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प्रयोजना विधि का परिचय इसके सिद्धान्त, क्रियात्मक सोपान, विशेषताएं एंव सीमाएं

प्रयोजना विधि का परिचय इसके सिद्धान्त, क्रियात्मक सोपान, विशेषताएं एंव सीमाएं
प्रयोजना विधि का परिचय इसके सिद्धान्त, क्रियात्मक सोपान, विशेषताएं एंव सीमाएं
प्रयोजना विधि का परिचय देते हुए इसके सिद्धान्त, क्रियात्मक सोपान, विशेषताएं व सीमा पर चर्चा कीजिए।

जॉन डिवी के प्रयोजनवाद के दर्शन के आधार पर समूची शिक्षा का प्रारंभ एक ऐसी प्रक्रिया से होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने समूह की गतिविधियों में सचेत होकर भाग लेता है। उनके दूसरे विचार के अनुसार शिक्षा, अनुभवों के लगातार पुनर्निर्माण के की, जीवन जीने की प्रक्रिया है। यह व्यक्ति में उन सभी ऐसी क्षमताओं के विकास की प्रक्रिया है जो उसे उसके वातावरण को नियंत्रित करने तथा संभावनाओं को परिपूर्ण करने योग्य बनाती है। उपरोक्त कथनों से यह स्पष्ट है कि शिक्षा में सामूहिक रूप से सचेत भागीदारी आवश्यक है तथा शिक्षा का संबंध जीवन जीने के साथ अनुभव प्राप्त करने से है। शिक्षा की योजना विधि जॉन डिवी के इन्हीं विचारों दर्शनों पर आधारित है। यह एक शिक्षण पद्धति है जो प्रयोजनवाद की देन है। यह एक अनुभव केंद्रित विधि है। जिसमें कार्य करने सीखने का सिद्धांत दृष्टिगोचर होता है। इस शिक्षण पद्धति में सामाजीकरण पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

योजना विधि को ऐतिहासिक संदर्भ :- योजना विधि का जन्म बीसवीं सदी के प्रथम दशक से अमेरिका में हुआ। प्रारंभ में तो यह विभिन्न नामों से जाना जाता था किंतु सन् 1918 में डब्ल्यू.एच किलपैट्रिक ने जो जॉन डिवी के शिष्य थे, सबसे पहले ‘प्रोजेक्ट’ शब्द का प्रयोग किया। ‘प्रोजेक्ट’ शब्द को इंजीनियरिंग से लिया गया है जिसका अर्थ ‘खाका’ (Plan) होता है। इससे पूर्व 1908 में मैसेचुसेट्स के ‘बोर्ड ऑफ एजूकेशन’ ने छात्रों को स्व-आयोजित व स्व-संपादित गृह कार्यों को बोध कराने के लिए ‘प्रोजेक्ट’ शब्द का प्रयोग किया था।

डब्ल्यू. एच. किलपैट्रिक के अनुसार, प्रोजेक्ट पूर्ण मन से किया जाने वाला वह उद्देश्य कार्य है जो सामाजिक वातावरण में संपन्न होता है।”

“प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक परिस्थितियों के अंतर्गत पूर्णता को प्राप्त करता है।” प्रो. स्टीवेन्सन “प्रोजेक्ट इच्छानुसार संपादित वह कार्य है जिसमें रचनात्मक प्रयास अथवा विचार हो और जिससे कुछ मूर्त्त परिणाम निकले।”

उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार प्रोजेक्ट विधि ये निम्न बिंदु होते हैं-

  1. कार्य की योजना होती है।
  2. योजना का कार्यान्वयन एवं उससे फल की प्राप्ति होती है।
  3. योजना उद्देश्यपूर्ण होती है।
  4. योजनान्तर्गत कार्य समस्यामूलक होते है।

प्रोजेक्ट विधि के सिद्धान्त

यह विधि निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित हैं :

