उत्तर वैदिक या ब्राह्मणीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करते हुए। इसके गुण एवं दोषों की चर्चा कीजिए।
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ब्राह्मणीय शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य, विशेषताएँ, गुण एंव दोष
उत्तर वैदिक कालीन शिक्षा का आधार पूर्ण रूप से धार्मिक था। धर्म के माध्यम से मानव का आध्यात्मिक विकास करते हुए उसे मोक्ष प्राप्ति के योग्य बना देना ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य था। समय के साथ-साथ उत्तर वैदिककाल तक समाज में अनेक बुराइयों ने जन्म लिया जिसके परिणाम स्वरूप शिक्षा के स्वरूप में भी परिवर्तन हुए। इस युग में यज्ञ, हवन, कर्म कांण्ड और बाहरी आडम्बरों का चलन बहुत बढ़ गया । ब्राह्मणों को समाज में बहुत उच्च स्थान मिलने लगा और उन्हें पुरोहित के नाम से पुकारा जाने लगा। ब्राह्मणों ने बाहरी आडम्बरों के माध्यम से जनसाधारण को इस तरह भूल-भूलैया में डाल दिया कि ब्राह्मण के वाक्य को ही ब्रह्म वाक्य माना जाने लगा। समाज की सभी गतिविधियाँ व क्रियाकलाप ब्राह्मणों के निर्देशानुसार ही सम्पन्न होने लगे। इसी युग में पुरोहित प्रणाली का जन्म हुआ और इसी युग में उपनिषद, आरण्यक, ब्राह्मण आदि ग्रन्थों की रचना हुई। समाज की इन बदलती परिस्थितियों ने शिक्षा को भी प्रभावित किया और शिक्षा के उद्देश्यों में भी स्पष्ट परिवर्तन दिखायी दिये।
ब्राह्मणीय शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य
ब्राह्मण युग की शिक्षा व्यवस्था के कुछ प्रमुख उद्देश्य थे- ब्राह्मण ग्रन्थों का पढ़ना लिखना व उन पर अनुकरण करना, इस युग में भी शिक्षा में धर्म को विशेष महत्व दिया गया था। इस युग में भी धर्म के आधार पर ही चरित्र निर्माण शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य स्वीकार किया गया था। संस्कृति के संरक्षण को भी शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों में सम्मिलित किया गया था। व्यक्ति का नैतिक उत्थान करना और उसके व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करना भी शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य था।
ब्राह्मणीय शिक्षा की विशेषताएँ
संक्षेप में इस समय की शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्न थीं-
(1) उपनयन संस्कार- वैदिक कालीन शिक्षा की ही भाँति उत्तर वैदिक या ब्राह्मणीय काल में भी उपनयन संस्कार का चलन था। इस संस्कार को सम्पन्न कर लेने के बाद ही बच्चों को गुरुकुलों में शिक्षा के लिए भेजा जाता था। उपनयन संस्कार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में क्रमश: आठ, ग्यारह और बारह वर्ष की आयु में सम्पन्न होता था और उसके पश्चात् ही छात्रों की विधिवत् शिक्षा प्रारम्भ होती थी।
(2) ब्रह्मचर्य उपनयन संस्कार के पश्चात् जब बालक को गुरुकुलों में भेजा जाता था तो बालकों को ब्रह्मचर्य की शपथ लेनी होती थी और बालकों को गुरुकुलों में रहते हुए ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन करना होता था।
(3) धार्मिक शिक्षा- इस युग में शिक्षा का प्रमुख आधार धर्म ही था लेकिन इस युग की शिक्षा की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि बहुत से धार्मिक कर्मकाण्डों को भी शिक्षा में सम्मिलित कर लिया गया था।
