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भाषा विकास की प्रकृति एवं विशेषताएँ

भाषा विकास की प्रकृति एवं विशेषताएँ
भाषा विकास की प्रकृति एवं विशेषताएँ

भाषा विकास की प्रकृति एवं विशेषताएँ बताइए।

भाषा की प्रकृति

जिस प्रकार प्रत्येक मनुष्य या पदार्थ की कुछ विशिष्ट प्रकृति होती है, उसी प्रकार प्रत्येक भाषा की भी कुछ विशिष्ट प्रकृति होती है। बोलने वालों की बहुत-सी बातों का उसकी भाषा पर ही बहुत-कुछ प्रभाव पड़ता है। बल्कि हम कह सकते हैं कि किसी भाषा की प्रकृति पर उसके बोलने वालों की प्रकृति की बहुत कुछ छाप या छाया रहती है।

प्रत्येक भाषा की प्रकृति उसके व्याकरण, भाव-व्यंजन की प्रणालियों, मुहावरों, क्रिया-प्रयोगों और तद्भव शब्दों के रूपों, बनावटों आदि में निहित रहती है। इस प्रकृति का ठीक-ठीक ज्ञान उन्हीं लोगों को होता है, जो उस भाषा की उक्त सभी बातों का बहुत ही सावधानीपूर्वक और सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करते हैं और उसकी हर बात पर पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं।

भाषा की प्रकृति भी बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति के समान होती है। मनुष्य वही चीज खा और पचा सकता है, जो उसकी प्रकृति के अनुकूल हो । यदि वह प्रकृति-विरुद्ध चीज खाने और पचाने का प्रयत्न करे, तो यह निश्चित है कि उसे या तो सफलता ही न होगी, या बीमार पड़ जाएगा। भाषा भी वही तत्त्व ग्रहण कर सकती है, जो उसकी प्रकृति के अनुकूल हो। उसकी प्रकृति के विरुद्ध जो तत्त्व होंगे, वे यदि जबरदस्ती उसके शरीर में प्रविष्ट किये जाएँगे तो उसका स्वरूप या शरीर विकृत हो जाएगा। जिस प्रकार मनुष्य को दूसरों से बहुत कुछ सीखने-समझने और लेने की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भाषा को भी आदान-प्रदान की आवश्यकता होती है। हमें भाषा के क्षेत्र में दूसरों की सभी अच्छी बातें ग्रहण तो करनी चाहिए, परन्तु, आँखें बन्द करके नहीं, बल्कि प्रकृति सम्बन्धी इस तत्त्व को ध्यान में रखते हुए।

भाषा अपनी ध्वनि प्रकृति के अनुकूल दूसरों की ध्वनियों में संशोधन कर लेती है। पंजाब के लोगों को ‘स्टूल’, स्कूल’ आदि बोलने में कष्ट होता है, इसलिए वे उन्हें खटूल और सकूल कर लेते हैं। विदेशी शब्दों का उच्चारण करने में हम अपनी ध्वनि प्रकृति के अनुकूल एक-आध स्वर-व्यंजन अपनी ओर से भी जोड़ देते हैं। यथा स्कूल को इस्कूल, स्टेशन को इस्टेशन आदि कहते हैं।

भाषा का यह प्रकृति तत्त्व ही उसकी जान होता है। यह तत्त्व प्राकृतिक होता है, कृत्रिम नहीं। यही कारण है कि मेज-कुर्सियों की तरह भाषा गढ़ी नहीं जा सकती। पाश्चात्य देशों में अनेक बड़े-बड़े विद्वानों ने समय-समय पर कई बार ऐसी भाषा गढ़ने का प्रयत्न किया, जो सारे संसार में नहीं तो कम-से-कम उसके बहुत बड़े भाग में बोली और लिखी-पढ़ी जा सके। ऐसी भाषाओं में एसपेरेंतो नामक भाषा बहुत प्रसिद्ध है, जिसके प्रचार के लिए भगीरथ प्रयत्न किये गये, फिर भी जो चल न सकी। एसपेरैंतो से भी पहले वोलपुक (Volapuk) नाम की एक भाषा गढ़ी गयी थी, और इन दोनों के बाद रूस में इंडियान न्यूट्रल (Idion Neutral) नाम की भाषा गढ़ने का प्रयत्न किया गया था। ये भाषाएँ इसीलिए नहीं चल सकीं कि ये प्राकृतिक नहीं थीं इनमें जान नहीं थी।