1. उद्देश्य का सिद्धान्त :- किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले उस कार्य का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए। उद्देश्यपूर्ण क्रिया ही व्यक्ति की समूची शक्तियों की उस क्रिया को सम्पन्न करने की और अग्रसर करती है। प्रोजेक्ट विधि में योजना का उद्देश्य स्पष्ट होता है। विद्यार्थियों को मालूम होता है कि वे अमुक कार्य क्यों कर रहे हैं? इसलिये वे पूरी लग्न के साथ काम करते हैं।

2. क्रियाशीलता का सिद्धान्त :- क्रिया करना बालक के स्वभाव में होता है. और उसके इस स्वभाव का तकाजा है कि उसे काम करने के अवसर प्रदान किए जाएं। यह विधि विद्यार्थी को सदैव क्रियाशील बनाए रखती है। इस विधि में उन्हें स्वतन्त्र रुप से कार्य करने के कई अवसर मिलते हैं।

3. स्वतन्त्र वातावरण का सिद्धान्त :- स्वतन्त्र वातावरण में व्यक्ति अधिक काम करता है जिससे उसकी मानसिक एवं बौद्धिक प्रवृतियों का विकास होता हैं जिसे वह अभिव्यक्त कर सकते हैं। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति उनके व्यक्तित्व के समुचित विकास में सहायक सिद्ध होती है।

4. उपयोगिता का सिद्धान्त :- ज्ञान उपयोगी और व्यावहारिक होना चाहिए तभी उसका महत्व होता है। पुस्तकों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान तब तक व्यावहारिक नहीं बन सकता जब तक उसे प्रयोग न किया जाएं। परन्तु क्रिया और अपने अनुभवों से प्राप्त ज्ञान की व्यावहारिकता एवं उपयोगिता ज्ञान प्राप्ति के समय ही सिद्ध में विद्यार्थी क्रिया और अपने अनुभवों से ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए उनका ज्ञान उन जाती है। योजना विधि विद्यार्थियों की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक एवं उपयोगी होता है जिन का ज्ञान केवल पुस्तकों पर आधारित होता है।

5. अनुभवशीलता का सिद्धान्त :- मनुष्य सदैव क्रियाशील रहता है वह क्रिया द्वारा अनुभव भी प्राप्त करता है और अनुभव अन्य क्रियाओं को प्रोजेक्ट विधि करने की प्रेरणा प्रदान करता है। क्रिया से प्राप्त अनुभव बच्चे को शिक्षा प्रदान करते है। बच्चा अपने अनुभवों से जल्दी सीखता है और जिसे वह एक बार सीख लेता है उसे भूलता नही। इस प्रकार यह विधि बच्चों को अनुभव प्रदान करने में मदद करती है। वह दूसरों के साथ मिलकर काम करता है उसमें सहयोग, सहनशीलता जैसे सामाजिक गुणों का विकास होता है।

6. वास्तविकता का सिद्धान्त :- योजना पद्धति जीवन की वास्तविकता को महत्वपूर्ण स्थान देती है। यदि शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों को जीवन के लिये तैयार करना है। तो स्कूल में वास्तविक जीवन की परिस्थितियों को उत्पन्न करना अत्यन्त आवश्यक हैं। योजना पद्धति इसी प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न करके विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करती हैं। इस प्रकार यह विधि इन सिद्धान्तों के आधार पर मनोवैज्ञानिक विधि कहलाती है। जिसमें रुचियों के अनुसार सीखना, काम द्वारा सीखना, व्यक्तिगत अनुभूतियों द्वारा सीखना आदि हैं।

प्रोजेक्ट विधि के क्रियात्मक सोपान

इस पद्धति में किसी उद्देश्यपूर्ण क्रिया द्वारा विद्यार्थियों को उपयोगी शिक्षा प्रदान की जाती है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब योजना का चुनाव एवं क्रियान्वन उचित रुप से किया जाये। इसके लिये एक निश्चित प्रक्रिया अपनानी होती है जिसके मुख्य सोपान निम्नलिखित हैं :-