(4) पाठ्यक्रम- इस समय की शिक्षा के पाठ्यक्रम में धार्मिक क्रिया-कलापों की शिक्षा के साथ-साथ नैतिक शिक्षा, ब्रह्म विद्या, देव विद्या, शस्त्र विद्या, नक्षत्र विद्या, व्याकरण, बीजगणित और औषधि विज्ञान को भी सम्मिलित किया गया था।
(5) शिक्षण विधि- वैदिक कालीन शिक्षा की भाँति इस युग में भी मौखिक विधि द्वारा ही छात्रों को शिक्षित किया जाता था। गुरुओं द्वारा बतायी गयी सभी बातों को छात्रों को कण्ठस्थ करना होता था।
(6) शिक्षा संस्थाए- वैदिक युग की ही भाँति इस युग के शिक्षा संस्थान गुरुकुल, परिषद, चरण आदि थे। इस समय तक्षशिला और मिथिला नामक दो प्रमुख विश्वविद्यालय थे। शिक्षा का प्रमुख स्थान बनारस था।
(7) व्यावसायिक शिक्षा- इस काल में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा का भी प्रावधान किया गया था। धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सैन्य शिक्षा, वाणिज्य शिक्षा और चिकित्सा सम्बन्धी शिक्षा भी बालकों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित थी। छात्रों को कृषि एवं पशुपालन के बारे में भी उचित ज्ञान दिये जाने की व्यवस्था थी।
शिक्षा की उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर ब्राह्मणीय युग की शिक्षा व्यवस्था के कुछ प्रमुख गुण स्पष्ट होते हैं, जिन्हें हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं।
ब्राह्मणीय शिक्षा के गुण
(1) धर्म में विश्वास- इस समय की शिक्षा में धर्म का विशेष महत्व था और गुरुकुलों का वातावरण पूर्ण रूप से धार्मिक क्रिया-कलापों से ओत-प्रोत होता था।
(2) व्यक्तित्व का विकास- इस समय की शिक्षा व्यवस्था में छात्रों के व्यक्तिगत एवं सन्तुलित विकास पर विशेष बल दिया जाता था। उन्हें आत्म सम्मान, आत्म निग्रह और आत्म विश्वास की भावनाओं से ओत-प्रोत करने का पूर्ण प्रयास गुरुओं द्वारा किया जाता था।
(3) सामाजिक भावना का विकास- छात्रों में सामाजिक भावना का विकास इस युग की शिक्षा का एक महत्वपूर्ण गुण था। छात्रों को सामाजिक कर्त्तव्यों का ज्ञान कराया जाता था। उन्हें व्यक्तिगत स्वार्थों को त्यागने और सामाजिक कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। समाज सेवा के महत्व को उन्हें समझाया जाता था तथा सेवा की भावना को प्रोत्साहित किया जाता था ।
(4) व्यावसायिक शिक्षा- इस काल में शिक्षा व्यवस्था का प्रमुख गुण यह भी था कि इस समय की शिक्षा में उद्योग-धन्धों एवं कृषि पशुपालन के विषय में भी छात्रों को ज्ञान दिया जाता था। यही कारण है कि इस काल में उद्योग-धन्धों एवं कृषि का अत्यधिक विकास सम्भव हुआ।
(5) चरित्र निर्माण- इस समय की शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख विशेषता बालकों के चरित्र निर्माण में विशेष रुचि लेना था। गुरुओं द्वारा बालकों के चरित्र के निर्माण के लिए विशेष प्रयास किये जाते थे और इसी दिशा में उन्हें शिक्षित करने का प्रयास किया जाता था।
(6) निःशुल्क शिक्षा शिक्षा का बोझ माता-पिता को सहन नहीं करना पड़ता था बल्कि गुरुकुल में गुरुओं के द्वारा छात्रों के रहने और भोजन आदि की व्यवस्था की जाती थी। केवल शिक्षा की समाप्ति पर छात्रों द्वारा गुरुदक्षिणा के रूप में कोई भेंट गुरु को देनी होती थी।