जो लोग शब्दों की बनावट, भाव व्यक्त करने की प्रणालियों, क्रियाओं, मुहावरों आदि का सदा पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं, वहीं समझ सकते हैं कि कौन-सी बात हमारी भाषा की प्रकृति के अनुकूल है और कौन-सी प्रतिकूल। ऐसे लोग कोई बिल्कुल नया शब्द सुनते ही कह सकते हैं कि यह हमारी भाषा का शब्द नहीं है- अमुक भाषा का जान पड़ता है। उसके कान इतने परिष्कृत तथा अभ्यस्त होते हैं कि प्रकृति विरुद्ध छोटी-सी-छोटी बात भी उन्हें खटक जाती है।

भाषा की विशेषताएँ एवं प्रवृत्तियाँ

भाषा के व्यापक स्वरूप, विस्तृत कार्य क्षेत्र और प्रकृति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से हमें उसमें अधोलिखित विशेषताएँ एवं प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं-

(1) भाषा सामाजिक निधि है- जैसे मनुष्य समाज में जन्म लेता है और उसी में विकास पाता है तथा समाज से बाहर जिसके जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार भाषा भी समाज में ही उत्पन्न होती और विकास प्राप्त करती है। वस्तुतः भाषा विचार-विनिमय का माध्यम है और विचार-विनिमय के लिए समाज की सत्ता अनिवार्य है। समाज को छोड़कर भाषा की कल्पना नहीं हो सकती। भाषा के जितने भी रूप हैं, सभी समाज-सापेक्ष हैं। मनुष्य समाज में ही भाषा अर्जित करता है और उसका प्रथम सूत्र बनती है- माँ। इसीलिए भाषा के सम्बन्ध में हम कभी-कभी मातृ भाषा का भी प्रयोग करते हैं। परन्तु माँ समाज की ही इकाई होती है, इसलिए वह जो सिखाती है, वह समाजप्रदत्त भाषा ही होती है।

(2) भाषा पैतृक सम्पत्ति नहीं है- किसी भारतीय बच्चे को एक-दो वर्ष की अवस्था में ही फ्रांस में पाला जाए तो फ्रेंच ही उसकी भाषा होगी। यदि भाषा पैतृक सम्पत्ति होती तो वह अवश्य भारतीय मनुष्य की तरह बोलता, क्योंकि वह गूँगा नहीं था।

(3) भाषा अर्जित वस्तु है- भाषा जन्मजात वस्तु नहीं है, क्योंकि मनुष्य उसे अपने शरीरावयवों की भाँति लेकर इस संसार में नहीं आता है। हाँ, मनुष्य में भाषा ग्रहण की नैसर्गिक शक्ति होती है। इसलिए वह जिस वातावरण और समाज में रहता है, उसी की भाषा सीख पाता है। भाषा-विशेष की क्षमता लेकर कोई उत्पन्न नहीं होता। भारतीय बच्चे भी अंग्रेजी वातावरण में रहने पर उसी दक्षता से अंग्रेजी बोलने लगते हैं, जिस दक्षता से अंग्रेजों के बच्चे। मनुष्य समाज में रहकर भाषा को सीखता और अर्जित करता है। इसी अर्जन की प्रकृति के कारण भाषा का विकास और परिष्कार होता है। उदाहरणार्थ अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं को सीखा और भारतीय लोगों ने अंग्रेजी को। दोनों भाषाओं में केवल शब्दों का ही आदान-प्रदान नहीं हुआ वरन् रचना-विधि आदि का भी अर्जन हुआ। इससे स्पष्ट है कि व्यक्ति अपने चारों ओर के वातावरण से भाषा सीखता है, उसे वह प्रकृति से नहीं प्राप्त करता है।

