मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में नारी भावना को स्पष्ट कीजिए।
नारी के प्रति तीव्र संवेदना एवं सर्वाधिक प्रबल विचारों से गुप्तजी ने साकेत को आविर्भाव किया। गुप्तजी को भारतीय नारी में अगाध श्रद्धा थी। द्विवेदी युग में नारी की तीव्र प्रतिक्रिया का प्रतिनिधित्व साकेत करता है।
नारी विषयक भावना- गुप्त जी की ये पंक्तियाँ उनकी नारी विषयक धारणा को स्पष्ट करने में सक्षम हैं-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ॥
यह नारी का भले ही कोमल, मातृत्व रूप हो, उसका दुःखी रूप भी हो, पर गुप्त जी की नारी अबला ही नहीं सबला भी है। ‘द्वापर’ में नारी का यही रूप उभर कर सामने आया है।
एक ओर उन्होंने नारी पर लगाये बन्धनों का यह कहकर विरोध किया-
नरकृत शास्त्रों के बन्धन हैं सब नारी ही को लेकर।
अपने लिए सभी सुविधाएँ, पहले ही कर बैठे नर ॥
तो दूसरी ओर उसकी महत्ता स्थापित करने के लिए उसे नर से भारी सिद्ध किया-
एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी ।
गुप्त जी ने ‘द्वापर’ में नारी की समस्या को व्यापक रूप में चित्रित किया है। इसमें कवि ने ‘विधृता’ नारी-पात्र की कल्पना करके नारी की दयनीय, शोषित, उपेक्षित और असहायावस्था की मार्मिक व्यंजना की है। पुरुष के अत्याचारों का स्पष्ट उल्लेख करते हुए वे कहते हैं-
अविश्वास हा! अविश्वास ही, नारी के प्रति नर का।
नर के तो सौ दोष क्षमा हैं, स्वामी है वह घर का।
नारी की यथार्थ दुरावस्था को उन्होंने कई रूपों में उभारा है। गुप्तजी के काव्य में नारी के विविध रूप परिलक्षित होते हैं। कहीं वह कुलबधू रूप में गृहस्थ की मर्यादा का निर्वाह करती दिखायी देती है, गृहस्वामिनी रूप में गृहस्थ जीवन का भार वहन करती हुई लक्षित होती है, कहीं प्रिय के आलिंगन में बद्ध होकर निवेदन करती हुई, कहीं विरहिणी रूप में रूप में अखिल विश्व को आँसुओं से भिगोती हुई, कहीं सृष्टि की ऊर्जा बनकर उर्ध्व चेतना को स्फुटित करती हुई, कहीं वीरांगना रूप में हुंकार भरती हुई, कहीं पुत्र-वत्सला रूप में स्नेह, प्रेम एवं वात्सल्य का पराग विकीर्ण करती हुई, कहीं जनसेविका रूप में अपने अस्तित्व को ही समाज के लिए अर्पित करती हुई हमारे समक्ष उपस्थित हुई है। वास्तविकता यह है कि गुप्त जी नारी स्वतन्त्रता के पक्षधर ही नहीं, वरन् वे नारी की पूर्ण स्वतन्त्रता के आकांक्षी हैं।
युग-युग से पराक्रान्ता नारी के आँसू को पोंछकर कवि ने उसे पुरुषों द्वारा स्नेह और सम्मान दिलाया है। लक्ष्मण की उर्मिला के चरणों में गिर पड़ना, स्वयं को उसका ‘दास’ कहना इसी प्रयोग से प्रेरित है। दम्पत्ति के सहज स्नेह और सौहार्द्र के परिणामस्वरूप वह हृदय देवी का आसन ग्रहण करती है। कवि ने ‘अबला’ शब्द का यत्र-तत्र स्पष्टीकरण किया है। इस शब्द के पीछे व्यंग्य के आक्षेप का भी प्रयोग हुआ है। लक्ष्मण की उक्ति है-
“अवश-अबला तुम? सकल बल वीरता, बाँटती हो दिव्य फल फलती हुई ।”
यह उक्ति नव-युग चेतना से ओत-प्रोत है। उर्मिला के उत्तर द्वारा वे नारी मन की जिस निरीहता का स्पष्टीकरण करते हैं उससे संवेदनशील पृष्ठभूमि का निर्माण होता है। उर्मिला का नारीमन कहता है-
“खोजती हैं किन्तु आश्रय मात्र हम, चाहती हैं एक तुम सा पात्र हम,
आन्तरिक सुख-दुःख हम जिसमें धरें, और निज भव-भार यों हल्का करें।”
गुप्तजी नारीत्व के सभी पक्षों का संस्पर्श करते हैं। साकेत की नारियाँ पति और पुत्र की कल्पना कामना में सतत सक्रिय हैं। उर्मिला भ्रातृ-भाव की पूर्ति के लिये आत्मोत्सर्ग कर देती है। वह उदारतापूर्वक ‘अपना भाग’ त्याग देती है और ‘प्रिय पथ का विघ्न न बनने’ का कठोर संकल्प करती है। सीता पति की ‘धर्मचारिणी’ होने के लिये अटल अनुरोध करती है। उनके कथनानुसार “पति पत्नी की गति है।” पति के गौरव में नारी का अर्द्ध-भाग है। वनवासी जीवन में सीता इसी महात् उद्देश्य का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
अन्य नारियों को भी कवि समन्वित दृष्टि से देखता है। कौशल्या का करुण वात्सल्य, निराभिमान मातृत्व और दयनीय वैधव्य अत्यधिक सुसंवेद्य है। मानिनी सुमित्रा का गर्वोद्धत क्षत्रियत्व तथा उत्सर्ग भाव वरेण्य है। कैकेयी की कारुणिक स्थित, विश्व-व्रीड़ा तथा उसका ‘भावना की भुक्ति’ भी संवेदनशील हो उठती है। इसी प्रकार माण्डवी ‘अपने प्रभु की पुजारिन’ बनी हुई भरत को सत्कर्त्तव्य की ओर उन्मुख करने में सहायक हैं। श्रुतिकीर्ति भी अपने त्याग, बलिदान एवं शौर्य का परिचय देने वाली पतिभक्ता नारी है। साकेत की अन्य नारियाँ भी ‘रामकज क्षण भंग शरीरा’ घोषित करके पतियों और पुत्रों को सेना में सहर्ष भेज रही हैं। इस प्रकार नारियों की कर्त्तव्यनिष्ठा, उनकी अन्तर्वाह्य क्रियायें और उनकी सहिष्णुता का परिचय देकर कवि ने उन्हें भाव-विभोर होकर श्रद्धा समर्पित की है। संक्षिप्त रूप से कहा जा सकता है कि गुप्त जी ने अपने काव्य में नारी को उच्चतम स्थान प्रदान किया है। उसे पुरुष की यात्री संरक्षिका और प्रेरणा के साथ-साथ पुरुष के कार्यों में सहायिका के रूप में प्रस्तुत किया । मैथिलाशरण गुप्त नारित्व को अत्यन्त गौरवपूर्ण आसन पर प्रतिस्थित किया है साकेत में नारी भावना का उत्कृष्टतम रूप है।
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