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भाषा के विविध रूप क्या हैं ?

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भाषा के विविध रूप क्या हैं ?

भाषा के विविध रूप क्या हैं ? विवेचना कीजिए।

भाषा के विविध रूप

भाषा के रूपों के आधार हैं- इतिहास, भूगोल, प्रयोग, निर्माण, मानकता और मिश्रण। भारत में कभी संस्कृत बोली जाती थी, फिर पालि बोली जाने लगी, फिर प्राकृत और फिर अपभ्रंश। इसे ऐतिहासिक रूप कहते हैं। आज परम्परागत जो ऐतिहासिक रूप आया, उसे ‘आधुनिक भारतीय आर्यभाषा’ कहते हैं, किन्तु आज इसके पंजाबी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भौगोलिक रूप हैं। भौगोलिक दृष्टि से अधिक व्यापक रूप भाषा है, फिर बोली, फिर स्थानीय बोली (Local Dialect) । इसका संकीर्णतम रूप है- ‘व्यक्ति बोली’ (idiolect)। तीसरा आधार है- प्रयोग। प्रयोग साधु है या असाधु ? कौन प्रयोग करता है ? किस विषय के लिए प्रयोग होता है ? प्रयोग हो रहा है या समाप्त हो गया है ? प्रयोग के अन्तर्गत प्रयोग क्षेत्र और प्रचलन आते हैं। चौथा आधार है- निर्माण। यदि किसी भाषा का निर्माता समाज है, वह परम्परागत रूप से चली आ रही है, तो उसे भाषा कहते हैं और यदि एक-दो व्यक्तियों ने उसका निर्माण किया है तो उसे ‘कृत्रिम भाषा’ कहते हैं। जब कोई भाषा आदर्श मान ली जाती है और पूरे क्षेत्र से सम्बन्धित कार्यों के लिए उसका प्रयोग हो तो वह मानक भाषा कहलाती है। मानकता इसका मुख्य आधार है। दो जातियों के मिश्रण से नयी भाषा का जन्म होता है जैसे- उर्दू ।

मूल भाषा – जिस प्रकार मानव-सृष्टि का मूल (आदि) पुरुष हम मनु को मानते हैं, उसी प्रकार आज विश्व में बोली जाने वाली भाषाओं के मूल में भी कोई एक भाषा रही होगी, उदाहरणार्थ- आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की मूल भाषा है- मूल भारोपीय भाषा। आज तक जितने भी भाषा-परिवार प्रकाश में आये हैं, उन सबकी आदि-भाषा मूल भाषा कहलाती है। बिना किसी मूल भाषा के किसी भी भाषा-परिवार का अस्तित्व नहीं माना जा सकता है।

भाषा की उत्पत्ति अत्यन्त प्राचीनकाल में उन स्थानों पर हुई होगी जहाँ बहुत से लोग एक साथ रहते रहे होंगे। ऐसे स्थानों में से किसी एक स्थान की वह भाषा, जो प्रारम्भ में उत्पन्न हुई होगी तथा आगे चलकर जिससे ऐतिहासिक तथा भौगोलिक कारणों से अनेक भाषाएँ, बोलियाँ तथा उपबोलियाँ बनी होंगी, मूल भाषा कही जाएगी।

बोली- ‘बोली’ भाषा का वह रूप है, जिसका व्यवहार घर में अर्थात् बहुत ही सीमित क्षेत्र में होता है। यह बोली जरा भी साहित्यिक नहीं होती है और बोलने वाले के मुख. में ही रहती है। डॉ० पी० डी० गुणे ने ए० मीलेट प्रिंज के शब्दों में ‘बोली’ की परिभाषा इस प्रकार दी है- “Dialect is constituted by the speech of all those persons in whose utterances, variations are not sensibly perceived or attended to.” (An Introduction to Comparative Philology) अर्थात् बोली उन सभी लोगों की बोलचाल की भाषा का मिश्रित रूप है, जिनकी भाषा में पारस्परिक भेद को अनुभव नहीं किया जाता है।

कभी-कभी कोई बड़ा साहित्यकार ‘बोली’ विशेष को ‘विभाषा’ का रूप प्रदानकर देता है। उदाहरण के लिए सूर और जायसी ने क्रमशः ब्रजभाषा और अवधी को विभाषा का स्तर प्रदान करने में प्रमुख योगदान किया।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई बोली पूर्णतया विकसित भाषा का रूप धारण कर लेती है। ‘खड़ी बोली’ इसका स्पष्ट उदाहरण है। ‘खड़ी बोली’ दिल्ली के आसपास की बोली थी। शासन का आश्रय प्राप्त करके वह विस्तृत क्षेत्र में फैलती गयी और क्रमशः परिमार्जित एवं विकसित होकर आज एक पूर्ण भाषा के रूप में गृहीत हो चुकी है।

