राजनीतिशास्त्र की प्रकृति का विस्तार पूर्वक वर्णन करो।
राजनीतिशास्त्र की प्रकृति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न विचार है। कुछ विद्वान उसे एक विज्ञान की संज्ञा देते है जबकि कुछ उसे एक कला मानते हैं। बर्कले, मैटलैण्ड और कॉम्टे आदि राजनीतिक विचारक राजनीतिशास्त्र को विज्ञान नहीं मानते परन्तु गार्नर, लीकोंक, ब्लंटशली, ब्राइस और सीले आदि उसे विज्ञान की संज्ञा देने को तैयार नहीं हैं, वे उसे कला ही कहते हैं। राजनीतिक विचारकों का एक बड़ा वर्ग राजनीतिशास्त्र को विज्ञान तो मानता है परन्तु उसे सुनिश्चित विज्ञान नहीं मानता।
(1) राजनीतिशास्त्र – विज्ञान के रूप में (Political Science: As a Science) – राजनीतिशास्त्र विज्ञान है अथवा नहीं, इस तथ्य पर विचार करने के पूर्व हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक होगा कि विज्ञान क्या है? किसी विषय के क्रमबद्ध ज्ञान को विज्ञान की संज्ञा दी जाती है। विज्ञान का कार्य तत्वों का वर्गीकरण करना, उसके आपसी महत्व और सम्बन्धों को स्पष्ट करना एवं सामान्य रूप से लागू होने वाले सिद्धान्तों का निर्माण करना होता है। थामसन ने अपनी पुस्तक ‘इण्ट्रोडक्शन ऑफ साइंस’ (Introduction of Science) में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है- ‘विज्ञान का कार्य तत्वों की जाँच करना, उनका लेखा देना और वर्गीकरण करना है।’
(अ) राजनीतिशास्त्र एक विज्ञान नहीं है- बर्कले, राजनीतिशास्त्र को विज्ञान मानना उचित नहीं समझते। बर्कले का विचार है, “राजनीतिशास्त्र का विज्ञान होना तो दूर की बात है, यह तो कलाओं में सर्वाधिक पिछड़ा हुआ है।” मैटलैण्ड लिखता है- ‘जब राजनीतिशास्त्र शब्द द्वारा शीर्षक परीक्षा के प्रश्नों का एक सुन्दर निर्धारण रख पाना कठिन है। यही कारण है कि राजनीतिशास्त्र अपनी अध्ययन पद्धतियों की उपयुक्तता तथा निष्कर्ष की शुद्धता के विषय में प्राकृतिक विज्ञानों की बराबरी नहीं कर सकता, परन्तु इस आधार पर ही उसे विज्ञान न मानना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें भी वैज्ञानिक पद्धतियों का समुचित रूप से प्रयोग किया जाता है और पर्याप्त रूप में शुद्ध निष्कर्ष निकाले जाते हैं।’
(i) राजनीतिशास्त्र में पर्यवेक्षण सम्भव- राजनीतिशास्त्र में पर्यवेक्षण सम्भव है। और उसके द्वारा उन तथ्यों का पता लगाया जा सकता है जिन्हें विज्ञान के अर्थ में सत्य कहा जाता है। प्राचीन युग में भारत के विभिन्न राज्यों का पर्यवेक्षण करके चाणक्य इस परिणाम पर पहुँचा था कि यदि दण्ड-शक्ति का दुरुपयोग किया जाय तो गृहस्थों को तो जाने दीजिए, वानप्रस्थ तथा संन्यासी भी क्रुद्ध हो जाते है और विद्रोह हो जाता है।
(ii) राजनीतिशास्त्र में परीक्षण सम्भव- राजनीतिशास्त्र में किसी प्रयोगशाला में परीक्षण नहीं किया जाता, बल्कि वृहत् दृष्टिकोण से अन्य प्रकार के प्रयोग हुआ करते हैं। सम्पूर्ण राज्य की राजनीतिशास्त्र के परीक्षण की प्रयोगशाला होती है। किसी राज्य में जब कोई नया कानून बनता है या किसी प्रकार की शासन व्यवस्था को बनाया जाता है तो वह एक प्रकार से राजनीतिशास्त्र में परीक्षण ही है। हिटलर और मुसोलिनी ने नये सिद्धान्तों के परीक्षण ही किये, जिन्हें हम नाजीवाद और फासीवाद के नाम से पुकारते हैं।
(iii) राजनीतिशास्त्र एक क्रमबद्ध ज्ञान है- विज्ञान को क्रमबद्ध ज्ञान कहा जाता है। राजनीतिशास्त्र भी एक क्रमबद्ध ज्ञान है। राजनीतिशास्त्र भी ज्ञान की एक अलग शाखा है जिसका क्षेत्र निश्चित है, जिसके अधिकतर नियमों की स्थापना हो चुकी है और उसकी विभिन्न बातों पर अन्वेषण किया जा चुका है। इन समस्त बातों को एक क्रम में संजोकर पढ़ा जा सकता है। राजनीतिशास्त्र राज्य की उत्पत्ति, विकास कार्य एवं स्वरूप आदि के विषय में एक क्रमबद्ध ज्ञान प्रस्तुत करता है और इस दृष्टिकोण से वह एक विज्ञान है।
