महादेवी वर्मा की भाभी रेखाचित्र की समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
आधुनिक मीरा के नाम से विख्यात् कवयित्री महादेवी वर्मा ने हिन्दी कविता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने हिन्दी पद्य / काव्य की स्मृद्धि अतुलनीय योगदान तो दिया ही साथ ही हिन्दी गद्य में वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हिन्दी कविता में वह जहाँ भाववादी दृष्टिकोण से याद की जाती हैं, वहीं गद्य में उनकी छवि एक प्रखर विचारक के रूप में सामने आती हैं। अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, श्रंखला की कड़िया व भाभी रेखाचित्र आदि उनके गद्य की महत्वपूर्ण और चर्चित कृत्तियाँ हैं। ये सभी रचनाएँ भारतीय समाज व्यवस्था में पिस रही स्त्री की पीड़ा को अंकित करती हैं।
प्रस्तुत रेखाचित्र भाभी भी एक विधवा की सामाजिक दशा का यथार्थ चित्रण किया गया है। हमारी समाज व्यवस्था चाहे वह किसी भी धर्म की हो उसने स्त्री को दोयम दर्जे में ही रखा और रखना चाहा है। भारतीय समाज स्त्री के लिए कितना संवेदनशील रहा है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस देश को इक्कीसवीं सदी में आकर भी क्यों बेटी बचाओ के नारे देने पड़ रहे हैं।
एक महिला का विधवा होना किसी भी समाज में एक प्राकृतिक उपक्रम है परन्तु हमारे समाज में जो उसकी संरचना है वह उसके जीवन को नरक बना देती है। तमाम धर्मो ने एक विधवा के जीने के अपने-अपने विधान सौंपे हैं। विधवा को यह पहनना है, यह नहीं पहनना है। यह खाना है यह नहीं खाना है। ऐसे रहना है और ऐसे नहीं रहना है आदि भारतीय हिन्दू समाज में तो एक महिला का विधवा होना एक बड़ी कुरीति के रूप में व्याप्त था जो सती प्रथा के रूप में महिलाओं के लिए बिन आई मौत का सबब बनता था जिससे मुक्ति के लिए एक लम्बा संघर्ष करना पड़ा। राजा राम मोहन राय ने विधवाओं के अधिकार लिए एक सक्रिय लड़ाई का सामना किया। महादेवी वर्मा का भाभी रेखाचित्र एक ऐसी रचना है जो विधवा विमर्श को जन्म देती नजर आती है। एक विधवा के प्रति पुरुष का ही नहीं और का भी कितना आततायी रवैया रहता है इसका विश्लेषण भी आलोचक रेखाचित्र में बड़ा मार्मिक तरीके से किया गया है। लेखिका ने एक मारवाड़ी बाल विधवा के माध्यम से स्पष्ट किया है कि एक स्त्री को विधवा होते ही कैसे संयमित जीवन जीना पड़ता है, “वृद्ध एक ही समय भोजन करते थे और वह तो विधवा ठहरी! दूसरे समय भोजन करना ही प्रमाणित कर देने के लिए पर्यापत था कि उनका मन विधवा के संयम प्रधान जीवन से ऊबकर किसी विपरीत दिशा में जा रहा है। एक प्राकृतिक दुर्घटना ने तो उसको व्यथित किया ही होता है। लेकिन समाज उस घटना को विधवा स्त्री को रोज-रोज, हर पल, हर क्षण बार-बार इस अहसास के साथ जीने के लिए बाध्य करता है कि वह विधवा है। मानव को जहां मानव का दुख कम करने का प्रयास करना चाहिए। उसको दुख भूलाने और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए जीवन की नई संभावनाएँ तलाशने के लिए हिमायत देनी चाहिए वहीं समाज इसके विरीत व्यवहार करके उस स्त्री को मानसिक और शारीरिक तरीके से प्रताड़ित करता है। इस बात का वर्णन भी महादेवी वर्मा ने बड़ी बारीकी के साथ किया है कि किसी प्रकार उस विधवा स्त्री जो अभी बालिका ही है, “उस समाधि- जैसे घर में लोहे के प्राचीर से घिरे फूल के समान वह किशोरी बालिका बिना किसी संगी-साथी, बिना किसी प्रकार के आमोद-प्रमोद, मानो निरंतर वृद्धा होने की साधना में लीन थी।” जो लोग अपने समाज की महानताओं के भ्रम पाल कर जी रहें हैं उनको इतिहास के इन काले पत्रों को जरूर पढ़ लेना चाहिए।
