महादेवी वर्मा की काव्य भाषा के विभिन्न रूपों का विश्लेषण कीजिए।
महादेवी वर्मा के अनुसार काव्यभाषा अर्थ के साथ-साथ रीति, ध्वनि, रस वक्रता आदि को भी काव्य भाषा में निम्ब विधायिनी शक्ति होती है, सामान्य भाषा में नहीं। काव्य भाषा में अलंकारगत रमणीयता, चित्रोपमता, नाद सौन्दर्य, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता जैसे गुण भी विद्यमान रहते हैं जबकि सामान्य भाषा में इनकी कोई आवश्यकता नहीं होती।
उनकी भाषागत विशेषताओं का निरूपण निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है:
( 1 ) चित्रमयी भाषा- महादेवी जी के काव्य में चित्रोपम भाषा का प्रयोग किया गया है। उनमें किसी दृश्य, घटना का संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत करने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। भारत माता का कितना सजीव चित्रोपम वर्णन निम्न पंक्तियों में उन्होंने किया है-
शुभ्र हिम शतदल किरीटिनि
किरण कोमल कुन्तला जो
सरति तुंग तंरग मालिनि,
मरुत चंचल-अंचला जो,
फेन उज्ज्वल अतल सागर
चरण पीठ जिसे मिला है।
(2) प्रतीकात्मक भाषा- छायावादी कवियों में अपनी भाषा में प्रतीकात्मकता का सहारा भी लिया है। प्रतीकों के द्वारा उन्होंने अनेक सूक्ष्म रूपों व्यापारों की अभिव्यक्ति की है। इनके द्वारा कला में अपूर्व चमत्कार की सृष्टि भी हुई है। उदाहरण के लिए उनके निम्न गीत को लिया जा सकता है जिसमें दर्पण को ‘माया’ का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है:
टूट गया वह दर्पण निर्मम
किसमें देख संवा कुन्तल अंगराग पुलकों का मल-मल ।
स्वप्नों से आंजू पलकें चल, किस पर रीझं किससे रूटूं।
भर लूं किस छवि से अन्तरतम, टूट गया वह दर्पण निर्मम ।
इसी प्रकार वे दीपक को जीवन का प्रतीक बनाकर कहती हैं:
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर
(3) लाक्षणिक भाषा- जहाँ सामान्य भाषा लगड़ी हो जाती है, वहां लक्षणा शब्द शक्ति का प्रयोग करके भाषा की सामर्थ्य को बढ़ाया जाता हैं छायावादी कविता में लाक्षणिक पदावली का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है। उदाहरण के लिए महादेवी जी के निम्न गीत में स्नेहहीन दीपक का लाक्षणिक अर्थ तारों से तथा ‘सागर का उर जलता’ का लाक्षणिक अर्थ बड़वाग्रि से है:
जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेहहीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता
विद्युत से घिरता है बादल
विहँस-विहँस मेरे दीपक जल ॥
(4) आलंकारिक भाषा- महादेवी जी की काव्य भाषा में आलंकारिकता अपने पूर्ण यौवन पर विद्यमान हैं। उसमें उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, रूपकातिशयोक्ति अलंकारों के साथ-साथ मानवीकरण विशेषण विपर्यय एवं ध्वन्यर्थ व्यंजन जैसे नवीन अलंकारों का भी प्रयोग किया गया है। मानवीकरण अलंकार का एक उदाहरण दृष्टव्य है:
तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्मिति से जनी ।
विहंसती आ बसंत रजनी ।
विशेषण विपर्यय अलंकार का प्रयोग निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है-
कौन मेरी कराक में नित मधुरता भरता अलक्षित?
कौन प्यासे लोचनों में घुमड़ फिर झरता अपरिचित?
ध्वन्यर्थ व्यंजना का प्रयोग निम्न पंक्ति में हैं:
दुःख के पट छू बहते झर-धर कण-कण के आंसू के निर्झर
(5) नादात्मक भाषा- महादेवी जी ने नाद सौन्दर्य से युक्त पदावली का प्रयोग भी अपने काव्य में किया है। यथा- समीर की ध्वनि, तितलियों के उड़ने की ध्वनि यहाँ साकार हो गयी है-
सौरभ का फैला केशजाल करती समीर परियां विहार।
गीली केसर मद झूम-झूम पीते तितली के नव कुमार।
मर्मर का मधु संगीत छेड़ देते हैं हिल पल्लव अजान।
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