कुछ बोलियाँ समय के फेर के साथ मर भी जाती हैं। भाषा और बोली के मध्य तीन उल्लेखनीय अन्तर हैं- (i) बोली का कोई परिनिष्ठित रूप नहीं होता है, भाषा का एक परिनिष्ठित रूप होता है। (ii) बोली में विविधरूपता कम होती है, विविधरूपता भाषा का प्राण है तथा (iii) अनेक बोलियों के सामूहिक रूप का नाम ही वस्तुतः भाषा है। “चार कोस पै पानी बदले, आठ कोस पै बानी” वाली लोकोक्ति के अनुसार बोली का क्षेत्र बहुत ही सीमित होता है।

विभाषा- जब कोई बोली अपना क्षेत्र विस्तृत करके परिमार्जित हो जाती है तथा परिनिष्ठित रूप में प्रयुक्त होने लगती है, तथा एक बड़े क्षेत्र के निवासियों द्वारा बोली जाने लगती है, तब वह विभाषा कहलाती है, जैसे अवधी और ब्रजभाषा।

अवधी और ब्रजभाषा ने जायसी, तुलसी और सूर के कारण बोली से विभाषा का पद प्राप्त किया। बोली का यह विकसित रूप, बोली और भाषा के बीच की कड़ी है। जहाँ तक लिपि का प्रश्न है, विभाषा की कोई भी ‘लिपि’ विशेष नहीं होती। एक विभाषा बोलने वाला व्यक्ति दूसरी विभाषा को समझ सकता है, किन्तु एक भाषा-भाषी दूसरी भाषा तब तक नहीं समझ सकता जब तक उसने उसे लिपिज्ञान-सहित सीखा न हो। एक भाषा के भौगोलिक क्षेत्र के अन्तर्गत अनेक विभाषाएँ बोली जा सकती हैं। इसी कारण एडवर्ड सपीर (Edward Sapier) ने भाषा और विभाषा में कोई अन्तर नहीं माना है। उनके विचार से-

“भाषा वैज्ञानिक के लिए ‘भाषा’ और ‘विभाषा’ में कोई वास्तविक अन्तर नहीं है। इसका नाता अति दूर ही क्यों न हो, किसी अन्य भाषा से दिखाया जा सकता है। शब्द का अर्थ एक ऐसी बोली का रूप है, जो दूसरे रूप से बहुत भिन्न नहीं है।”

प्रसिद्ध भाषाविज्ञानी मेरियो पाई (Mario Pei) ने भी कहा है- “भाषा और विभाषा में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। भाषा भी स्वयं एक विभाषा होती है, जो कतिपय विशेष कारण, स्थान, शासन की कृपा आदि से अन्य विभाषाओं की अपेक्षा अधिक महत्त्व अर्जित कर लेती है।”

डॉ० ग्रियर्सन के शब्दों में, “भाषा और विभाषा में वही अन्तर है जो पहाड़ और पहाड़ी में है।”

यद्यपि भाषा, विभाषा से भिन्न है, किन्तु शुद्ध भाषावैज्ञानिक दृष्टि से दोनों में मौलिक भेद नहीं है।

उपभाषा या प्रान्तीय भाषा- विभाषा का ही एक नाम उपभाषा है। उपभाषा और विभाषा के विकास की कहानी समान ही है। इन्हीं दोनों को कभी-कभी प्रान्तीय भाषा भी कह देते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ० श्यामसुन्दर दास का यह कथन द्रष्टव्य है कि- “एक प्रान्त या उपप्रान्त की बोलचाल तथा साहित्यिक रचना की भाषा ‘विभाषा’ कहलाती है। इसे अंग्रेजी में डायलेक्ट कहते हैं। हिन्दी के कई लेखक विभाषा को उपभाषा अथवा प्रान्तीय भाषा भी कहते हैं।

व्यक्ति-बोली या व्यक्ति-भाषा (Idiolect)- एक व्यक्ति की भाषा को व्यक्ति-बोली कहते हैं। मनुष्य हर क्षण बदलता रहता है। ऐसी स्थिति में उसकी व्यक्ति-भाषा सर्वदा एक नहीं रहती है। किसी एक व्यक्ति की, किसी एक समय की भाषा ही सच्चे अर्थों में व्यक्ति-भाषा है। जन्म से मृत्यु तक उसमें कुछ-न-कुछ विकास होता रहता है।

