राजनीतिक विचारधारा में साम्यवाद का क्या विचार था? स्पष्ट व्याख्या करे।
सर्वाधिकारवादी विचार (Totalitarian View )- विचारधारा के रूप में, सर्वाधिकारवाद में मार्क्सवादी सिद्धान्त का विस्तार एवं उसका पूर्ण विरोध ढूंढा जा सकता है जो विचारों को यन्त्र के रूप में लेता है जिससे नये समाज का निर्माण हो सके या पहले से मौजूद समाज को पूर्ण नव-निर्माण से बचाया जा सके। इस प्रकार, सर्वाधिकारवाद की विचारधारा के दो परस्पर विरोधी आयाम हैं। जबकि ‘वामपंथी’ सिद्धान्त के रूप में इसका निहितार्थ साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना करना है जो मार्क्सवाद के तत्वों से प्रेरणा ग्रहण करती है, ‘दक्षिणपंथी’ सिद्धान्त के रूप में यह यथास्थिति को बनाये रखने का समर्थक है और इसे आम तौर पर फासीवाद के नाम से जाना जाता है। साम्यवाद बुर्जुआ वर्ग द्वारा श्रम वर्ग के शोषण और दमन के प्रतिमान के रूप में वर्तमान व्यवस्था की निन्दा करता है और इसलिये उसके स्थान पर एक नयी व्यवस्था लाने की अपेक्षा करता है जिसमें सरकार सर्वहारा की तानाशाही होने के कारण वर्गहीन समाज बनाने हेतु सम्भव साधन प्रयोग में लाती है। इसके विपरीत, फासीवाद की विचारधारा है। जो यथास्थिति को बनाये रखने की कामना करती है और इस नाते साम्यवाद को अपना जानी दुश्मन समझती है। बहरहाल, दोनों में यह समानता है कि वे एक नृशंस और एकरूपी प्रणाली के समर्थक हैं जो, कार्ल पॉपर के शब्दों में, उन्हें एक स्वतन्त्र और खुले समाज का शत्रु बना देती है। ऐसी स्थिति में “दोनों विचारधाराएँ आवश्यक रूप में विचारों की कार्य सम्बन्धित प्रणालियाँ हैं। विशिष्ट रूप में इसको प्राप्त करने के लिये उनके पास एक कार्यक्रम और एक नीति है और उनका आवश्यक प्रयोजन उन संगठनों को एक करना है जो उनके चारों ओर बने हैं।”
कड़े अर्थ में सर्वाधिकारवाद ‘सरकारी विचारधारा’ का द्योतक है जिसमें सिद्धान्तों का अधिकृत संग्रह होता है और जो मानव के अस्तित्व के महत्वपूर्ण पक्षों को परिवर्तित कर देता है. जिन्हें उस समाज में रहने वाले सभी को, कम से कम, अप्रत्यक्ष रूप में मानना पड़ता है। इस विचारधारा को विशिष्ट रूप में मानवता की अन्तिम पूर्ण अवस्था की दिशा में प्रायोजित या निर्देशित किया जाता है। कहने का यह अभिप्राय है कि यह मौजूदा समाज का उम्र खंडन और नये जगत् के लिये आह्वान पर आधारित एक उज्जवल भविष्य के प्रति आसावादी दावा है।
वामपथी सर्वाधिकारवाद का अभिप्राय साम्यवाद (Communism) से है। इस दिशा में विचारधारा का कार्य वर्ग युद्ध के सिद्धान्त के आधार पर राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ का समझना है जिसके अनुसार शाषकों और शोषितों के बीच संघर्ष का अन्त बड़े वर्ग (सर्वहारा) की विजय और एक वर्गहीन व राज्यहीन समाज की स्थापना की पराकाष्ठा के रूप में होगा। इस स्थल पर जो विचित्र बात सामने आती है, वह यह है कि जिस विचारधारा की मार्क्स ने मिथ्या चेतना कहकर निन्दा की, वह स्पष्ट सम्वर्द्धन का विषय बन जाती है और उसके आधार पर बड़े पैमाने पर लोगों का सिद्धान्तबोधन किया जा सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि विचारधारात्मक अनुरूपता के बारे में तीव्र चिन्तन इस सिद्धान्त का विरोधाभासी परिणाम है कि विचार यन्त्रों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