(iv) सामान्य निष्कर्षो-सिद्धान्तों का पाया जाना- राजनीतिशास्त्र में विभिन्न पद्धतियों के सहारे एक निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी तथ्यों को एकत्र करते हैं, फिर कार्य-कारण का तारतम्य मिलाते हैं और तब समुचित सिद्धान्तों की खोज करके सामान्य निष्कर्ष निकालते हैं। राजनीतिशास्त्र का सामान्य नियम है कि न्यायपालिका को से स्वतन्त्र रहना चाहिए। इस सामान्य सिद्धान्त या निष्कर्ष से इन्कार नहीं किया जा इसे सभी स्वीकार करते हैं।
(v) राजनीतिशास्त्र में भविष्यवाणी सम्भव- यद्यपि यह ठीक है कि राजनीतिशास्त्र में प्राकृतिक विज्ञान की भाँति निश्चित भविष्यवाणी नहीं हो सकती, परन्तु यह अवश्य स्वीकार किया जायेगा कि इस शास्त्र में भी भविष्यवाणी की जा सकती है। डॉ. फाइनर का मत है – ‘हम ‘भविष्य की सम्भावनाओं के विषय में तो अवश्य ही भविष्यवाणी कर सकते हैं, चाहे उसे हम पूर्ण निश्चितता के साथ न कह सके। यह बात प्रकृति विज्ञान के विषय में भी कही जा सकती है और ‘भविष्यवाणियों का शत-प्रतिशत सही न होना इस बात का परिचायक नहीं है कि राजनीतिशास्त्र विज्ञान नहीं है।’
(स) राजनीतिशास्त्र एक वास्तविक शुद्ध विज्ञान नहीं ( Political Science : Not a pure Science) – उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है-राजनीतिशास्त्र को विज्ञान माना जाना चाहिए, परन्तु उसे ऐसा विज्ञान नहीं माना जा सकता जैसे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान आदि को मानते हैं। यह विज्ञान कहलाने का तो अधिकारी है परन्तु उसमें शरीर विज्ञान, रसायन विज्ञान आदि जैसी सुनिश्चितता (Definiteness) नहीं है। सत्य तो यह है कि राजनीतिशास्त्र तार्किक विज्ञान न होकर प्रयोगात्मक विज्ञान है, परन्तु इस शास्त्र में प्रयोगों के द्वारा यह व्यवस्थागत (Inanimate) समस्याओं को हल न करके मानव समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं। मानव स्वभाव पहचानना अत्यन्त जटिल है। विभिन्न व्यक्तियों के विवेक और बुद्धि के विभिन्न स्तर होते हैं और सोच-विचार सामान्य नहीं होते। विभिन्न परिस्थितियों की विभिन्न मनुष्यों पर विभिन्न-
(i) तथ्यों के विषय में मतैक्य का अभाव- राजनीतिशास्त्र को विज्ञान न मानने का पहला प्रमुख कारण है कि राजनीतिशास्त्र के तथ्यों के विषय में मतैक्य नहीं है। भौतिक विज्ञान में तथ्यों के विषय में विद्वान एकमत होते हैं। उदाहरण के लिए यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि गर्मी पाकर पदार्थ बढ़ता है और ठण्डक पाकर सिकुड़ता है। राजनीतिशास्त्र में इस प्रकार के कोई सत्व सिद्धान्त नहीं है जिनके बारे में सभी लोग एकमत हों। वहाँ सिद्धान्त नहीं है जिसके बारे में मतभेद न हों।
(ii) कार्य-कारण सम्बन्ध न होना- राजनीतिशास्त्र के विज्ञान न होने का दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि इसमें कार्य-कारण का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जाता। राजनीतिक क्षेत्र की जो घटनाएँ होती हैं वे अनेक पेचीदा कारणों का परिणाम होती हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि कोई विशेष घटना कोई खास कारण का परिणाम है साथ ही वे घटनाएँ अनिश्चित भी होती है, जबकि विज्ञान की घटनाएँ अधिक एकरूप और सरल होती हैं।
(iii) पर्यवेक्षण एवं परीक्षण का अभाव – भौतिक विज्ञानों में पर्यवेक्षण प्रयोगों में किये जाते हैं, इन विज्ञानों में पर्यवेक्षण और परीक्षण के आधार पर ही सिद्धान्त निर्धारित किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति होती है, यह जानने के लिए हम कोई वस्तु उछाल कर देख सकते हैं कि वह पृथ्वी की तरफ आ जाती है। राजनीतिशास्त्र में इस प्रकार के पर्यवेक्षण और परीक्षण का कोई स्थान नहीं है। वहाँ इस प्रकार के परीक्षण की कल्पना असम्भव है। अन्य भौतिकशास्त्रों की भाँति राजनीतिशास्त्र की कोई प्रयोगशाला नहीं होती। राजनीतिशास्त्र में परीक्षण एवं पर्यवेक्षण के पदार्थ (मनुष्य के क्रियाकलाप) हमारे नियन्त्रण में उसी प्रकार नहीं होते जिस प्रकार भौतिक विज्ञान या रसायन विज्ञान के पदार्थ होते हैं।