(4) भाषा परम्परागत सम्पत्ति है- भाषा एक परम्परागत वस्तु है। उसकी एक धारा बहती रहती है, जो सतत परिवर्तनशील होने पर भी स्थायी और नित्य होती है। उसमें भाषाकृत भेदों की लहरें नित्य उठा करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्वजों से भाषा सीखता है। प्रत्येक पीढ़ी अपनी नयी भाषा नहीं उत्पन्न करती। घटना और परिस्थिति के कारण भाषा में कुछ विचार भले ही आ जाएँ पर जान-बूझकर वक्ता कभी परिवर्तन नहीं करता। भाषा एक परम्परागत सम्पत्ति है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि बालक उसके सीखने में ज्ञान और तर्क का प्रयोग नहीं करता। जब उसे यह बता दिया जाता है कि अमुक वस्तु का नाम ‘गाय’ है तो वह उसे ज्यों-का-त्यों मान लेता है। वह तर्क नहीं करता कि उसका नाम ‘गाय’ क्यों है ? वास्तव में भाषा को परम्परागत मानने से तात्पर्य यह है कि बालक जन्म से ही यह प्रतिभा लेकर उत्पन्न होता है कि बोल सके। समाज आकर उस प्रतिभा का विकास भर हो जाता है। शिक्षा उसे अधिक संस्कृत बना देती है।

(5) भाषा विकासशील या परिवर्तनशील है- भाषा में भी अन्य सांसारिक वस्तुओं की भाँति विकास या परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक देश और युग की भाषा परिवर्तित हुई है। अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के कारण परिवर्तन की मात्रा में भले ही अन्तर हो, परन्तु परिवर्तन का क्रम अनिवार्य है। परिवर्तन भाषा के सभी तत्त्वों में पाया जाता है। ध्वनि, शब्द, व्याकरण, अर्थ आदि सब परिवर्तित जाते हैं। ‘बिन्दु’ ‘बूँद’ ‘शाक’ से ‘साग’ और ‘मेघ’ से ‘मेह’ में ध्वनि-परिवर्तन स्पष्ट है। इसी तरह व्यवहार में आने वाले शब्दों का प्रयोग एक दिन में समाप्त हो जाता है और नये शब्द आविर्भूत हो, प्रयोग में आने लगते हैं। उदाहरणार्थ सत्याग्रह या आन्दोलन-जैसे शब्द सन् 1921 में प्रयोग में आने । अर्थ में कैसे परिवर्तन होता है, यह असुर शब्द को देखने से स्पष्ट हो जाता है। वैदिक भाषा में असुर शब्द का अर्थ देव होता था, जो बाद में राक्षस का वाचक बन गया। गर्भिणी से ही ‘गाभिन’ शब्द बना है जो अब केवल पशुओं के ही प्रसंग में प्रयुक्त होता है। इसी तरह ‘झा’ के रूप में उपाध्याय’ को कौन पहचानेगा ? किसी दिन ‘चतुर्वेदी’ ने सोचा भी न होगा कि ‘चौबे’ बन जाएँगे परन्तु भाषा की अनवरत परिवर्तनशीलता, किसकी मर्यादा को शाश्वत रहने देती है। इस परिवर्तन का बहुत-कुछ श्रेय सामाजिक वातावरण में परिवर्तन, जिसमें ज्ञान-वृद्धि और नये विचारों का समावेश भी शामिल है, बने हैं। भौतिक और मानसिक कारण तो इस परिवर्तन के उत्तरदायी हैं ही। समाज का नियन्त्रण जो व्याकरण के नियमों के रूप में प्रकट होता है, भाषा के विकास में बाधाएँ प्रस्तुत करता है, किन्तु इससे इसकी मर्यादा बनी रहती है।

(6) भाषा का प्रवाह अविच्छिन्न है, उसका कोई अन्तिम स्वरूप नहीं होता- यह बात हर आदमी जानता है कि जो वस्तु बनकर पूर्ण हो जाती है, उसका अन्तिम रूप निर्धारित हो जाता है, परन्तु भाषा के सम्बन्ध में यह बात लागू नहीं होती। यह कोई नहीं कह सकता कि अमुक भाषा का अमुक रूप ही उसका अन्तिम स्वरूप है परन्तु इस क्रम में हमें यह बात ध्यान में रखनी होगी कि प्रस्तुत विशेषता जीवित भाषा की है, मृत भाषा की नहीं। मृत भाषा का तो अन्तिम स्वरूप होगा ही। मनुष्य के समान ही भाषा का प्रवाह भी अविच्छिन्न है। जब से भाषा आरम्भ हुई आज तक चली आ रही है और जब तक मनुष्य समाज रहेगा वह चलती रहेगी। उसका प्रवाह कालजयी है।

