बिहारी ने शृंगार, वैराग्य एवं नीति का वर्णन एक साथ क्यों किया है? स्पष्ट कीजिए।
बिहारी रीतिकालीन कवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय रहे हैं। उनको विशाल जीवनानुभव, कल्पना की समाहार शक्ति, भाषा की समास शक्ति, सामन्तकालीन परिवेश के अनुरूप रचना चातुर्य ने उनकी रचना को अमर बना दिया है। उनका कवित्व आचार्यत्व की पृष्ठभूमि पर पोषित एवं पल्लवित हुआ था। हिन्दी में उनका वही स्थान है जो अंग्रेजी साहित्य में बायरन और संस्कृत साहित्य में अमरूक का है। बिहारी का विशाल जीवनानुभव ही एक मात्र कारण है जिसके आधार पर उन्होंने शृंगार, वैराग्य एवं नीति का वर्णन एक साथ किया है। आचार्य पदमसिंह शर्मा ने उनके विषय में लिखा है “ब्रजभाषा के साहित्य में बिहारी सतसई का दर्जा बहुत ऊंचा है। अनूठे भाव और उत्कृष्ट काव्य गुणों की यह खान है, व्यंग्य एवं ध्वनि का आकार है। संस्कृत कवियों में कविकुल गुरू कालिदास जिस प्रकार शृंगार रस का वर्णन, प्रसाद गुण और उपमा अलंकार के कारण सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं, उसी प्रकार हिन्दी कवियों में महाकवि बिहारी लालजी का आसन सबसे ऊँचा है।
बिहारी ने अपनी एकमात्र रचना में विविध प्रकार के जीवन चित्रों को समाविष्ट करने का प्रयास इसलिए भी किया है, क्योंकि जिस परिवेश में उन्होंने काव्य रचना का शुभारम्भ किया, उसमें सामन्तीय परिवेश और राजकीय वैभव एवं विलासिता अधिक थी, अस्तु दोहे छन्द को सर्वथा उपयुक्त मानकर उन्होंने काव्य रचना का शुभारम्भ किया। कविवर बिहारी ने अपने एक दोहे से जयपुर नरेश की अपनी नई रानी के प्रति आसक्ति भाव को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित दोहा लिखकर भेजा था-
“नहिं पराग नहिं मधुर मधु- नहिं विकास इहिकाल
अली कली ही सों बिध्यों, आगे कौन हवाल॥”
इनकी भक्ति-भावना राधा कृष्ण की है। उनकी सतसई में अनेक स्थल हैं, जो उनकी भक्ति-भावना के परिचायक हैं
“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झाँई परै, स्याम हरित दुति होई॥”
कृष्ण के रूप को हृदय में बसाने की लालसा इस दोहे में बड़े ही सुन्दर ढंग से व्यक्त हुई हैं।
“मोर मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसो, सदा बिहारी लाल ॥”
बिहारी संसार की असारता पर विचार करते हुए ईश्वर शरण में समर्पित होते है-
“जप माला छापा तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचे नाचै वृथा साँचे राँचै रामु ॥
इसी प्रकार नीति परक दोहे की भी रचना बिहारी ने की है। यथा-
बढ़तु बढ़तु सम्पत्ति सलिलु, मन-सरोज बढ़ जाय।
घटतु घटतु पुनि न घटे, वरू समूल कुम्हिलाय ॥
इनका विशाल जीवनानुभव, जागरूकता और श्रम साध्यता भाषा की सामाजिक शक्ति, उर्वर कल्पना आदि ऐसे कारण हैं जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि बिहारी ने शृंगार, वैराग्य और नीति का वर्णन एक साथ किया है।
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