुश माना है किन्तु साथ ही उसने यह भी कहा है कि सम्प्रभुता किसी व्यक्ति विशेष में नहीं अपितु सामान्य इच्चा (General Will) में निहित होती है।
जेरेमी बेन्थम (Jeremy Bentham )- यद्यपि, ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ में विश्वास रखता था किन्तु वह प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त का विरोधी था। उसके मतानुसार अधिकारों का स्रोत ‘कानून’ है तथा कानून का स्त्रोत राज्य है। राज्य के किसी भी कार्य को गैर-कानूनी नहीं माना जा सकता। प्राकृतिक एवं ईश्वरीय नियम राज्य की सम्प्रभुता को मर्यादित नहीं कर सकते।
जॉन ऑस्टिन (1790-1859) का प्रभुता सिद्धान्त कानूनी दृष्टि से सबसे अधिक प्रामाणिक माना जाता है। ऑस्टिन के मतानुसार, “एक ऊँचे व्यक्ति द्वारा एक नीचे व्यक्ति को दिया गया आदेश ही कानून है।” इसी मत के आधार पर उसने अपने सम्प्रभुता सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। ऑस्टिन के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक पदार्थ राज्य की प्रभुसत्ता के अधीन है। सभी व्यक्यिों और समुदायों के लिए आवश्यक है कि वे राज्य के आदेशों को माने। ऑस्टिन ने सम्प्रभुता को सर्वव्यापक (All-Comprehensive), अविभाज्य (Indivisible), पूर्ण (Absolute) और असीम (Unlimited) माना है।
4. वर्तमान काल (Theory of Sovereignty Today) – हॉब्स, बैन्थम व ऑस्टिन आदि विद्वानों ने सम्प्रभुता को पूर्ण और असीम माना था। प्रभुसत्ता की इस असीमता के विरुद्ध बीसवीं शताब्दी में एक गम्भीर प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी। जिन विचारकों ने राज्य की सर्वोच्चता को चुनौती दी थी, उन्हें बहुलवादी या बहुसमुदायवादी (Pluralists) कहा जाता है। लिण्डसे, जी. डी. एच. कोल, बार्कर, लास्की और मैकाइवर आदि विद्वानों का कथन है कि राज्य को असीमित अधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिए। किसी भी राज्य को अनुत्तरदायी बन जाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। समाज में राज्य संस्था के अतिरिक्त और भी बहुत-से-संघ व समुदाय है, जैसे—परिवार, चर्च, ट्रेड यूनियम, विश्वविद्यालय तथा सांस्कृतिक समुदाय आदि। राज्य को वह शक्ति कैसी दी जा सकती है कि वह अन्य समुदायों की आन्तरिक व्यवस्था में भी हस्तक्षेप करने लगे। इन विद्वानों के मतानुसार राज्य की सर्वोच्च सत्ता का सिद्धान्त न केवल नागरिक-अधिकारों के विरुद्ध है बल्कि उससे अन्तर्राष्ट्रीय शांति को भी खतरा पैदा हो गया है। सन् 1914 के विश्वयुद्ध का उल्लेख करते हुए मैकाइवर ने लिखा है कि रूस और जर्मनी क किसानों का आपस में क्या विवाद था। इसका आशय यह है कि राज्यों का प्रभुसत्ता पर अंकुश लगाया जाये, ताकि वे युद्धों की घोषणा करके स्त्रियों से उनके पति और माताओं से उनके पुत्र न छीन सकें।
सम्प्रभुता पर बहुलवादी प्रहारों के कारण यह भावना अवश्य विकसित हुई है कि अन्य संघों और समुदायों का भी महत्व है। इसके अतिरिक्त, बहुलवाद ने निरंकुश राजतन्त्र पर भी आघात पहुँचाया है तथा जन-अधिकारों की सुरक्षा का मार्ग भी प्रशस्त किया है परन्तु जहाँ तक व्यवहार में प्रभुसत्ता का प्रश्न है, वह पहले की ही भाँति आज भी यथावत् हैं। समाजवादी और गैर-समाजवादी सभी राज्यों में सरकार का अधिकार क्षेत्र निरन्तर बढ़ता जा रहा है। धीरे-धीरे राज्य वे सभी कार्य अपने हाथों में लेता जा रहा है जो कभी निजी संस्थाएँ किया करती थीं। शिक्षा, उद्योग, चिकित्सा, व्याह, तलाक और धर्म अब पूर्णताय निजी मामले नहीं रह गये है। अतः राज्यों, की आन्तरिक प्रभुता नित्य प्रति पुष्ट होती जा रही है। जहाँ तक बाह्य प्रभुसत्ता का प्रश्न है, विभिन्न सरकारें संयुक्त राष्ट्र संघ की जिन नीतियों को सुविधाजनक मानती हैं, उनका वे पालन करती हैं और जिन्हें असुविधाजनक समझती हैं, उनका पालन नहीं करतीं। लॉस्की जैसे कट्टर बहुलवादी को भी बाद में अपनी भूल स्वीकार करनी पड़ी थी। उसने कहा है कि “जहाँ तक कानून की बात है, इस सत्य को कोई इनकार नहीं कर सकता कि राज्य में ऐसी सत्ता अवश्य होती है जिसकी शक्तियों पर कोई सीमा नहीं होती।”
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