(iv) निश्चित एवं शाश्वत नियमों का अभाव – अन्य भौतिक विज्ञानों की तरह राजनीतिशास्त्र के नियम निश्चित और शाश्वत नहीं होते। गणित का यह नियम कि दो और दो चार होते हैं, निश्चित और शाश्वत है। भौतिक विज्ञान का यह नियम कि पृथ्वी समस्त वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है, निश्चित शाश्वत है। राजनीतिशास्त्र का यह नियम कि “अधिकारों की अधिकता” मनुष्य को भ्रष्ट कर देती है, निश्चित एवं शाश्वत नहीं है। राजनीति में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
(v) राजनीतिशास्त्र का निरन्तर विकास नहीं- भौतिक विज्ञानों का निरन्तर विकास हो रहा है परन्तु राजनीतिशास्त्र के विकास के सम्बन्धों में यह नहीं कहा जा सकता।
(ब) राजनीतिशास्त्र एक विज्ञान है – अनेक विद्वान राजनीतिशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं। अरस्तू ने राजनीति को एक विज्ञान के रूप में स्वीकार किया और अपने राज्य विषयक अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया था। बाँदाँ, हॉक्स, माण्टेस्क्यू आदि विद्वानों ने भी राजनीतिशास्त्र को विज्ञान कहा है। आधुनिक युग में लेविस, सिजविक, ब्राइस, जेलिनिक और गार्नर आदि विद्वान भी राजनीतिशास्त्र को विज्ञान कहते हैं। पोलक भी राजनीतिशास्त्र को एक विज्ञान मानता है और कहता है- “जिस प्रकार नैतिकता एक विज्ञान है उसी भाव में और उसी तरह अथवा लगभग उसी सीमा तक राजनीतिशास्त्र भी विज्ञान है।”
(2) राजनीतिशास्त्र कला के रूप में (Political Science : As a Art ) अनेक राजनीतिक विचारक राजनीतिशास्त्र को कला भी मानते है। उनका विचार है कि जैसे अन्य सामाजिक विज्ञान के साथ ही कला भी है वैसे ही राजनीतिशास्त्र भी एक कला है। कला ज्ञान का क्रियात्मक रूप है। यह शास्त्र का वास्तविक जीवन में प्रयोग है। जब हम किसी सिद्धान्त को नियम एवं व्यवहार में लाते हैं तो व्यवहार का विशेष ढंग कला है। यह आदर्श तक पहुँचने का मार्ग बताता है। राजनीतिश्स्त्र एक सैद्धान्तिक ज्ञान ही नहीं है बल्कि उसका व्यावहारिक रूप भी है। राजनीतिक क्षेत्र का सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करके ही हम सन्तुष्ट नहीं होते। यह भी आवश्यक हो जाता है कि उस ज्ञान का मानव विकास के हेतु कुशल ढंग से प्रयोग भी हो। राजनीतिशास्त्र वहाँ तक तो विज्ञान है जहाँ तक वह तथ्यों का संग्रह, पर्यवेक्षण, प्रयोग एवं क्रमबद्धता स्थापित करता है। किन्तु उस समय वह कला का रूप धारण कर लेता है जब वह समाज के व्यक्तियों को उच्चस्तरीय नागरिकता की प्रेरणा प्रदान करता अथवा प्रशासकों को कार्य का ढंग बताता है।
अधिकतर विचारकों ने राजनीतिशास्त्र को विज्ञान के साथ ही कला की भी संज्ञा दी है। ब्लंटशली राजनीतिशास्त्र को कला ही मानता है। वह कहता है, “राजनीतिशास्त्र से विज्ञान की अपेक्षा कला का अधिक बोध होता है। राज्य का संचालन किस ढंग से हो, क्रियात्मक ढंग से वह कैसा व्यवहार करे, राजनीति में इन सब बातों का प्रतिपादन होता है।” गेटेल भी इस तथ्य से सहमत है। वह लिखता है— “राजनीति की कला का उद्देश्य मनुष्य के क्रियाकलापों से सम्बन्धित उन सिद्धान्तों तथा नियमों का निर्धारण करना है, जिन पर चलना राजनीतिक संस्थाओं के कुशल संचालन के लिए आवश्यक है।” इसी तरह बर्कले भी उसे एक कला ही स्वीकार करता है, भले ही वह उसे अत्यन्त निकृष्ट कोटि की कला मानता हो ।
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