ग्राम्य अथवा अव-मानक भाषा- यह निम्न-मध्य वर्ग के व्यक्तियों के द्वारा बोली जाती है। इसमें स्थानीय अन्तर बहुत कम होते हैं।

उपबोली (Sub-dialect) या स्थानीय बोली- किसी छोटे क्षेत्र की ऐसी व्यक्ति-भाषाओं का सामूहिक रूप, जिनमें आपस में कोई स्पष्ट अन्तर न हो, स्थानीय बोली या उपबोली कहलाती है। एक बोली के अन्तर्गत कई उपबोलियाँ होती हैं। आदर्श, परिनिष्ठित, टकसाली या मानक भाषा (Standard Language) – किसी विस्तृत क्षेत्र में जब कोई विभाषा उसी क्षेत्र की हो, अथवा शहर की शिष्ट समुदाय के व्यवहार की बन जाती है तो वह ‘टकसाली भाषा’ कहलाने लगती है। यह भाषा आदर्श रूप धारण कर लेती है और उस क्षेत्र के सभी कार्यों का साधन बन जाती है। साहित्य का माध्यम भी यही होती है। इसकी प्रभुता के कारण सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक आदि होते हैं।

साहित्यिक भाषा- जिस भाषा में प्रचुर साहित्य की रचना होती है, वह साहित्यिक भाषा कही जाती है अथवा भाषा के उस विशिष्ट रूप को साहित्यिक भाषा कहते हैं जिसमें अलंकार तथा व्याकरण सम्बन्धी नियमों की प्रधानता रहती है और यह भाषा एक विशिष्ट समुदाय के लिए ही होती है। जन-साधारण के लिए यह भाषा नहीं होती है। यह टकसाली भाषा का ही विशिष्ट रूप होती है। यह स्थानीय प्रभावों से अछूती रहती है तथा विभिन्न क्षेत्रों या प्रान्तों के शिक्षित लोगों के पारस्परिक व्यवहार में भी प्रायः इसी का प्रयोग होता है। यह व्याकरण द्वारा नियमित होती है। अपने साहित्य के कारण यह भाषा बहुत समय तक अपनी स्थिरता तथा अस्तित्व को बनाये रखती है। सर्वसाधारण की भाषा तथा साहित्यिक भाषा में मौखिक रूप से निम्नलिखित अन्तर होता है-

  1. सर्वसाधारण की भाषा अकृत्रिम होती है, किन्तु साहित्यिक भाषा कृत्रिम होती है।
  2. सर्वसाधारण की भाषा गतिशील होती है, किन्तु साहित्यिक भाषा अपेक्षाकृत स्थिर रहती है।
  3. सर्वसाधारण की अपेक्षा साहित्यिक भाषा का स्तर ऊँचा होता है।

राष्ट्रभाषा – जब किसी भाषा को समस्त राष्ट्र की भाषा मान लिया जाता है, तब वह राष्ट्रभाषा कहलाती है। जब कोई बोली विभाषा और फिर क्रमशः साहित्यिक रचना का माध्यम बनकर भाषा का रूप धारण कर लेती है और लोकप्रियता के फलस्वरूप समस्त राष्ट्र में विचार-विनिमय का माध्यम बन जाती है, तब वह राष्ट्रभाषा के पद को प्राप्त होती है। कुछ विद्वानों की राय है कि राष्ट्रभाषा वह भाषा है, जिसे राजकीय क्षेत्र में समस्त राष्ट्र के कार्य संचालन की स्वीकृति प्राप्त हो। हमारे विचार से भाषा राजकीय नहीं, सामाजिक सम्पत्ति है। राजकीय क्षेत्र में प्रयुक्त भाषा राजभाषा कही जानी चाहिए, क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि राजभाषा और राष्ट्रभाषा के पद को एक ही भाषा प्राप्त हो। उदाहरण के लिए हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है, क्योंकि वह जन-जन का कण्ठहार है, परन्तु वह राजभाषा के आसन पर अभी तक प्रतिष्ठित नहीं हो पायी है।

हमारे देश के राजनीतिक नेतागण तो अभी तक यह तय नहीं कर पाये हैं कि राज-काज के संचालन के लिए किस भाषा को अंगीकार किया जाए। तब क्या यह समझा जाए कि भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं । राजनीतिज्ञ भले ही राजभाषा के पीछे लड़ते-झगड़ते रहें, हिन्दी राष्ट्रभाषा की धारा अनवरत रूप से प्रवहमान है।

