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महादेवी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व

महादेवी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व
महादेवी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व
महादेवी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए वर्णन कीजिये कि महादेवी जी रहस्यवाद की कवयित्री हैं। 

संक्षिप्त परिचय- महादेवी वर्मा जी का जन्म संवत् 1964 वि० के होली के दिन फर्रुखाबाद में हुआ था, उनकी माता श्रीमती हेमरानीदेवी तथा पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा दोनों शिक्षा के अति प्रेमी थे।

तुलसी, सूर और मीरा का साहित्य उन्होंने अपनी माता से ही पढ़ा। सं0 1973 में उनका विवाह डॉक्टर स्वरूप नारायण वर्मा के साथ हुआ। इससे उनकी शिक्षा का क्रम टूट गया। उनके ससुर लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में नहीं थे। लेकिन जब उनका देहान्त हो गया तब महादेवी जी पुनः शिक्षा प्राप्त करने की ओर अग्रसर हुई। सं0 1977 में उन्होंने प्रयाग से प्रथम श्रेणी में मिडिल पास किया।

संयुक्त प्रान्त के विद्यार्थियों में उनका स्थान सर्वप्रथम रहा। इसके फलस्वरूप उन्हें छात्रवृत्ति मिली। सं0 1981 में उन्होंने इंट्रेस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और पुनः प्रान्त भर में उन्हें सर्वप्रथम स्थान मिला। इस बार भी उन्हें छात्रवृत्ति मिली। सं0 1983 में उन्होंने इंटरमीडिएट परीक्षा क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज से पास की तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सं0 1985 में बी0ए0 और सं0 1990 में एम0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस प्रकार उनका विद्यार्थी जीवन आदि से अन्त तक बहुत सफल रहा। बी०ए० की परीक्षा में उनका एक विषय दर्शन भी था, इसलिए उन्होंने भारतीय दर्शन का गम्भीर अध्ययन किया। इस अध्ययन की छाप उन पर बराबर बनी रही।

महादेवी जी का जीवन शिक्षा विभाग में बीता। एम०ए० पास करने के पश्चात् वे प्रयाग महिला-विद्यापीठ की प्रधानाचार्या नियुक्त हुई। उनके सतत् उद्योग से उक्त विद्यापीठ ने उत्तरोत्तर उन्नति की। वे ‘चाँद’ की सम्पादिका भी रह चुकी हैं। सं० 1991 में ‘नीरजा’ पर 500 रु0 का ‘सेक्सरिया पुरस्कार’ और सं0 2001 में ‘आधुनिक कवि’, ‘रश्मि’ और ‘निहार’ पर 1,200 रुपये का ‘मंगला प्रसाद’ पारितोषिक और भारत भारती और ज्ञानपीठ और ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल चुका है। भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से भी अलंकृत हुई। भाषा, साहित्य, संगीत और चित्रकला के अतिरिक्त उनकी रुचि दर्शनशास्त्र के प्रति भी थी। इनकी मृत्यु संवत् 2044 (11 सितम्बर 1987) को प्रयाग में हुई।

महादेवी जी की रचनायें- महादेवी का रचनाकाल सं0 1984 से आरम्भ होता है। उनकी काव्य-कृतियाँ नीहार (सं0 1987), रश्मि (सं0 1989), नीरजा (सं0 1991), सांध्य गीत (सं0 1983) और दीपशिखा (सं0 1996) हैं। नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्य गीत की कविताओं का संयुक्त संग्रह वामा है। इनके अतिरिक्त ‘आधुनिक कवि’ में उनकी 74 कवितायें संगृहीत हैं। इन गीतों का संचवन उनकी विविध कृतियों से हुआ है। ‘हिमालय’ उनका सम्पादित ग्रंथ है।

