राजनीति विज्ञान / Political Science

भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था के लक्षण

भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था के लक्षण
भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था के लक्षण

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भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था के लक्षण (Federal and Unitary System in the Indian Constitution)

भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक व्यवस्था के लक्षण- भारतीय संविधान में संघात्मक व एकात्मक दोनों ही प्रकार के तत्वों का सम्मिश्रण है। इसका पृथक्-पृथक् विश्लेषण निम्नवत् किया जा सकता है-

भारतीय संविधान में संघात्मक व्यवस्था

अधिकांश आलोचकों का यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या भारत का संविधान वास्तव में संघात्मक है? इस प्रश्न का उत्तर विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से दिया है। इस प्रश्न पर विचार प्रकट करने से पहले यह आवश्यक प्रतीत होता है कि संघात्मक संविधान के अर्थ तथा उसके आवश्यक लक्षणों को भली प्रकार समझ लिया जाये-

फ्रीमैन के अनुसार, “संघात्मक सरकार वह है जो दूसरे राष्ट्रों के साथ सम्बन्ध में एक राज्य के समान हो परन्तु आन्तरिक शासन की दृष्टि वे वह अनेक राज्यों का योग हो।” प्रो. डायसी के अनुसार, “संघ एक राजनीतिक योजना है, जिसका उद्देश्य राज्यों के अधिकारों तथा राष्ट्रीय एकता के बीच समन्वय स्थापित करना है।” गार्नर के अनुसार, “संघ सरकार सामान्य प्रभुत्व के अधीन संयुक्त केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारों की एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्रीय तथा स्थानीय सरकारें अपने-अपने निश्चित क्षेत्र में सर्वोच्च होती हैं और उनके क्षेत्र संविधान द्वारा अथवा उस व्यवस्था को जन्म देने वाली संसद के अधिनियम द्वारा निर्धारित होते हैं।”

संघ के आवश्यक लक्षण- प्रो. डायसी तथा अन्य विद्वानों के अनुसार संघ के निम्नलिखित लक्षण होते हैं

(1) लिखित संविधान ।

(2) संविधान की सर्वोच्चता तथा अपरिवर्तनशीलता ।

(3) स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष न्यायपालिका |

(4) केन्द्र तथा इकाई सरकारों के बीच कार्यकारिणी तथा विधायी शाक्तियों का संवैधानिक विभाजन ।

उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर अब यह देखना है कि भारत के संविधान में संघात्मक लक्षण कहाँ तक विद्यमान हैं। भारत के संविधान में निम्नलिखित संघात्मक लक्षण मौजूद हैं-

(1) लिखित संविधान

संघ सरकार का प्रथम लक्षण यह है कि संविधान लिखित होना चाहिए। संघ सरकार एक समझौते का परिणाम होती है, जिसमें एक ओर इकाई राज्य तथा दूसरी ओर संघ सरकार होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि दोनों सरकारों के क्षेत्राधिकार, अधिकार और संगठन को स्पष्ट और निश्चित रूप दिया जाय, जिससे झगड़े की सम्भावना न रहे। यह सब लिखित संविधान द्वारा ही सम्भव हो सकता है।

(2) सर्वोच्च न्यायालय

संघात्मक शासन व्यवस्था में केन्द्र तथा राज्यों के झगड़े निपटाने के लिए एक सर्वोच्च संघीय न्यायालय का होना अनिवार्य है। भारत के संविधान ने भी सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की है जो केन्द्र तथा राज्यों के आपसी झगड़ों का निपटारा करता है और संविधान की रक्षा करता है। संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी सर्वोच्च न्यायालय को है। है

(3) संविधान की सर्वोच्चता

संघात्मक शासन व्यवस्था में न तो केन्द्र सरकार सर्वोच्च होती है और न इकाइयाँ ही। दोनों ही इकाइयाँ संविधान द्वारा निर्धारित क्षेत्रों में कार्य करती हैं। दोनों को संविधान से शक्ति प्राप्त होती है कोई भी एक-दूसरे के क्षेत्र अथवा शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकती। कहने का अभिप्राय यह है कि ऐसी व्यवस्था में संविधान सर्वोच्च होता है तथा उसी के द्वारा निर्धारित क्षेत्रों में केन्द्र तथा इकाइयों की सरकारें कार्य करती हैं। हमारी व्यवस्था में भी संविधान सर्वोच्च है।

