बिहारी की नायिकाओं के रूपसौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
बिहारी ने अपने सौन्दर्य वर्णन में नायक की अपेक्षा नायिका को अधिक महत्व दिया है। नायिका क्रियायें, प्रति क्रियायें, प्रेम क्रीड़ायें, अदाएं, मुद्राएं, चेष्टाएं, नख सिख सौन्दर्य तथा आभूषण आदि का बिहारी ने जमकर वर्णन किया है। बिहारी ने अपने सौन्दर्य वर्णन में रीतिकाल की एवं रीतिकाल के पूर्व की समस्त शैलियों को अपनाया है। उन्होंने नखसिख वर्णन से लेकर प्रभावात्मक आलंकारिक और घरेलू वातावरण तक के चित्र खींचे हैं। वस्तुतः उनका सौन्दर्य अत्यन्त रूचिकर और प्रभावशाली है। नायिकाओं के सौन्दर्य वर्णन में नख-शिख वर्णन, उसकी चेष्टाओं का वर्णन, हाव-भाव मुद्राओं का वर्णन समाहित है।
बिहारी रीतिकालीन कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं। उनकी ‘सतसई’ रचना में शृंगार का प्राबल्य पूर्ण सफलता के साथ दृष्टिगोचर होता है। भावों एवं अनुभावों के चित्रण में कोई भी कवि उनकी समानता नहीं कर सकता है। शृंगार रस के वर्णन में कवि ने नायिका के भेद, नखशिख वर्णन आदि को भी प्रस्तुत किया है।
नायिकाओं के अनुभावों का सूक्ष्म चित्रण निम्नलिखित दोहे में दृष्टव्य है-
“बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सहि करै, भहिनि हँसै, दैन कहै नटि जाय ॥”
नखशिख वर्णन में कवि ने नायिकाओं के विभिन्न शरीरावयवों का बड़ा ही से चित्रण किया है। मुख, नेत्र, दन्त, कपोल, कुच, नितम्ब, कटि आदि सभी अंगों का वर्णन हुआ है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-
नेत्र वर्णन-
चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट पट मीन।
मानहुँ सुरसरिता विमल जल उछरत दृग मीन ॥
कुच वर्णन-
ज्यौं ज्यौं जीवन जेठदि कुच मिति अति अधिकानि।
त्यौं त्यौं छिन छिन कटि छपा छीन परित सी जानि॥
नखशिख वर्णन का जहां तक प्रश्न है बिहारी ने इसका भी अत्यन्त ही उत्कृष्ट चित्रण ने किया है। साथ ही अंगों में आभूषणों की छटा का भी चित्रण किया है। अन्तर्गत भावों को मुख ही व्यक्त करता है तथा मुख में नेत्र ही सबसे प्रधान अंग है इसलिये नेत्रों का वर्णन सर्वत्र अधिक मिलता है। बिहारी में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है, जिन्होंने दृष्टि, संचार, हृदय को देखने की प्रक्रिया, चंचलता और विशाल होने आदि का भली भांति चित्रण किया है। जैसे-
पहुँचति इति रन सुभट लौं, रोकि सकै सब नाहि ।
लाखन हूं की भीर मैं, आँखि उहीं चलि जाहिं।
यहाँ एक अन्य उदाहरण दिया जाता है जिसमें रस अलंकार के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
अनियारे दीरघ दुगनु, किती न तखन समान।
वह चितवनि और कछु, जिहि बस होत सुजान ॥
बिहारी ने अपने वर्णन में सभी प्रकार की सामग्री का प्रयोग किया है जैसे उनके बिन्दी, मेंहदी आदि का समावेश हुआ है। यह उसके विभाव पक्ष के अन्तर्गत आता है। साथ ही आलम्बन की चेष्टाओं का वर्णन जहां भी मिलता है, वह उद्दीपन के रूप में आया है। इनके शृंगार में बाहरी उद्दीपनों की भी सहायता ली गयी है। इसलिये ऋतु वर्णन तथा चन्द्रमा, पवन आदि का वर्णन उद्दीपन की दृष्टि से आया है। कहीं-कहीं ऋतुओं का वर्णन स्वतंत्र रूप से भी किया गया है। जैसे बसन्त ऋतु का एक वर्णन देखिये-
छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधुरी गंध।
ठौर-ठौर झौरत झपत, भौरि भौर मधु अन्ध॥
बसन्त ऋतु में खिले हुए पुष्पों के माध्यम से तथा वर्षा के जल आदि के माध्यम से अनेकों उक्तियों का समावेश किया गया है। सुकुमारिता और सौन्दर्य के चित्रण में बिहारी अपना सानी नहीं रखते हैं। नायिका के मुख के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए बिहारी एक स्थान पर यह कहते हैं कि-
पत्रा की तिथि पाइयै, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहत, आनन-ओप-उजास ॥
इस प्रकार बिहारी ने नायिकाओं के रूप सौन्दर्य के चित्रण में अपनी कुशलता एवं परिपक्वता का परिचय दिया है।
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