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प्रादेशिक पद्धति (Regional Method)
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक भूगोल का शिक्षण राजनैतिक भागों को इकाइयाँ मानकर कराया जाता था। जैसे-भारत, जापान, चीन आदि। प्रत्येक देश का भौगोलिक वर्णन उसकी स्थिति, प्राकृतिक दशा, जलवायु, उपज, पशु, यातायात के साधन, उद्यम तथा मानव जीवन के आधार पर किया जाता था। एक देश के वर्णन के बाद दूसरे का वर्णन भी इसी क्रम में किया जाता था। यह विधि अच्छी नहीं मानी गई। इसमें बालकों का समय अधिक नष्ट होता था। विषय भी अधिक कठिन व नीरस हो जाता था।
भूगोल को वैज्ञानिक ढंग से पढ़ाने के लिये यह विभाजन (राजनैतिक विभाग) उपयुक्त सिद्ध नहीं हुआ। सन् 1905 में ‘ए० जे० हर्बर्टसन’ (A. J. Herberison) ने पृथ्वी को 18 विशाल प्राकृतिक प्रदेशों में बाँटा तथा उसी समय से भूगोल प्राकृतिक प्रदेशों (Natural regions) के आधार पर पढ़ाया जाने लगा।
प्राकृतिक प्रदेश- किसी एक भूखण्ड को प्राकृतिक प्रदेश कहा जा सकता है, जिसका धरातल, जलवायु, वनस्पति, पशु तथा मानव जीवन समान हो। हर्बर्टसन के अनुसार, प्राकृतिक प्रदेशों का मुख्य आधार प्रायः उनकी प्राकृतिक वनस्पति है जो बहुत कुछ अंशों में जलवायु के भेद पर निर्भर है।
प्रादेशिक पद्धति का अर्थ- इस पद्धति के अन्तर्गत हम एक राजनैतिक इकाई को लेकर नहीं चलते वरन् एक सी प्राकृतिक दशा, घरातल, जलवायु एवं प्राकृतिक वनस्पति वाले प्रदेशों को एक साथ लेकर उनका अध्ययन छात्रों को कराते हैं।
1. प्रत्येक प्राकृतिक विभाग का कुछ निश्चित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जाता है। ये शीर्षक निम्नलिखित हैं। इन्हीं शीर्षकों के आधार पर प्रादेशिक पद्धति द्वारा भूगोल शिक्षण कराया जाता है।
2. प्रादेशिक पद्धति से तात्पर्य है— सारे विश्व को विभिन्न प्राकृतिक प्रदेशों में विभक्त करना
प्रादेशिक शीर्षक एवं भूगोल शिक्षण
1. स्थिति-
(i) उस प्रदेश का संसार में क्या स्थान है ? किसी प्रसिद्ध देश से सम्बन्ध एवं उसके चारों तरफ बसे हुये देश ।
(ii) अक्षांश तथा देशान्तर के अनुसार स्थिति, भूमध्य रेखा, कर्क व मकर रेखा से दूरी ।
2. प्राकृतिक रचना- पहाड़ी और मैदान भाग, प्रमुख नदियाँ एवं उनका प्रवाह क्षेत्र। मानचित्र की सहायता से ये बातें छात्रों से निकलवायी जायें।
3. पाठ्य प्रदेश- इसकी स्पष्ट व्याख्या और सीमायें निर्धारित करना, जैसे ‘गर्म रेगिस्तान’ की स्थिति व सीमा निर्धारित करना।
4. जलवायु– जनवरी और जुलाई की समताप रेखायें वायुभार एवं वर्षा का अध्ययन छात्रों से मानचित्र बनवाये जायें। स्थिति और रचना से तापमान व वायुभार का सम्बन्ध जोड़ा जाय, और इस प्रकार छात्र कार्य-कारण के आधार पर जलवायु को बतायें।
5. क्षेत्रफल–कितना है ? ग्राफ पेपर की सहायता से निकलवाया जाय।
6. पशु – जलवायु व प्राकृतिक वनस्पति का जीवधारियों पर प्रभाव पड़ता है। पालतू व जंगली पशुओं का ज्ञान छात्रों को देना चाहिये। इन पशुओं के चित्र भी अध्यापक को छात्रों को दिखाने चाहियें।
7. मानवीय और आर्थिक भूगोल व्यापार, उद्योग-धन्धे, जनसंख्या, नगर, यातायात के साधन आदि इसी शीर्षक के का अध्ययन छात्रों को कराना चाहिये। नगरों अन्तर्गत आते हैं। वनस्पति, उपज तथा खनिज पदार्थों पर आश्रित उद्योग-धन्धों के रेखाचित्र, आयात-निर्यात के रेखाचित्र छात्रों से खिंचवाने चाहियें।
8. वनस्पति-प्राकृतिक रचना व जलवायु को सम्बन्धित करते हुए उस प्रदेश की प्राकृतिक वनस्पति का अध्ययन बालकों से कराना चाहिए। इसके लिए प्राकृतिक वनस्पति के मानचित्र की सहायता ली जा सकती है। छात्रों से भी वैसा ही मानचित्र बनाने को कहा जाय।
9. खनिज सम्पत्ति— विभिन्न खनिजों का महत्व क्या है और वे कहाँ पाये जाते हैं ? छात्रों से मानचित्र की सहायता से इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने चाहिएँ। मानचित्र का अध्ययन विकसित करने के लिए छात्रों से खनिज सम्पत्ति के मानचित्र बनवाये जायें।