1. परिस्थिति प्रदान करना :- उचित योजना के चुनाव के लिये सबसे पहले विद्यार्थियों को ऐसी स्थिति प्रदान की जानी चाहिए जिससे उनके मन में किसी उद्देश्यपूर्ण क्रिया के लिये उत्साह जाग उठे। उनकी रुचि उत्पन्न हो जाएं। अध्यापक वार्तालाप द्वारा, वाद विवाद, चित्रों के माध्यम से यात्रा, भ्रमण या विभिन्न साधनों द्वारा स्थिति उत्पन्न कर सकता है जो विद्यार्थियों में कोई उपयोगी कार्य करने की लगन पैदा कर दे। यहां इस बात का ध्यान रखना होगा कि अध्यापक की ओर से कुछ थोपा न जाये। विद्यार्थियों को अपने विचार प्रकट करने की पूरी स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

2. प्रोजेक्ट का चयन :- स्थिति प्रदान करने के पश्चात् प्रोजेक्ट का चुनाव करना पड़ता है। योजना विद्यार्थियों द्वारा ही चुनी जाती हैं उनकी जिज्ञासा जाग जाती है जो योजना के चुनाव का आधार बनती है। विद्यार्थी उस योजना का चुनाव करें जो उनके लिये आवश्यक तथा उपयोगी हो। इसके लिये विद्यार्थियों का कितना भाग है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि लक्ष्य निर्धारित किस के द्वारा किया जाता है।

3. प्रोजेक्ट बनाना :- योजना का चुनाव जाने के पश्चात् उसके क्रियान्वन के लिये उचित योजना बनाने की आवश्यकता होती है। योजना भी विद्यार्थियों द्वारा बनाई जानी चाहिए। स्वतन्त्रतापूर्वक परस्पर विचार-विमर्श से योजना बनाई जानी चाहिए। इसमें भी अध्यापक को एक पथ प्रदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। उसे प्रत्येक योजना के क्रियान्वयन में आने वाली कठिनाइयों से विद्यार्थियों को अवगत करा देना चाहिए ताकि वे पहले सोच समझ लें कि वे उन कठिनाईयों से अवगत करा देना चाहिए ताकि वे पहले सोच समझ ले कि वे कठिनाइयों को दूर करने के लिये क्या करेगें? इसके अतिरिक्त अध्यापक को यह देखना चाहिए कि योजना बनाने में केवल दो चार विद्यार्थियों का आधिपत्य न हो। उसे सभी विद्यार्थियों को अपने विचार प्रकट करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए। योजना को क्रियान्वन करने से पहले नोट बुक पर लिख लेना चाहिए।

4. योजना का क्रियान्वन :- योजना बन जाने के पश्चात् उस का क्रियान्वन आरम्भ होता है। एक योजना में कई क्रियायें सम्मिलित होती है। वे क्रियायें विद्यार्थियों में उनकी रुचियों तथा योग्यताओं के अनुसार बंट जानी चाहिए। यद्यपि यह कार्य भी मुख्यतः विद्यार्थियों द्वारा करना होता है। परन्तु इसमें भी अध्यापक का सर्तक मार्गदर्शन आवश्यक है। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सभी विद्यार्थी इसमें कुछ न कुछ काम अवश्य करे जो उनकी रुचि के अनुकूल हो। इसके अतिरिक्त अध्यापक को आवश्यक सूचनायें भी प्रदान करनी चाहिए। विद्यार्थियों को वांछित सूचना प्राप्त करने के स्त्रोत भी बताने चाहिए। यह सभी कार्य अध्यापक को मार्गदर्शक और सहायक के रुप में करने चाहिए। मुख्य भूमिका स्वयं विद्यार्थियों को निभानी होती है।

5. मूल्यांकन :- योजना पूर्ति के पश्चात् उसका मूल्यांकन अवश्य किया जाना चाहिए। इससे विद्यार्थियों को यह जानकारी प्राप्त होगी कि उन्होंने योजना के अनुसार कार्य किया या नही, कार्य के क्रियान्वन में कौन सी त्रुटियाँ रह गई और कौन सी अच्छी बातें सामने आई; क्या उपलब्धियां हुई; वांछित लक्ष्य की प्राप्ति हुई या नहीं आदि। मूल्यांकन भी स्वयं विद्यार्थियों द्वारा किया जाना चाहिए अर्थात् उन्हें स्वयं अपने कार्य की आलोचना करनी चाहिए। इसमें अध्यापक मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है।