(7) भाषा व्यवहार एवं अनुकरण द्वारा अर्जित की जाती है- विश्वप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि अनुकरण मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। बच्चा भाषा सीखने में भी इसी गुण का प्रयोग करता है। शैशव-काल में उसे दूध की घूँटी दी जाती है, उसी तरह भाषा की भी। छोटी-छोटी ध्वनियों से आरम्भ कर शब्दों में होते हुए वाक्यों तक की शिक्षा उसे उसी काल में मिल जाती है। आसपास के बड़े लोगों को ध्वनियों का जैसा प्रयोग करते शिशु देखता है, वैसा ही स्वयं अनुकरण करने का प्रयास करता है। बा-बा, मा-मा, दा-दा जैसी सरल ध्वनियों से आरम्भ कर वह जटिल-से-जटिल ध्वनियों के उच्चारण में समर्थ बन जाता है। यह सब मनुष्य की अन्तर्निहित और सहज अनुकरण-शक्ति के द्वारा ही सम्भव होता है, परन्तु यह अनुकरण-शक्ति तभी कार्य करती है, जब अनुकरण का अवसर दिया जाए। अनुकरण की शक्ति रहने पर भी यदि शिशु को निर्जन, एकान्त स्थान में छोड़ दिया जाए तो वह वाणी-विहीन होकर रह जाएगा, भाषा नहीं सीख सकेगा। इसलिए व्यवहार और अनुकरण दोनों की आवश्यकता पड़ती है।

(8) भाषा कठिन से सरल तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर चलती है- मनुष्य का यह जन्मजात स्वभाव है कि कम-से-कम प्रयास में अधिक-से-अधिक लाभ उठाना चाहता है। फलस्वरूप वह राजेन्द्र को राजू या सतेन्द्र को सतेन अथवा इन्दिरा को इन्दू कहने लगता है। यह तो ध्वनि का उदाहरण है। इसी प्रकार व्याकरण के क्षेत्र में भी होता है। इससे स्पष्ट है कि भाषा सरलता की ओर बढ़ती है। आजकल कुछ लोगों का कथन है कि हिन्दी दिन-प्रतिदिन कठिन होती जा रही है। वास्तव में बात कुछ और है। जिस हिन्दी की ओर ये लोग संकेत करते हैं, वह हिन्दी सामान्य हिन्दी नहीं है। वह तो विशिष्ट लोगों की हिन्दी है।

आरम्भ में भाषा का रूप स्थूल था। सूक्ष्म भावों या विचारों को व्यक्त करने के लिए वांछित सूक्ष्मता उसमें नहीं थी। धीरे-धीरे भाषा का विकास होता गया और मनुष्य ने अपने सूक्ष्मतम भावों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा के उपादानों की सृष्टि की। इससे यह विदित होता है कि भाषा स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ती है। हिन्दी की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई व्यंजना-शक्ति उसकी समृद्धि की परिचायिका है।

(9) भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर जाती है- भाषाविज्ञान के नवीन अनुसंधानों के आधार पर यह बात सत्य प्रमाणित हो चुकी है कि भाषा संयोग से वियोग की ओर जाती है। संयोग का अर्थ है- मिली होने की स्थिति; जैसे ‘रामः गच्छति’ तथा वियोग का अर्थ है- अलग हुई स्थिति, जैसे ‘राम जाता है। संस्कृत में केवल ‘गच्छति’ (संयुक्त रूप से काम चल जाता है, परन्तु हिन्दी में ‘जाता है’ (वियुक्त रूप ) का प्रयोग करना पड़ता है, किन्तु आधुनिक युग में यह प्रकृति भी देखने को मिलती है कि भाषा वियोगावस्था या योगात्मक से पुनः संयोगात्मक की ओर विकास कर रही है। विकास की इस गति को कुछ लोगों ने ‘भाषा-विकास-चक्र’ कहा है। जिस प्रकार चक्र लौटकर पुनः अपने स्थान पर आ जाता है, उसी प्रकार भाषा भी विकसित होकर पुनः अपनी मूल आकृति की ओर लौटने का प्रयास करती है।

