मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘दोनों ओर प्रेम पलता है’ का सारांश प्रस्तुत कीजिए।
‘दोनों ओर प्रेम पलता है’ कविता मैथिलीशरण गुप्त रचित महाकाव्य ‘साकेत’ के नवम सर्ग में संकलित है। इस कविता में उभय पक्षीय प्रेम की महत्ता का वर्णन किया गया है। दीपक और पतंगे के प्रतीक के माध्यम से उर्मिला कहती है। हे सखि! दोनों ओर प्रेम पलता है। दीपक जो जलता ही है उसकी लौ में पतंगा भी जलता है। दीपक पतंगे को समझाता है कि तू व्यर्थ में क्यों जलता है, लेकिन पतंगा उसकी लौ में पड़कर ही रहता है। प्रेम में कितनी विवशता है। पतंगा यदि अपने प्राण बचा भी ले तो उसे प्रेम में सफल न कहा जाएगा। दीपक के जलने में तो फिर भी जीवन की लाली है, लेकिन पतंगे की भाग्य-लिपि तो काली है। सब भाग्य के अधीन है, किसी का वश नहीं चलता। प्रेम में बलिदान प्रशंस्य है।
दूसरी ओर दीपक स्वयं अपनी ज्वाला में धीरे-धीरे जलता रहता है, परन्तु वह पतिंगे को जलने से रोकना चाहता है। पतिंगा दीपक की ज्वाला से आकर्षित होकर रूप लिप्सा में अपने को मिटा देने की इच्छा से उसके समीप जाता है। भावों की विहलता में यह भी नहीं सोचता है कि यह ज्वाला उसे नष्ट कर देगी। दूसरी ओर दीपक प्रेम की अग्नि में जलते हुए भी अपने प्रेमी को उस जलन से बचाना चाहता है। यह सिर हिला हिलाकर पतिंगे को अपने समीप आने से मना करता है, परन्तु पतिंगा कब मानता है? वह दीपक ज्वाला में उत्सर्ग होकर ही रहता है। इस प्रकार दीपक और पतिंगे दोनों में ही भावों की विहलता दर्शनीय है। प्रेम में उत्सर्ग होकर पतिंगा अपनी विह्नलता का परिचय देता है और उसे रोकने का प्रयास करता करने पर भी उसको न रोक सकने की विवशता और उसका उत्सर्ग देखकर भी मंद-मंद जलते रहना दीपक की अन्तर्दाहिकता को व्यक्त करता है। इस प्रकार प्रेम दोनों ओर पलता है—एक ओर नहीं।
उर्मिला कहती है—पतिंगा यदि दीपक का संकेत समझकर स्वयं को उसकी लौ से दूर कर भी ले तो यह स्पष्ट भी उससके लिए मरण तुल्य ही होगा। प्रणय-भाव को त्याग कर जीवित रहना प्रेमी ह्रदय के लिए अत्यन्त कष्टकारी ही होगा, अतः यदि वह जलेगा नहीं तो पश्चाताप की आग में जीवन-पर्यन्त झुलसता रहेगा, क्योंकि प्रिय से दूर, प्रणय-त्यागकर जीवित रहनाा किसी भी प्रकार से उचित नहीं माना जा सकता। दीपक की लौ में प्राणोत्सर्ग करना असफलता नहीं है अपितु जीवित रहना ही उसके जीवन की असफलता होगी, क्योंकि प्रेम दोनों ओर समान भाव से पलता है।
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