आज भी औरत को उड़ते मन से ही सुना जाता है। 1941-42 में एक स्त्री ही स्त्री को पूरे मन से पढ़ सकती थी, उसको पूरे मन से सुन सकती थी और नीर भरी दुख की बदली को अभिव्यक्त कर सकती थी। उनके लेखन ने महिलाओं के प्रति देखने के रवैये को बदला। विधवाओं के जीवन से कैसे आमोद-प्रमोद छीन लिया जाता है, हार-श्रृंगार को छीन लिया जाता है और उसके जीवन में से तमाम रंग छीन कर मात्र दो रंगों में उनके जीवन को बांध दिया जाता है। भाभी रेखाचित्र में अबोध बालिका के रूप में लेखिका कहती है कि, भाभी तो सफेद ओढ़नी और काला लहंगा या काली ओढ़नी और सफेद बूटीदार कत्थई लहंगा पहने हुए ही मैने देखा था।” कैसे उस लड़की को जिसने अभी साल भी शादी किये नहीं हुआ था विधवा होने पर उसकी सारी जिन्दगी नरक बन गई है। जिसने जीवन का कोई सुख आराम नहीं देखा। हर एक औरत अपने आपको तब ही औरत मानती है जब वो मां के रूप को प्राप्त करती है। लेकिन इस लड़की का सारा संसार उजड़ चुका है। लेखिका लिखती है, “उस 19 वर्ष की युवती की दयनीयता आज समझ पाती हूँ, जिसके जीवन के सुनहरे स्वप्न गुड़ियों के घरोंदे के समान दुर्दिन की वर्षा में केवल वह ही नहीं गए, वरन् उसे इतना एकाकी छोड़ गए कि उन स्वप्नों की कथा कहना भी संभव न हो सका। यही त्रासदी है एक विधवा के जीवन की। उसके जीवन में कई संभावनाओं को बच्चन जी के ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ की तर्ज पर खोजा जा सकता है पर समाज एक ऐसे पैरोकार की भूमिका अदा कर रहा होता है कि उस स्त्री को सपना तो दूर उसका घर से बाहर देखना तक उसके मन की चंचलता का प्रतीक बन जाता है और इसी बात के लिए वो महिलाओं में भी चर्चा का विषय बन जाती है और उसकी ननद जब भी आती उसके शरीर पर घाव कसाले छोड़कर चली जाती है। उसका ससुर कैसे उसको आंगन के बाहर कदम नहीं रखने देता, न किसी को घर में आने देता। संयमित जीवन जीते हुए भी उसको कई तरह के अत्याचारों का सामना करना पड़ता था।
वर्मा जी ने रेखाचित्र में जो गुड्डे- गुड़ियों का संसार बुना है वह भी प्रतीकात्मक रूप लेता ही दिखाई देता है। जो विधवा स्त्री के घर रूपी सपनों के संसार का प्रतीक बनता है। अत्याचार की इंतेहां उस दिन हो जाती है जिस दिन अबोध बालिका भाभी के लिए अपने हाथों से काढ़ी ओढ़नी को चुपचाप छिपाकर उसको आश्चर्य में डालने के लिए भाभी के सिर पर डाल देती है तो वह कैसे खिल उठती है लेखिका के शब्दों में देखें, “जब दवे पांव जाकर मैंने उस ओढ़नी को खोल कर उसके सिर पर डाल दिया, तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। रंगों पर उसके प्राण जाते ही थे, उस पर मैंने गुड़ियों और खिलौनों से दूर अकेले बैठे-बैठे मैंने अपने नन्हें हाथो से उसके लिए उतनी लम्बी-चौड़ी ओढ़नी काढ़ी थी। आश्चर्य नहीं कि वह क्षण भर के लिए अपनी उस स्थिति को भूल गई, जिसमें ऐसे रंगीन वस्त्र वर्जित थे और नए खिलौने से प्रसन्न बालिका के समान, एक बेसुधपन में उसे ओढ़ मेरी ठुड्डी पकड़कर खिलखिला पड़ी। लेखिका का यह एक अबोधपन का प्रयोग पूरे बोध के साथ किया गया है जिसे हम मनोवैज्ञानिक प्रयोग कह सकते हैं। जिस प्रयोग से यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि विधवा के जीवन में भी खुशियां लाई जा सकती हैं उसके जीवन में दोबारा रंग भर कर पर समाज को ऐसा पसंद नहीं हैं ऐसे प्रयोगों से वह कितना क्रूर हो जाता है। महादेवी वर्मा कहती हैं कि जब इस अवस्था में अपनी बहू को उसके ससुर और ननद ने देखा तो उसके साथ कितनी क्रूरता की गई,” इसके उपरांत जो हुआ वह तो स्मृति के लिए भी करुण है। क्रूरता का वैसा प्रदर्शन मैंने फिर कभी नहीं देखा। बचाने का कोई उपाय न देख कर ही कदाचित् मैंने रोना आरंभ किया, परंतु बच तो वह तब सकी, जब मन से ही नहीं, शरीर से भी बेसुध हो गई।” यह कुछ नहीं हमारे क्रूर समाज का अमानवीय चेहरा है जिसे वह कभी नहीं देखना चाहता। परंपराओं और लोकलाज की पगड़ी अपने सिर पर अंधों की तरह ढो रहा है। आज भले ही विधवाओं को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं फिर भी वह तमाम कानून कागजों पर दर्ज हैं क्योंकि उनको मानने वाले अभी उस हद तक मानवीय नहीं हो पाये हैं। इस देश में आज भी कई विधवा महिलाएँ मीडिया के चमचमाते कैमरों और कमरों से दूर इस दर्द को जी रही हैं।
अंत में हम कह सकते हैं कि प्रस्तुत रेखचित्र में महादेवी वर्मा ने विधवा के जीवन की त्रासदी को उजागर कर महिलाओं के प्रति हत्यारे समाज को आइना दिखाने का प्रयास किया है, जिसमें वह काफी हद तक सफल भी रही।
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