यह कहा जाता है कि लेनिन द्वारा की गई व्याख्याओं से लैस मार्क्सवादी सिद्धान्त साम्यवादी विचारधारा की नींव है। बहरहाल, हालिया घटनाओं से पता चलता है कि अनेक साम्यवादी नेताओं और सिद्धान्तशात्रियों के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। अतः हम देखते हैं कि जबकि लेनिन अपनी रचना स्टेट एण्ड रिवोल्यूशन में यह कहता है कि सर्वहारा को मात्र राज्य की आवश्यकता है जिसका लोप हो रहा है और जिसका लोप होकर रहेगा। उसके उत्तराधिकारी (स्टालिन) ने इसे संशोधित किया और कहा कि यह तब तक सम्भव नहीं हो सकता जब तक विश्व भर में समाजवाद की विजय न हो जाये। चीनी साम्यवाद के जनक (माओ) न स्थानीय विभिन्नताओं के तथ्य पर बल दिया जिसे रूसी नेताओं ने पसन्द नहीं किया और जिसका प्रभाव चीनी-रूसी मतभेदों के विकास पर पड़ा। इन मतभेदों के बावजूद, बहरहाल, सभी साम्यवादी लेखक इस बुनियादी तत्व से सहमत है कि हर ऐतिहासिक युग के विकास के बारे में अपने नियम होते हैं।
दक्षिणपंथी सर्वाधिकारवाद का अभिप्राय फासीवाद (Fascism) से है। इसके आवश्यक लक्षण है— एक सर्वशक्तिमान राज्य और यथास्थिति को बनाये रखना। इस नाते दक्षिणपंथी सर्वाधिकारवाद (यथा – इटली में फासीवाद और जर्मनी में नाजीवाद) मुसोलिनी के शब्दों में एक निरंकुश राज्य का समर्थन करता है जो एक पूर्ण, एकीकृत और क्रान्तिकारी परिपूर्णता के लिये निम्न की अपेक्षा करता है—
(i) एक पार्टी जिसके माध्यम से राजनीतिक और आर्थिक नियन्त्रण किया जायेगा, जो प्रतियोगी हितों से ऊपर होगी, ऐसा बन्धन जो सभी लोगों को समान आस्था में बाँधेगा; (ii) एक सर्वाधिकारवादी या सर्वआत्मसाती राज्य और (iii) अत्यधिक ऊँचे तनाव के युग में जीवन। हिटलर ने समाज के सदस्य के हित की अपेक्षा समुदाय के हित पर बल गिया। इस प्रकार, फासीवाद की विचारधारा में एक सर्वशक्तिमान राज्य और एक अप्रतिरोध्य सरकार पर बल दिया गया है। “व्यक्तियों के सभी विशेषतावादी हितों को एक सर्वशक्तिमान और राष्ट्र के सोपानिक संगठन द्वारा दबाया जाना चाहिये।” साथ ही दक्षिणपंथी स्वरूप के कारण फासीवाद को एक अनुदारवादी और प्रतिक्रियावादी विचारधारा समझा जाता है।
जाहिर है कि सर्वाधिकवाद की स्थिति में विचारधारा का अभिप्राय अपना विशिष्ट रूप धारण कर लेता है। विचारधारा विचारों का युक्तियुक्त रूप में विवेकसंगत समुच्चय है जिसका सम्बन्ध समाज में पतन और सुधार लाने के लिये व्यावहारिक उपायों से है, यह कमोवेश इस सविस्तार आलोचना पर आधारित है कि मौजूदा या पर्ववत् समाज में क्या दोष है और सर्वाधिकारवादी विचारधारा वह है जिसका सम्पूर्ण विनाश और पुनः निर्माण से सम्बन्ध है जिसमें ऐसे सम्पूर्ण विनाश के लिये एकमात्र व्यावहारिक साधन के रूप में हिंसा को विशिष्ट व विचारधारात्मक रूप में स्वीकार किया जाता है। तदनुसार इसे उन व्यावहारिक साधनों के सम्बन्ध में तर्कसंगत विचारों के समुच्चय के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है कि मौजूदा या पूर्ववर्ती समाज में क्या दोष है या इसकी सर्वव्यापी या पूर्ण आलोचना का आधार पर बल और हिंसा से समाज में कैसे परिवर्तन लाया जा सकता है।