6. रिकॉर्ड करना :- योजना से प्राप्त उपलब्धियों को स्थाई बनाने, योजना में आने वाली कठिनाइयों के प्रति भविष्य में सावधान करने तथा योजना के कार्यान्वन के दौरान गलतियों से भविष्य में सचेत रहने के लिये योजना के चयन से लेकर उसके मूल्यांकन तक पूर्ण विवरण लिख लेना चाहिए। इसके लिये प्रत्येक विद्यार्थी को एक योजना विवरण लिखने के लिये कहा जाना चाहिए।

प्रोजेक्ट विधि की विशेषताएं

प्रोजेक्ट विधि में शिक्षण के निम्नलिखित विशेषताएं है जो वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इसे अपरिहार्य बनाती है –

1. स्वयं करके सीखने की पद्धति :- इस विधि की सबसे बड़ी विशेषता स्वयं करके सीखने की पद्धति पर आधारित होना है। इसमें बच्चों को अपने अनुभवों से सीखने का पर्याप्त अवसर मिलता है। कोई भी ज्ञान बच्चों के ऊपर थोपा नहीं जाता। वे स्वयं कार्य करके अपने अनुभव से ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस पद्धति में छात्रों के सामने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी जाती है या ऐसे साधन एकत्र कर दिए जाते हैं कि बालक समस्याओं को हल करने को स्वेच्छा से तैयार हो जाते हैं।

2. विधि का श्रम-साध्य होना :- इस विधि का श्रम-साध्य होना हैं इसमें हरेक बच्चों को समस्या सुलझाने के लिए मानसिक व शारीरिक दोनों प्रकार के कार्य करने होते हैं। कार्य करने से उनके मन में श्रम के प्रति आदर का भाव उत्पन्न होता है। और यह भाव श्रमिकों को आदर करना सिखाती है। साथ ही बच्चा काम करने में हीनता का अनुभव नहीं करता।

3. जीवन तथा कार्य में संबंध :- योजना विधि में वास्तविक प्रोजेक्ट को वास्तविक परिस्थितियों में स्वाभाविक रूप से पूर्ण किया जाता हैं इससे जीवन तथा कार्य में संबंध स्थापित हो जाता है। जीवन से संबंधित होने पर बालक की रुचि उस कार्य में जगाती है और वह रुचि पूर्वक कार्य को पूरा कर लेता है। बालक इस दौरान कई जीवनोपयोगी कार्य सीख जाता है।

4. प्रजातांत्रिक विधि :- आज के प्रजातांत्रिक युग में यह पद्धति ज्यादा प्रासंगिक है क्योंकि इसका प्रयोग प्रजातांत्रिक है।

5. रुचि के अनुसार काम :- बालक अपनी रुचि के अनुसार काम करने प्रोजेक्ट चुनने या कार्यक्रम तैयार करने को स्वतंत्र है

6. बच्चों में सामाजिकता की भावना जाग्रत करना:- इसके अलावा उसे दूसरे को सहयोग करने का मौका मिलता है जिससे बच्चों में सामाजिकता की भावना जागृत होती है। बालकों में उत्तरदायित्व का बोध होता है।

7. स्वतंत्र रूप से सोचने तथा कार्य करने का अवसर :- इस पद्धति में विद्यार्थियों को स्वतंत्र रूप से सोचने तथा कार्य करने का अवसर मिलता हैं जिससे बालकों की सक्रियता विकसित होती है।

8. ज्ञान के तथ्यों एवं बातों को खुद खोजकर ग्रहण करना:- इस शिक्षण विधि में ज्ञान के तथ्यों एवं बातों को दूसरों से सुनकर जानने के बजाय उसे खुद खोजकर ग्रहण किया जाता है।