(4) केन्द्र तथा राज्यों में शक्तियों का विभाजन

संघात्मक संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्ति का स्पष्ट विभाजन रहता है। भारत के संविधान में भी केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया गया है। शासन के विषयों को तीन सूचियों में बाँटा गया है—संघ सूची, राज्य सूची के विषयों पर राज्यों का अधिकार है और समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र तथा राज्य दोनों का अधिकार है।

(5) संशोधन प्रक्रिया

भारतीय संविधान में संशोधन प्रणाली पूर्णतया संघात्मक प्रक्रिया के अनुरूप है। कुछ संशोधनों में आधे से अधिक राज्यों के विधान-मण्डलों के संकल्प द्वारा स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है।

भारतीय संविधान की एकात्मक व्यवस्था

भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षण निम्न प्रकार हैं-

(1) इकहरी नागरिकता

भारतीय संविधान में दोहरी नागरिकता के स्थान पर इकहरी नागरिकता की व्यवस्था की गई है। हमारे देश के सभी नागरिक भारतीय संघ के नागरिक माने जाते हैं। अमेरिका की संघीय व्यवस्था में नागरिकों को संघ तथा राज्यों की पृथक्-पृथक् नागरिकता प्राप्त है। संविधान के निर्माण के समय दोहरी नागरिकता के विचार को त्याग देना इस बात का प्रतीक है कि हमारे संविधान निर्माता भारत को अमेरिका अथवा स्विटजरलैण्ड जैसी संघीय व्यवस्था बनाने के पक्ष में नहीं थे।

(2) शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना

नये संविधान में केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था, “मैं एक शक्तिशाली केन्द्र के पक्ष में हूँ। यह सन् 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्र से भी अधिक शक्तिशाली होगा।”

केन्द्र को शक्तिशाली बनाने के लिए संविधान में अनेक प्रावधान किये गये हैं। संघ की कार्यपालिका शक्ति की प्रधानता स्थापित कर दी गई है। संघ राज-वित्त पर भी अत्यधिक नियन्त्रण प्राप्त है। संसद को राज्यों की सीमाओं को परिवर्तित करने का अधिकार है। संसद राज्यों के काम बदल सकती है, जैसा कि सन् 1956 में किया गया। अतः राज्यों के अस्तित्व की वह गारंटी नहीं है, जो अमेरिका में पाई जाती है।

(3) शक्तियों का वितरण केन्द्र के पक्ष में

संविधान में शक्तियों का वितरण इस प्रकार किया गया है कि केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तियाँ दी गई हैं। इस सम्बन्ध में के. एन. पणिक्कर (K. N. Panikkar) का कहना है कि, “भारत के नये संविधान में संघीय सिद्धान्तों को क्षीण कर दिया गया है और केन्द्रीय सत्ता को शाक्तिशाली बनाया गया है। केन्द्र और इकाइयों की समान शक्तियों का सिद्धान्त भारतीय संघ पर लागू नहीं होता है, क्योंकि इसके अन्तर्गत केन्द्र को असाधारण शक्तियाँ प्रदान की गई हैं और प्रान्तों की स्थिति अधीनस्थ इकाइयों की सी हो गई है।”

संविधान के निम्नलिखित उपबन्ध केन्द्र की स्थिति को अधिक सुदृढ़ करते हैं-

(i) संविधान में 3 विषय सूचियाँ हैं-संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। संघ सूची में 97 विषय हैं और इन पर केवल संघीय संसद ही कानून बना सकती है। राज्य सूची में केवल 66 विषय ही रखे गये हैं। समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर संसद तथा राज्य के विधान-मण्डलों को कानून बनाने का समान अधिकार प्राप्त है, परन्तु दोनों में संघर्ष की अवस्था में संसद द्वारा बनाया गया कानून ही मान्य समझा जायेगा।

