महादेवी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए तथा स्पष्ट कीजिए कि महादेवी वर्मा एक रहस्यवादी कवियत्री हैं?
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जीवन परिचय-
महादेवी वर्मा का जन्म फर्रुखाबाद में संवत् 1964 (1907) ई० में ठीक होलिकोत्सव के दिन हुआ था। उनके पिता का नाम गोविंद प्रसाद वर्मा तथा माता का नाम श्रीमती हेमरानी देवी था। दोनों को ही शिक्षा से विशेष लगाव था। श्रीमती हेमरानी देवी कभी-कभी कविता भी किया करती थीं। महादेवी के नाना भी ब्रजभाषा के कवि थे। इससे बचपन में ही महादेवी जी में कविता करने में रुची हो गयी थी। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में हुई। वहाँ उन्होंने छठी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की। घर पर चित्रकला और संगीत की शिक्षा भी उन्हें दी गयी। तुलसी, सूर और मीरा का साहित्य उन्होंने अपनी माता से ही पढ़ा। सं0 1973 (1916 ई०) में उनका विवाह डॉक्टर स्वरूप नारायण वर्मा के साथ हुआ। इससे उनकी शिक्षा का क्रम टूट गया। उनके ससुर लड़कियों के शिक्षा के पक्ष में नहीं थे। लेकिन जब उनका देहान्त हो गया तब महादेवी जी पुनः शिक्षा प्राप्त करने कि ओर अग्रसर हुई। सं० 1977 (1920 ई0) में उन्होंने प्रयाग से प्रथम श्रेणी में मिडिल पास किया। सं0 1983 (1926 ई०) में उन्होंनें इन्टरमीडिएट परीक्षा कास्थवेट गर्ल्स कॉलेज से पास की तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सं० 1985 (1928 ई0) में बी०ए० और सं० 1990 (1933 ई०) में एम0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की।
महादेवी जी में बचपन से ही कविता करने की रुचि थी। कुछ बड़ी होने पर वे अपनी माता के पदों में अपनी ओर से कुछ कड़ियाँ जोड़ दिया करती थीं। उन्होंने अपनी रचनायें चाँद पत्रिका में प्रकाशित होने के लिये भेजी हिन्दी संसार में उनकी उन रचनाओं का अच्छा स्वागत हुआ। इससे महादेवी जी को अधिक प्रोत्साहन मिला और फिर वे नियमित रूप से काव्य साधना की ओर अग्रसर हो गयीं। एम० ए० पास करने के पश्चात् वे प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य नियुक्त हुई। उनके सतत् उद्योग से उक्त विद्यापीठ ने उत्तरोत्तर उन्नति की। वे चाँद की सम्पादिका भी रहीं। सं0 1961 में ‘नीरजा’ पर 500 रु० का ‘सेक्सरिया पुरस्कार’ और सं० 2001 में ‘आधुनिक कवि’, ‘रश्मि’ और ‘नीहार’ पर 1200 रु0 का ‘मंगल प्रसाद’ पारितोषिक और भारत भारती और ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल चुका है। भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ की उपधि से भी अलंकृत हुई। भाषा, साहित्य, संगीत और चित्रकला के अतिरिक्त उनकी रुचि दर्शनशास्त्र के प्रति भी थी। इनकी मृत्यु संवत् 2044 (11 सितम्बर 1987ई0) को प्रयाग में हुई।
महादेवी जी का कृतित्व-
महादेवी का रचनाकाल सं0 1984 से आरम्भ होता है। उनकी काव्य कृतियाँ नीहार सं0 1987, रश्मि सं0 1986, नीरजा सं0 1983, और दीपशिखा से 1996 है। नीहार, रश्मि, नीरजा और सांय गीत की कविताओं का संयुक्त संग्रह यामा है। इनके अतिरिक्त ‘आधुनिक कवि’ में उनकी 74 कवितायें संग्रहीत हैं। इन गीतों का संचयन उनकी विविश कृतियों से हुआ है। ‘हिमालय’ उनका सम्पादित ग्रंथ है।
रहस्यवाद-
महादेवी जी का रहस्यवाद हिन्दी काव्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है, रहस्यवाद की जो परिणति महादेवी जी के काव्य में उद्धृत होती है वह अन्यत्र नहीं मिलती है। महादेवी जी ने रहस्वाद के कुछ निद्रान्त भी प्रतिपादित किये हैं, उन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार महादेवी जी ने अपने काव्य को गति प्रदान की है।
रहस्यवाद की जो महत्वपूर्ण आवश्यकता है वह आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध का है। वास्तव में महादेवी के काव्य में रहस्यवाद की मूल-आवश्यकता को विशेष स्थान दिया गया है। इसलिये उसमें तीन विषयों का समावेश रहता है-1 आत्मा, 2 परमात्मा और 3 प्रकृति। प्रकृति, आत्मा और परमात्मा के बीच सम्बन्ध स्थापित करने में माध्यम का कार्य करती है। सर्वप्रथम उसी के चेतन रुप में आत्मा को परमात्मा की छवि दर्शन प्राप्त होता है। यह रहस्यवाद की पहली अवस्था है जिसमें जिज्ञासा और विस्मय का अत्यधिक समावेश रहता है। महादेवी जी ने इस अवस्था के चित्रण में प्रकृति से प्राप्त अनुभूतियों के साथ-साथ अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को भी स्थान दिया है।
रहस्यवाद की दूसरी अवस्था इसके बाद आरम्भ होती है। प्रकृति में परमात्मा की छवि देखकर आत्मा उससे इतनी प्रभावित हो जाती है कि वह उसका सान्निध्य प्राप्त करने के लिये व्याकुल हो उठती है। महादेवी ने इस अवस्था का चित्रण इन पंक्तियों में किया है
“अलि ! कैसे उनको पाऊँ
मेघों में विद्युत सी छवि उनकी बनकर मिट जाती।
आत्मा की इस विवशता में ही सच्चे रहस्यवाद का उदय होता है। महादेवी जी ने इस अवस्था का अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक अनुभूतिपूर्ण चित्रण किया है। आत्मा की इस अवस्था में जब इतनी गहनता और तीव्रता आ जाती है कि उसे बिना परमात्मा से मिले चैन नहीं पड़ता तब रहस्यव की तीसरी अवस्था का आरम्भ होता है। यह परमात्मा के प्रेम में तन्मय होने की अवस्था है। महादेवी जी ने इस अवस्था के चित्रण में अपने हृदय की सारी वेदना उड़ेल दी है। निम्न पंक्तियों में ‘दीपक’ को ‘आत्मा’ का प्रतीक बनाकर वे कहती हैं-
मधुर मधुर दीपक जल,
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल, प्रियतम का पथ आलोकित कर,
सौरभ फैला विपुल धूप वन, मृदुल मोम-सा रे मृदु तन ।
किन्तु इस अवस्था से भी महादेवी जी को सन्तोष नहीं है। इस अवस्था पर पहुँचते पहुँचते महादेवी जी को ‘प्रियतम’ के आने की सूचना मिलने लगती है। यह मिलन की अवस्था रहस्यवाद की अन्तिम अवस्था है।
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