उपर्युक्त शीर्षकों का अध्ययन एकत्र रूप से नहीं किया जाता है। लगभग सभी शीर्षकों को मानवीय एवं आर्थिक भूगोल से सम्बद्ध कर दिया जाता है। जैसे-भूमि की बनावट किस प्रकार मानवीय क्रियाओं को प्रभावित कर देती है ? किस प्रकार तापक्रम तथा शीत मानव शरीर पर प्रभाव डालते हैं ? किस प्रकार प्राकृतिक वनस्पति उस प्रदेश के निवासियों के उद्योग-धन्य को निश्चित करती है ? इस प्रकार भूगोल का अध्यापक किसी प्रदेश की स्थिति, धरातल की बनावट, जलवायु, उपज, पशु आदि का मानवीय क्रियाओं की व्याख्या करने के उद्देश्य से करता है। यही विधि प्रादेशिक विधि कहलाती है।
इस प्रकार भौगोलिक वातावरण के बारे में ज्ञान प्राप्त करके उस प्रदेश के मानवीय तथा आर्थिक भूगोल का अध्ययन कर लिया जाता है।
इस विधि के द्वारा भूगोल के लम्बे पाठ्यक्रम को मौखिक विधि से सीमित समय में आसानी से समाप्त किया जा सकता है। साथ ही इस मौखिक विधि से पढ़ाने में अध्यापक को भी स्वतन्त्रता रहती है। मौखिक विधि के द्वारा बालक निष्क्रिय न हो जायें। इसके लिये अध्यापक बार-बार प्रश्न करके, मानचित्र तथा एटलस की ओर ध्यान आकृष्ट करके तथा टिप्पणियाँ लिखाकर बालकों की पाठ में रुचि बनाये रखता है। बीच-बीच में जिन उपशीर्षकों के लिये मानचित्र भरना हो, उन्हें भरवाना चाहिये। शीर्षकों से सम्बन्धित सारांश को श्यामपट पर लिख देना चाहिये। छोटी कक्षाओं में श्यामपट- सार पूरे वाक्यों में देना चाहिये। उच्च कक्षाओं में यह आवश्यक नहीं है कि श्यामपट पर पूरे वाक्यों में लिखा जाय।
प्रादेशिक विधि छोटी कक्षाओं में सफल नहीं हो सकती, परन्तु निम्न माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर पर यह एक श्रेष्ठ प्रणाली है।
गुण
1. यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है। शिक्षक ज्ञात से अज्ञात की ओर अग्रसर होता है।
2. विभिन्न भौगोलिक तथ्यों, जैसे- प्राकृतिक दशा, जलवायु, वनस्पति, खनिज, मानव आदि उपशीर्षकों में लाकर एक क्रम में बाँधे जा सकते हैं। इस प्रकार भौगोलिक अध्ययन क्रमिक ढंग से होता है।
3. इस विधि के द्वारा भौगोलिक नियन्त्रण का मानव जीवन पर प्रभाव भली-भाँति समझा जा सकता है।
4. समय एवं शक्ति की बचत होती है। ‘भूमध्य रेखीय’ नामक एक प्राकृतिक प्रदेश का अध्ययन करने के पश्चात् छात्र उसके सामान्य भूगोल को समझ जाते हैं और अमेजन, बेसिन, कांगो बेसिन एवं पूर्वी द्वीप समूह को अलग-अलग पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है।
5. छात्रों में अपने वातावरण को समझने की योग्यता का विकास होता है। बालक अपने स्थानीय प्रदेश का अध्ययन करने के बाद दूसरे पड़ौसी राज्यों के प्राकृतिक प्रदेशों का अध्ययन करता है, तब वह अपने भौगोलिक, प्राकृतिक और सामाजिक वातावरण को अच्छी तरह जान लेता है।
6. यह वैज्ञानिक विधि है, क्योंकि तथ्यों से पूर्व ‘कारणों’ पर जोर दिया जाता है। छात्र प्रत्येक बात को कारण सहित जानने का प्रयत्न करता है।
7. इस विधि में छात्रों को व्यक्तिगत कार्य करने का अवसर मिलता है।
8. छात्र भूगोल के अध्ययन में रुचि लेते हैं, क्योंकि यह विधि प्राकृतिक व मानवीय भूगोल में समन्वय स्थापित करती है।
दोष
1. किसी भी प्राकृतिक प्रदेश की निश्चित सीमायें पूर्णतया नहीं हैं। इसलिये उनका वर्णन अनिश्चित एवं अपूर्ण रहता है।
2. यह विधि लघु कक्षाओं में नहीं अपनाई जा सकती है, क्योंकि छात्रों का मानसिक विकास कार्य कारण सम्बन्ध को समझने के योग्य नहीं होता है।
3. यह विधि केवल उसी समय अपनाई जा सकती है, जबकि छात्र पहले कुछ भौगोलिक तथ्यों एवं सामान्य विचारों को जान लें।
4. एक प्राकृतिक प्रदेश का अध्ययन करने के पश्चात् दूसरे प्राकृतिक प्रदेश में भी लगभग एक-सी ही बातें छात्र पढ़ते हैं, इसलिये तथ्यों की पुनरावृत्ति उनकी रुचि को कम कर देती है।
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