मैथिलीशरण गुप्त जी की कविता ‘कला’ की विवेचना कीजिए।
मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘कला’ नित्य नूतन उद्भावनाओं को जन्म देने वाली है। करुणा पर दुःखकातरता अथवा संवेदना से इसका जन्म होता है। जो कल्पना से सँवरकर सुन्दर मनोरम बनती है। जीवन और जगत् का कोई भी कल्पना ऐसा नहीं है जो इसके माध्यम से व्यंजित न हो सके। जिसके हृदय में कला जन्म लेती है, वह धन्य और अमर हो जाता है। चित्रकला, गायन, वादन, नृत्य अथवा काव्यकला द्वारा अनेक संतों की अभिव्यक्ति की जा सकती है। काव्यवर्णित नौ रस तो प्रसिद्ध ही है। विभिन्न देश की कला और साहित्य में वहाँ की संस्कृति जीवन्त-रूप में चित्रित होती है। गुप्त जी कहते है-
“चमक उठा वह भीतर-बाहर ज्यों ही तूने जिसे छुआ!
बहुरंगिणी, तेरे रंगों में कहाँ कौन रस कब न चुआ!
उतर विश्व की आँखों पर तू देश-देश का वेश धरे!”
समाज में यत्र-तत्र सर्वत्र कला की चर्चा होती रहती है। मनुष्येतर प्राणी यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी कला के प्रभाव से विमुग्ध रहते हैं। इसके दुर्निवार प्रभाव से जड़ भी चेतनावान् बन जाते हैं। अनुभूति की अभिव्यक्ति ही कविता है। पहले यह हृदय में जन्म पाती है, फिर वाणी द्वारा अभिव्यक्त होती है। कवि ने वर्णन किया है-
“आ, नव-नव निर्देश धरे?
अपने ही अन्तस् की कोई किस प्रकार समझे-बूझे?
किस प्रकार उत्साहित होकर अपने अशुभों से जूझे?
कैसे राम और रावण का भिन्नमार्ग कोई सूझे?
उतर विश्व की वाणी में तू, आ असंख्य आवेश धरे।
लोकजीवन का सुख-दुःख कविता में वर्णित होता है। इसमें कवि के निजी जीवन का ही लेखा-जोखा नहीं होता। मात्र अपने मंगल से जुड़कर वह सीधे लोकमंगल से जुड़ता है। वह सबके हित की बात करता है, तभी उसका सर्जन साहित्य कहलाता है। यह हमारे सद्-असद् विवेक को जगाकर करणीय और अकरणीय का भेद बताता है। चूँकि कविता संवेगों की अभिव्यक्ति है, अतः अनेक प्रकार के भाव-विचार कवि की वाणी से प्रकट होते हैं। गुप्त जी कहते हैं-
“आ, नव-नव निर्देश धरे।
किसकी कसक मोहिनी बन कर जन को अमृत पिलाती है?
तेरी भूमि पत्थरों पर भी कितने कमल खिलाती है!
तू वह माया है जो उलटा हरि से हमें मिलाती है!
नहीं चन्द्र को, चन्द्रकला को सिर पर स्वयं भवेश धरे!
आ, नव-नव निर्देश धरे !”
कविता या कला में दुःख भी मंगलकारी लगने लगता है। इसका अनुशीलन ब्रह्मानुभूति-जैसा आनंद प्रदान करता है। जहाँ-जिस ह्रदय में कला का जन्म होता है, वह अज्ञानी है तो ज्ञानी, पाषाण है तो सहृदय बन जाता है। वस्तुतः सांसारिक माया जीव और ब्रह्म के मिलन में बाधक होती है, किन्तु कला-कवितारूपी माया परमानन्द का साक्षात्कार कराती है। यही कारण है कि पूर्ण चन्द्र को छोड़कर भगवान शिव स्वयं चन्द्रकला को धारण करते हैं। यह कला की अपरिमित महिमा है।
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