(10) प्रत्येक भाषा का स्वतंत्र ढाँचा होता है- बनावट के साथ ही साथ प्रत्येक भाषा का ढाँचा भी स्वतन्त्र होता है। उदाहरण के लिए हिन्दी में दो लिंग हैं, गुजराती में तीन हिन्दी में में भूतकाल के छह भेद हैं, रूसी में केवल दो। संस्कृत में तीन वचन हैं, हिन्दी में दो। कुछ भाषाओं कुछ ध्वनियों का संयोग सम्भव है, पर दूसरी भाषाओं में नहीं। उदाहरणार्थ अंग्रेजी में स-ट-र का संयोग खूब प्रचलित है जैसे स्ट्रेट स्ट्रीट आदि में। परन्तु जापानी में यह बिल्कुल सम्भव नहीं है। रूसी में ज-द-र का संयोग खूब चलता है, पर अंग्रेजी या फ्रांसीसी में नहीं। जापानी में कोई भी अक्षर या शब्द स्वरान्त ही होगा, व्यंजनान्त नहीं, जैसे हा-रा-की-री, ना-गा-सा की। इसके प्रतिकूल संस्कृत में या हिन्दी में अनेक व्यंजनों का संयोग सुलभ है। उदाहरणार्थ- कात्यायन में पाँच व्यंजनों का संयोग है। प्रत्येक भाषा की अपनी व्याकरणगत विशिष्टता होती है। इस ढाँचे की विशिष्टता को ‘रचनागत विशिष्टता’ का भी नाम दिया जाता है। भावों की सूक्ष्मता के अनुरूप इस ढाँचे में भी परिवर्तन आता है। इसी कारण एक भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी भाषा पर लागू नहीं किया जा सकता है।

(11) द्वैध रचना- संसार की विविध भाषाओं का अध्ययन करने पर हमें इनमें आधारभूत एकता के कुछ तत्त्व दिखायी देते हैं। द्वैध रचना इस आधारभूत एकता का नमूना है। द्वैध रचना से तात्पर्य यह है कि संसार की सभी भाषाओं की रचना दो तत्त्वों (1) ध्वनि और (2) शब्दों अथवा पदों से हुई है। ये दोनों तत्त्व प्रत्येक भाषा में किसी-न-किसी रूप में देखने को अवश्य मिलते हैं। इनमें से वाक्यात्मक रचना अथवा पदों के आधार पर रचना को प्राथमिक एवं ध्वनि प्रक्रिया के आधार पर संरचना को द्वितीयक की संज्ञा दी जाती है। प्रसिद्ध अंग्रेजी भाषाविद् जॉन लॉयन्स के अनुसार “यह (संरचना) मानव-भाषाओं की विश्वव्यापी आधारभूत विशेषता है।”

(12) सृजनात्मकता- भाषा की यह एक प्रमुख और मौलिक विशेषता है। प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक नोअमचॉम्सकी ने सृजनात्मकता को भाषा की प्रमुख विशेषता बताया है। इसे भाषा की उन्मुक्तता का भी नाम दिया जाता है। सृजनात्मक का अर्थ होता है कि ज्ञात ध्वनियों अथवा पदों के वाक्यों का निर्माण करना अथवा भाषा की रचना करना तथा नवीन भावों और अर्थों को ग्रहण करना। नवीन वाक्यों की रचना और अर्थ-ग्रहण इसी सृजनात्मकता का रूप है अथवा सृजनात्मकता का परिणाम है।

(13) रूप रचनागत विशिष्टता- भाषा की रूप रचनागत विशिष्टता उसके स्वतन्त्र ढाँचे का एक अंग मात्र है। प्रत्येक भाषा की रचना-सम्बन्धी विशेषताएँ पृथक्-पृथक् होती हैं। जहाँ संसार की विविध भाषाओं में कुछ मौलिक एकता होती है, वहाँ यह भी सत्य है कि व्याकरण के नियमों की दृष्टि से उनमें भिन्नताएँ और अलगाव होता है। इसी रूप रचनागत विशिष्टता के कारण एक भाषा का पूर्णरूपेण अनुवाद विशेषकर क्रिया, काल, लिंग आदि सम्भव नहीं होता। उदाहरणार्थ- हिन्दी में संयुक्त क्रियाओं, जैसे- उठ बैठा’ उसकी अपनी विशेषता है। इसका एक विशेष अर्थ होता है। इस प्रकार की क्रियाओं का अनुवाद अंग्रेजी अथवा अन्य भाषाओं में सम्भव नहीं है।

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Anjali Yadav

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