रहस्यवाद- महादेवी जी मूलतः रहस्यवादी कवयित्री हैं। उन्होंने रहस्यवाद की विस्तृत व्याख्या की और छायावाद की भाँति उसके सम्बन्ध में भी कुछ सिद्धान्त स्थिर किये हैं। उन्हीं सिद्धान्तों के अनुकूल उन्होंने अपने रहस्यवादी काव्य का शृंगार किया है। सामान्यतः रहस्यवाद के अन्तर्गत आत्मा-परमात्मा के रागात्मक सम्बन्ध का वर्णन किया जाता है। इसलिये उसमें तीन विषयों का समावेश रहता है- (1) आत्मा, (2) परमात्मा और (3) प्रकृति प्रकृति, आत्मा और परमात्मा के बीच सम्बन्ध स्थापित करने में माध्यम का काम करती है। सर्वप्रथम उसी के चेतन रूप में आत्मा को परमात्मा की छवि का दर्शन प्राप्त होता है। यह रहस्यवाद की पहली अवस्था है जिसमें जिज्ञासा और विस्मय का अत्यधिक समावेश रहता है। महादेवी जी ने इस अवस्था के चित्रण में प्रकृति से प्राप्त अनुभूतियों के साथ-साथ अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को भी स्थान दिया है

“कनक-से दिन, मोती-सी रात, सुनहली साँझ, गुलाबी प्रात
मिटाता-रंगता बारबार, कौन अंग का वह चित्राधार?”

रहस्यवाद की दूसरी अवस्था इसके बाद आरम्भ होती है। प्रकृति में परमात्मा की छवि देखकर आत्मा उससे इतनी प्रभावित हो जाती है कि वह उसका सान्निध्य प्राप्त करने के लिये आकुल हो उठती है। महादेवी जी ने इस अवस्था का चित्रण इन पंक्तियों में किया है-

“अलि! कैसे उनको पाऊँ?
मेघों में विद्युत सी छवि उनकी बनकर मिट जाती।
आँखों की चित्रपटी में, जिसमें मैं आँक न पाऊँ।
वे आभा बन खो जाते शशि किरणों की उलझन में।
जिसमें उनको कण-कण में ढूँढूँ, पहिचान पाऊँ।”

आत्मा की इस विवशता में ही सच्चे रहस्यवाद का उदय होता है। महादेवी जी ने इस अवस्था का अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक अनुभूतिपूर्ण चित्रण किया है। आत्मा की अवस्था में जब इतनी गहनता और तीव्रता आ जाती है कि उसे बिना परमात्मा से मिले चैन नहीं पड़ता तब-रहस्यवाद की तीसरी अवस्था का आरम्भ होता है। यह परमात्मा के प्रेम में तन्मय होने की अवस्था है। महादेवी जी ने इस अवस्था के चित्रण में अपने हृदय की सारी वेदना उड़ेल दी है। निम्न पंक्तियों में ‘दीपक’ को ‘आत्मा’ का प्रतीक बनाकर वे कहती हैं-

‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल,
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल, प्रियतम का पथ आलोकित कर,
सौरभ फैला विपुल धूप बन, मृदुल मोम-सा घुल रे मृदु तन ।
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित, तेरे जीवन का अणु-अणु गल।

इस प्रकार हम देखते हैं कि महादेवी जी ने अपने काव्य में रहस्यवाद की चारों अवस्थाओं का अत्यन्त सुन्दर चित्रण किया है। इसमें उनके नारी-हृदय की अनुगूंज पद-पद पर सुनायी देती है। इसीलिये उनका रहस्यवादी काव्य अत्यन्त स्वाभाविक हो गया है। मिलन के क्षणों में नारी हृदय की मान-भावना का आनन्द इन पंक्तियों में लीजिये-

महादेवी जी का रहस्यवाद मीरा, कबीर आदि की भाँति साधनात्मक न होकर भावात्मक है जिसके अन्तर्गत उन्होंने मधुर-भाव को प्रमुख स्थान दिया है। मधुरभाव से ओत-प्रोत उनकी रहस्यवादी रचनायें हिन्दी काव्य में बेजोड़ हैं।

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Anjali Yadav

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