भाषा वस्तुतः जनता का समर्थन प्राप्त करके राष्ट्रभाषा के पद को प्राप्त करती है- वह राजनीतिक ऊहापोह एवं राजकीय कूटनीति की अपेक्षा नहीं करती है। जिस प्रकार वनराज के रूप में सिंह का अभिषेक कभी नहीं किया जाता है, उसी प्रकार राष्ट्रभाषा राजनीतिज्ञों के ऊहापोह की मोहरों की प्रतीक्षा नहीं करती है।

इस प्रकार राष्ट्रभाषा वस्तुतः भाषा का व्यापक रूप है, जिसका व्यवहार समस्त राष्ट्र में होता है। राष्ट्रभाषा वस्तुतः देश की संस्कृति एवं देश के आदर्शों तथा देशवासियों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करती है। वही भाषा राष्ट्रभाषा बन सकती है, जिसमें सामर्थ्य हो कि वह देश के विभिन्न भागों के निवासियों के मध्य सम्पर्क स्थापित कर सके तथा अन्य उपभाषाओं एवं विभाषाओं की प्रगति में सहायक बन सके।

राज्य-भाषा- किसी राज्य द्वारा विचारविनिमय के साधन के रूप में स्वीकृत भाषा को राज्य-भाषा कहते हैं। प्रायः राष्ट्र-भाषा और राज्य-भाषा को समानार्थी समझा जाता है, किन्तु कभी-कभी दोनों में वैभिन्य हो जाता है। आज सम्पूर्ण देश विभिन्न राज्यों में विभाजित है और प्रत्येक राज्य की, राज-कार्य चलाने के लिए एक भाषा है। यह भाषा राज्य-भाषा कहलाती है।

राजभाषा – यह देश के राजकीय कार्यों में प्रयुक्त होने वाली भाषा है। इसे अंग्रेजी में Official Language कहते हैं। राजकीय कार्यालयों, राजाज्ञाओं आदि में प्रयुक्त भाषा ही राजभाषा कहलाती है। प्रत्येक स्वतन्त्र राष्ट्र की राष्ट्रभाषा ही प्रायः उसकी राजभाषा होती है, क्योंकि उसी के माध्यम से वहाँ का राजकार्य चलता है। राजकीय कार्यालयों, लेखों और पत्र-व्यवहार में उसी का प्रयोग होता है। राजाज्ञाएँ उसी में प्रसारित होती हैं।

सम्पर्क भाषा (Lingua Franca)- इसका प्रयोग अंग्रेजी (Link Language) के प्रतिशब्द के रूप में हुआ है। सम्पर्क भाषा का अर्थ है वह भाषा जो दो भाषाओं के बीच संपर्क स्थापित करने का काम करे, जिनकी अपनी भाषाएँ एक न हों। हिन्दी को इसी रूप में सम्पर्क भाषा बनाने का यत्न हो रहा है।

राजनयिक भाषा- यह भाषा एक देश और दूसरे देश के मध्य राजनयिक पत्र व्यवहार या बातचीत में प्रयुक्त होती है। यह भाषा अत्यन्त शिष्ट तथा औपचारिक होती है।

अन्तर्राष्ट्रीय भाषा- शासन या अन्य किसी प्रभाव से जब किसी भाषा का प्रयोग एक से अधिक राष्ट्रों में होने लगता है तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का पद प्राप्त हो जाता है; जैसे अंग्रेजी।

निष्कर्ष- भाषा मानवीय वाणी का वह रूप है, जो भावों एवं विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम होती है। प्रारम्भ में वह एक बोली होती है। धीरे-धीरे विकसित होकर वह एक विभाषा या प्रान्तीय भाषा बन जाती है। प्रान्तीय भाषा यदि समृद्ध एवं सशक्त होती है, तो वह भाषा का रूप धारण कर लेती है। अधिक लोकप्रियता एवं जनता का समर्थन प्राप्त करके वह राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन हो जाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्थानीय भाषा के लिए बोली, प्रान्तीय भाषा के लिए विभाषा और राष्ट्रीय तथा टकसाली भाषा के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है। विभाषा की सीमा बहुत कुछ भूगोल स्थिर करता और भाषा की सीमा सभ्यता, संस्कृति और जातीय भावों के ऊपर निर्भर होती है।

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Anjali Yadav

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