(ii) जिन विषयों का वर्णन उपर्युक्त 3 सूचियों में नहीं है अर्थात् अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers) भी केन्द्र के पास हैं।

(iii) संसद कई तरह से राज्य सूची (State list) के विषयों पर भी कानून बना सकती है। संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि संसद का दूसरा भवन अर्थात् राज्य सभा दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पास कर दे कि कोई विषय राज्य सूची में है, जो राष्ट्रीय महत्व से का है तो संसद को उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार होगा (एक बार में एक वर्ष के लिए)।

(iv) दो या दो से अधिक राज्यों के विधान-मण्डलों की प्रार्थना पर भी संसद उन राज्यों के लिए कानून बना सकेगी।

(v) संविधान की धारा 253 के आधार पर संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि संसद किसी भी देश के साथ की गई सन्धि अथवा समझौते के अनुपालन के लिए कानून बना सकती है। भले ही इस प्रकार के कानून का सम्बन्ध राज्य सूची से ही क्यों न हो।

(4) राष्ट्रपति राज्यपालों की नियुक्ति करता है

संविधान के अनुसार, राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त तक राज्यपाल अपने पद पर बने रहते हैं, परन्तु अमेरिका की संघात्मक सरकार में राज्यों के राज्यपालों का राज्य की जनता द्वारा निर्वाचन होता है। अतः वे केन्द्र के दबाव में नहीं रहते।

(5) केन्द्र तथा राज्यों के लिए एक ही संविधान

अमेरिका में राज्यों को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार है, परन्तु भारत में इस प्रकार का अधिकार राज्यों को नहीं है। केन्द्र तथा राज्यों का एक ही संविधान है। राज्यों को संघ से सम्बन्ध विच्छेद करने का अधिकार नहीं है।

(6) संकटकाल में शासन का एकात्मक रूप

संकटकाल में भारतीय संविधान का संघात्मक रूप एकात्मक में बदला जा सकता है। संकटकाल में राष्ट्रपति देश का शासन अपने हाथ में ले सकता है। इसमें राज्यों की स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है और संघ का स्वरूप एकात्मक हो जाता है।

(7) नये राज्यों के निर्माण व सीमाओं में परिवर्तन करने का अधिकार केन्द्रीय संसद को है

संविधान के अनुसार संसद को राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन, नये राज्यों का निर्माण तथा राज्यों के नाम बदलने का अधिकार है।

(8) वित्त पर केन्द्र का नियन्त्रण

राज्यों के वित्त पर भी केन्द्रीय नियन्त्रण है। कई प्रकार के कर, राज्यों में संघ सरकार द्वारा लगाये व वसूल किये जाते है, जिनकी आय का पूरा भाग या कुछ अंश राज्य सरकारों को संसद के कानून के अन्तर्गत दिया जाता है। जो वित्त आयोग (Finance Commission) राज्यों को घन देने की सिफारिश करता है, उस आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। स्वाभाविक है कि, वित्त पर नियन्त्रण के फलस्वरूप राज्यों की नीति तथा प्रशासन के सम्बन्ध में केन्द्र पर निर्भरता बढ़ जाती है।

(9) एक ही निर्वाचन आयोग

भारत के संविधान में समस्त भारत के लिए एक ही निर्वाचन आयोग की व्यवस्था है। इस निर्वाचन आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है। यह आयोग दोनों केन्द्रीय संसद और राज्यों के विधान-मण्डलों के निर्वाचनों का प्रबन्ध निर्देशन और नियन्त्रण करता है।

(10) राज्यों के आपसी झगड़ों का केन्द्र द्वारा निर्णय

राज्यों के आपसी झगड़ों के सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार को हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त है। इस अधिकार के अन्तर्गत राष्ट्रपति अन्तर्राज्यीय परिषद (Inter-state Councils) की स्थापना कर सकता है। परिषद् का कार्य परामर्श देना ही होगा। नदियों के जल सम्बन्धी झगड़ों का भी संसद द्वारा निपटारा किया जायेगा।

