मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना पर प्रकाश डालिए। अथवा ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में मैथिलीशरण गुप्त का मूल्यांकान कीजिए। अथवा सिद्ध कीजिए मैथिलीशरण गुप्त जी राष्ट्रीय कवि हैं?
मैथिलीशरण गुप्त के सम्पूर्ण काव्य ग्रन्थों में लगभग प्रत्येक जगह राष्ट्रीय भावना का रूप देखने को मिलता है। गुप्त जी की कविता में राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रोत्थान, राष्ट्र निर्माण तथा राष्ट्र कल्याण के जो भाव छिपे हैं वे तत्कालीन राष्ट्रीय कवियों में विरले ही मिलेंगे। मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय काव्य लेखन की भावधारा भारतेन्दु जी के ‘भारत दुर्दशा’ शीर्षक की भाँति ब्रजभाषा में लिखी गयी। पहली कविता ‘प्रार्थना पंचक’ शीर्षक से प्रारम्भ हुई जो द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित पत्र ‘राघवेन्द्र’ में प्रकाशित हुई। कुछ पंक्तियाँ उस कविता की इस प्रकार हैं-
साहत हैं नित दुःख वियोग को, बन गयो गृह भारत रोग को।
सुख विहीन अधोमुख है परो, अजहुँ दीन दयालु दया करो।
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना में अपनी भाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का भाव विद्यमान था। उनका दृष्टिकोण विशुद्ध राष्ट्रीय था, उनकी कविता ‘नागरी और हिन्दी’ इसका प्रबल प्रमाण है-
है एक लिपि विस्तार होगा योग्य हिन्दुस्तान में
अब आ गई यह बात सब विद्जनों के ध्यान में।
सरस्वती पत्रिका में उनकी राष्ट्रीय भावना की एक कविता ‘स्वर्ग सहोदर’ शीर्षक से छपी थी जो इस प्रकार है-
जितने गुण सागर नागर हैं,
कहते यह बात उजागर है।
भारत की महानता का वर्णन करने वाले कवि गुप्त जी के मन में भारत के प्रति दुःख प्रकट करने का भी पर्याप्त अवसर था-
सुख का सब साधन है इसमें ।
भरपूर भरा धन है इसमें ।
मैथिलीशरण गुप्त जी की राष्ट्रीय काव्यधारा की प्राण तत्व के रूप में उनकी श्रेष्ठ काव्य कृति ‘भारत भारती’ है। यह कृति मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि बनाने के लिए पर्याप्त है। गुप्त जी की भारत-भारती कविता यद्यपि उग्र राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बन गयी थी परन्तु वास्तव में देखा जाय तो वह श्री मैथिलीशरण गुप्त की समन्वीय वैष्णव स्वभाव की देन ही है। अकाल के समय पैसे का अभाव निर्धन वर्ग पर सबसे अधिक होता है, उसी को संकेत करके गुप्त जी कहते हैं-
दुर्भिक्ष मानो देह धर के घूमता सब ओर है,
हा! अन्न! हा! अन्न का रव गूँजता घनघोर है।
भारत भारती ने जहाँ एक ओर राज्य क्रान्ति करने में अहम भूमिका निभाई है वहीं उसकी गूँज हर भारतवासी पर पड़ी और वह उद्वेलित हो उठा, भारत भारती की मंगलाचरण में गुप्त जी लिखते हैं-
“मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती-
भगवान ! भारत वर्ष में गूँजे हमारी भारती।”
गुप्त जी अपने आराध्य राम से भी यह प्रार्थना करते हैं कि हमें ऐसी प्रेरणा दें जिससे हम अपने देश, अपनी संस्कृति व अपनी वेशभूषा को न भूल पाएँ-
राम, तुम्हें यह देश न भूले,
धाम-धरा-धन जाय भले ही,
यह अपना उद्देश्य न भूले।
मेरा देश’ शीर्षक में गुप्त जी के राष्ट्रीय विचार कुछ इस प्रकार हैं-
बलिहारी तेरा वर देष, मेरा भारत, मेरे देश।
बाहर मुकुट विभूषित काल, भीतर जटाजूट का जाल।
‘चेतना’ नामक कविता में तो गुप्तजी भारत को सचेत करते दिखायी देते हैं-
अरे भारत ! उठ आँखें खोल,
उड़कर यन्त्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल।
‘स्वदेश-संगीत’ कविता में उन्होंने भारत के सम्बन्ध में कहा है-
उत्पन्न मुक्ति भी हुई अहा! भारत में,
मनु के स्वतन्त्र को सुखी कहा भारत में।
गुप्त जी की ‘मातृभूमि’ कविता पद्य-प्रबन्ध में है किन्तु उसी के समय गुप्त जी की राष्ट्रीय भावना की एक कविता इस प्रकार है –
मस्तक ऊँचा हुआ यहीं का, धन्य हिमाचल का उत्कर्ष ।
हरि का क्रीड़ा क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारत वर्ष।
गुप्त जी की अनेक कविताएँ भारत की प्रशंसा में हैं, ‘भारत की विजय की मेरी और ‘भारत को जय’ आदि इसी प्रकार की कविताएँ हैं। यहाँ तक कि वैष्णव कवि मैथिलीशरण गुप्त ने जो भजन गाया उसमें भी राष्ट्रीय भावना का रुप दृष्टिगत होता है। कवि भारत को भगवान मानता है-
भजो भारत को तन मन से।
बनो जड़ हाय! न चेतन से।
गुप्त जी गाँधीवादी विचारधारा के कवि थे, उनकी यह कविता गाँधी-दर्शन व्यक्त करती है-
अस्थिर किया टोप वालों को, गाँधी टोपी वालों ने।
शस्त्र बिना संग्राम किया है, इन माई के लालों ने।
स्वाधीन भारत के बाद भी गुप्त की राष्ट्रीय भावना बलवती रही, स्वतन्त्रता के बाद विगत परतन्त्रता काल में अपनी रीति नीतियों को कवि ने ‘ध्वज वन्दना’ कबिता में व्यक्त में किया है।
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