(7) आदर्श दैनिक जीवन- गुरुकुल में रहते हुए छात्रों को अपने गुरुओं की देख-रेख में एक आदर्श दैनिक जीवनचर्या का पालन करना होता था। छात्र अपने गुरुओं को आदर्श मानते हुए उन्हीं के आचरण का अनुकरण कर अपनी दैनिक जीवनचर्या को पूर्ण करते थे।
(8) आत्म अनुशासन पर बल- जहाँ तक अनुशासन का प्रश्न है इस काल में शिक्षा के दौरान गुरुओं द्वारा किसी प्रकार के शारीरिक दण्ड का प्रयोग आम तौर पर नहीं किया जाता था।
(9) गुरु शिष्य सम्बन्ध- गुरु और शिष्यों के बीच आपसी सम्बन्ध बहुत ही सौहार्द पूर्ण एवं प्रेमपूर्ण हुआ करते थे। गुरुओं को शिष्यों का अध्यात्मिक पिता माना जाता था। गुरु छात्रों के साथ भेद-भाव रहित पुत्रवत् व्यवहार करते थे।
(10) स्त्री शिक्षा – यद्यपि इस काल में स्त्री को शिक्षा से वंचित करने के प्रयास किये गये फिर भी शिक्षा उच्च वर्ग की स्त्रियों के लिए उपलब्ध थी। स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार की परिपाटी उस समय तक तो विद्यमान रही लेकिन बाद में स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार को समाप्त कर दिया गया।
ब्राह्मणीय शिक्षा के दोष
ब्राह्मणीय शिक्षा के प्रमुख दोष इस प्रकार हैं-
(1) धर्म पर अत्यधिक बल- इस समय की शिक्षा व्यवस्था में धर्म पर अत्यधिक बल दिया जाने के कारण लौकिक शिक्षा का महत्व कम हो गया था। धार्मिक कर्म काण्डों की प्रधानता बढ़ गयी थी। और छात्रों का अधिकतर समय इन्हीं कर्म काण्डों को करने में व्यतीत होने लगा था।
(2) शूद्रों की उपेक्षा- इस काल की शिक्षा व्यवस्था का एक बड़ा दोष यह था कि इस युग में शूद्र को शिक्षा से बिल्कुल वंचित कर दिया गया और उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाने लगा।
(3) स्त्री शिक्षा का पतन- ब्राह्मणीय युग ही वह युग है जिसमें स्त्री शिक्षा का पतन हुआ। ऊँची जाति की स्त्रियां तो किसी तरह शिक्षा का लाभ उठाती रहीं किन्तु निम्न वर्ग की स्त्रियों को शिक्षा पाने से बिल्कुल ही वंचित कर दिया गया। स्त्रियों का कार्य घर में रहकर घर का काम-काज करना और बच्चों की देखभाल करने तक ही सीमित हो गया। इस प्रकार इस युग ने समाज की आधी आबादी को शिक्षा से वंचित कर दिया।
(4) जातिवाद का महत्व ब्राह्मणीय शिक्षा के इस युग ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को समाज में स्थापित किया और जाति स्तर में ब्राह्मणों को उच्च स्तर पर रखा। व्यक्तियों के कार्यों का निर्धारण भी जाति के आधार पर होने लगा। अब व्यक्ति को जन्म के आधार पर किसी एक जाति के कार्यों को करना होता था। जबकि वैदिक काल में कार्यों के आधार पर उसका वर्ण निर्धारित होता था।
(5) लोक भाषाओं की उपेक्षा- इस युग में संस्कृत को बहुत महत्व दिया गया। सभी धार्मिक कर्म-काण्डों व धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन संस्कृत भाषा में ही किया जाता था। संस्कृत भाषा के इस महत्व के कारण अन्य लोक भाषाओं की प्रगति रुक गयी।
उपरोक्त के आधार पर संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा का ब्राह्मणीय युग अच्छा युग नहीं था। इस युग में शिक्षा के क्षेत्र में गिरावट आयी और शिक्षा की प्रगति अवरुद्ध हुई।
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