(11) संघीय लोक सेवा आयोग की व्यवस्था

सारे देश के लिए एक ही लोक सेवा की व्यवस्था की गई है। इसकी भर्ती संघीय लोक सेवा आयोग (Union Public Service Commission) के द्वारा की जाती है, परन्तु ये कर्मचारी संघ और राज्यों के महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हैं; जैसे—अखिल भारतीय प्रशासकीय सेवाएँ (I. A. S.) तथा अखिल भारतीय पुलिस सेवाएँ (I. P.S.) इन सेवाओं के माध्यम से संघीय सरकार राज्य प्रशासन को प्रभावित कर सकती है।

(12) नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक

समस्त देश में वित्तीय मामलों में एकरूपता (Uniformity in financial matters) बनाये रखने के उद्देश्य से एक नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptrollers and Auditor General) की भी व्यवस्था की गई है। यह पदाधिकारी केन्द्र तथा राज्यों की सरकारों के वित्त का निरीक्षण करता है।

(13) एक भाषा

समस्त भारत के लिए संविधान में एक भाषा (देवनागरी लिपि) हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। (यद्यपि प्रादेशिक भाषाओं को संरक्षण प्रदान किया गया है)।

(14) कानूनों की समानता

संविधान में इस बात पर भी बल दिया गया है कि समस्त देश में आधारभूत कानूनों में समानता (Uniformity) हो । दीवानी व फौजदारी प्रणाली सम्बन्धी कानून और सम्पत्ति सम्बन्धी कानून, जहाँ तक सम्भव हो, समस्त देश में एक समान में हो। इसी उद्देश्य से इन विषयों को समवर्ती सूची में रखा गया है, जिससे दोनों सरकारों के संघर्ष की दशा में केन्द्र का ही कानून माना जाये।

(15) संशोधन सरल

अन्य संघीय संविधानों की तुलना में भारतीय संघ के संविधान में संशोधान करना अधिक सरल है। इसके फलस्वरूप संविधान की वह कठोरता समाप्त हो गई है, जो संघात्मक संविधान में होनी चाहिए।

(16) राष्ट्रपति की भूमिका

राष्ट्रपति राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की भी नियुक्ति करता है। उनका स्थानान्तरण किसी भी राज्य में कर सकता है। इसके अतिरिक्त, संविधान में यह कहा गया है कि राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार होगा कि उससे संघीय कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग में कोई बाधा न पड़े।

निष्कर्ष- यद्यपि उपरोक्त बहुत से लक्षणों से पता चलता है कि भारतीय संविधान का झुकाव एकात्मक शासन की ओर है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि भारत का संविधान संघात्मक नहीं रहा। यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये तो मालूम होगा कि संसार के प्रायः सभी देशों के संघीय संविधानों में केन्द्र की शक्तियाँ बढ़ाने की प्रवृत्ति पाई जाती है। यहाँ तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जहाँ राज्यों की स्वतन्त्रता कायम रखने का पूरा प्रयत्न किया गया है। पिछले दिनों केन्द्र की शक्तियाँ राज्यों की तुलना में बढ़ गई हैं। ऐसी स्थिति में भारत के संविधान एकात्मक कहना अनुचित है। भारत का संविधान परिस्थितियों के अनुरूप है। इसमें संघात्मक तथा एकात्मक दोनों संविधानों के गुणों का समावेश है। दोनों के मध्य सन्तुलन बनाये रखने का प्रयास किया गया है।

उपरोक्त कारणों से ही अनेक विचारकों ने भारतीय शासन व्यवस्था को संघात्मक स्वीकार नहीं किया है। के. सी. ह्वेयर ने कहा है, “भारत एक एकात्मक राज्य है, जिसमें संघीय तत्व गौण है, न कि एक संघीय राज्य जिसमें एकात्मक तत्व गौण है। “

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार; “संविधान को संघात्मक के सुनिश्चित ढाँचे में नहीं ढाला गया है।

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Anjali Yadav

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