सर्वाधिकारवादी विचारधारा के बारे में वास्तविक कठिनाई यह है कि यह या तो मिथक बन जाती है या कल्पना। यह मिथक बनती है जब इसे लोगों पर बल के प्रयोग से थोपा जाता है, यह कल्पना बन जाती है जब लोगों का सिद्धान्तबोधन किया जाता है कि वे मानव जीवन के स्वर्ण युग के आविर्भाव में आस्था रखें। क्योंकि विचाधारा शब्द का विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल किया जाता है, इसके विशिष्ट रूप को इसके किसी प्रामाणिक या वैध रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता। फासीवाद और साम्यवाद दोनों एक विशेष जीवन पद्धति को अपनाना चाहते हैं और फिर उसी दिशा में मानव जीवन के दमन का समर्थन करते हैं। स्वाभाविक रूप में, विचारधारा की परिभाषा का ‘पृथक’ न कि ‘सामूहिक’ लक्ष्यार्थ हो जाता है। यह साम्यवाद की स्थिति में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जहाँ लोगों को मानव स्वतन्त्रता के स्वर्णिम युग की दिशा में विचार करने का शिक्षण दिया जाता है जब अलगाव के अभिशाप के स्थान पर स्वतन्त्र और स्वयं सेवी सहभाजिता के वरदान की स्थापना की जायेगी। अपने लिये विचारधारा की बंधित व्याख्या तक सीमित करने की बजाय हमें इसके व्यापक लक्ष्यार्थ को स्वीकार करना चाहिए। सामाजिक व राजनीतिक सिद्धान्त और विज्ञान के सन्दर्भ में, इसका निहितार्थ हो जाता है कि इसके अन्तर्गत तथ्यगत और नैतिक सूत्र आ जाते हैं जो संगठित सामाजिक कार्यवाही, विशेषकर राजनीतिक कार्यवाही के अर्थोपायों को प्रस्तुत करने, उनकी व्याख्या करने और उनको औचित्य प्रदान करने का कार्य करते है, चाहे ऐसी कार्यवाही का उद्देश्य किसी व्यवस्था का परिरक्षण, संशोधन, विनाश या पुनः निर्माण करना हो ।
विचारधारा का अन्त (End of Ideology)-
हाल में इस विषय पर नये सिद्धान्त का विकास हुआ है जिसमें डेनियल बेल और राबर्ट ई. लेन जैसे कुछ अमरीकी समाज सिद्धान्तशास्त्रियों के योगदान का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। इन लेखकों के अनुसार, विचारधारा का अन्त हो गया है। उनकी मान्यता है कि पश्चिमी समाजों का इस प्रकार और इतना अधिक विकास हो चुका है कि अब किसी विचारधारा की आवश्यकता नहीं है। अब वैज्ञानिक समाज की तकनीकी ने विचारधाराओं या उनके कार्य सम्बन्धी कार्यक्रमों को ले लिया है। उनके तर्क की यह टेक है कि मार्क्स की मृत्यु के बाद काफी समय बीत गया और तब से लेकर अब तक बुर्जुआ चिन्तन की बहुत प्रगति हो चुकी है। वस्तुतः बुर्जुआ चिन्तन ने कई भये रूप धारण किये हैं जिनकी मार्क्स और उसके कट्टर समर्थक कभी कल्पना नहीं कर सके। इसका यह परिणाम हुआ हैं कि सर्वहारा समेत लोगों के जीवन में बहुत अधिक सुधार हुआ है। अतः विचारधारा का अन्त हो गया है।
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