9. निर्णय करने का अवसरः बालकों को निर्णय करने का अवसर मिलता है और वे निर्णय करना भी सीख जाते हैं।

10. अपनी योग्यतानुसार कार्य:- इस विधि में बच्चे अपने तरीके से अपनी योग्यतानुसार कार्य करते हैं. अतः यह पद्धति मनोवैज्ञानिक मानी जाती है।

11. रटने की विधि का प्रबल विरोध:- इस परियोजना विधि में रटने की विधि का प्रबल विरोध किया गया है। इसमें रटने के लिए कोई अवसर नहीं है। इस विधि में रटने या स्मरण करने के बजाय सोचने तथा कार्य करने की प्रवृत्ति पर बल दिया जाता है। जो ज्ञान काम करके किया जाता है वह ज्ञान ज्यादा स्थाई होती है। रटने की विधि से प्राप्त ज्ञान स्थायी नहीं है क्योंकि ऐसे ज्ञान का व्यावहारिक जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता।

प्रोजेक्ट पद्धति की सीमाएं

1. विषय सामग्री की अव्यवस्था :- इस विधि में सीखने के दौरान क्रम बिगड़ जाता है। सामाजिक अध्ययन में विषय सामग्री को व्यवस्थित करना अति आवश्यक है। कई महत्वपूर्ण बातें न होने से विद्यार्थियों को कई प्रकार की उलझनों का सामना करना पड़ता है। जिससे उसके मन में सामाजिक अध्ययन के प्रति अरुचि पैदा हो सकती हैं।

2. अधिक व्यय :- इस विधि में योजना को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए बहुत सी सामग्री की आवश्यकता पड़ती है। कई बार ऐसा भी होता है कि कई वस्तुओं का इंतजाम बाहर से करना पड़ता है। सामान्यतः विद्यालयों के पास इतना धन नही होता कि वे इनका खर्च वहन कर सकें जिसके कारण योजना पद्धति में कमी आ जाती है और इसके परिणाम संतोषजनक नहीं आ पाते।

3. अध्यापक पर ज्यादा निर्भर :- योजना विधि में अध्यापक को अधिक सक्रिय रहना पड़ता है जिससे अध्यापक पर अधिक बोझ पड़ता है। इसका कारण यह है कि शिक्षक को इस विधि में एक ही अध्यापक को सभी विषयों का ज्ञान देना पड़ता है और हरेक शिक्षक हर विषय में कुशल नहीं होते हैं जिससे नतीजा बराबर नहीं आता है इसके अतिरिक्त उपयोगी पाठ्यपुस्तकों का भी प्रायः अभाव ही रहता है।

4. पाठ्यक्रम को समय पर पूरा करने में कठिनाई :- इस विधि में शिक्षण करते समय निश्चित समय चक्र का अनुसरण नही किया जाता। इसमें शिक्षा क्रम भी निश्चित होता। सभी विषयों का पाठ्यक्रम समय पर समाप्त नहीं किया जा सकता है जिससे विद्यालय का काम अस्त व्यस्त हो जाता है।

5. असंतुलित शिक्षण नहीं :- इसमें कुशल बच्चे अपना आधिपत्य जमा लेते है वे ही सारा कार्य अपने आप करना चाहते हैं जिससे औसत बच्चा इस विधि में पिछड़ जाता है तथा सभी विद्यार्थियों का एक जैसा शिक्षण नहीं हो पाता। सभी विद्यार्थियों से यह आशा भी नहीं की जा सकती कि वे सभी क्रियाओं को समान गम्भीरता और उत्साह से कर सकें। इस विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इस विधि का प्रयोग यदि अन्य विधियों की पूरक विधि के रुप में किया जाए तो इसके द्वारा प्रत्यक्ष शिक्षण, क्रमबद्ध अध्ययन, प्रदर्शन और अनुभव तथा चर्चा द्वारा पाठ्यक्रम सामग्री के विकास के अवसर मिलते है। इस विधि को इस विषय की शिक्षा की एक मात्र विधि नहीं माना जा सकता है।

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Anjali Yadav

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