राजनीति विज्ञान का अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध एवं उनका प्रभाव बताइये।
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राजनीति विज्ञान का अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध
20 वीं सदी के प्रारम्भ के साथ ही राजनीति विज्ञान अन्य विज्ञानों से घनिष्ठता प्रायः निर्विवाद रूप से स्वीकारी जाने लगी। व्यवहारवाद एवं उत्तर-व्यवहारवाद ने अन्तर अनुशासनात्मक अध्ययन की अनिवार्यता को स्थापित किया। इस विकास में अमेरिकी राजनीति वैज्ञानिकों विशेषकर शिकांगो स्कूल के राजनीति वैज्ञानिकों का प्रमुख योगदान रहा है। केटलिन, चार्ल्स मेरियम, गॉस्वेल, लासवेल, डेविड ईस्टन, स्टुअर्ट राइस, वी.ओ. की. (जूनियर) आदि ने अनुभववादी प्रमाणों के आधार पर अन्तर-अनशासनात्मक अध्ययनों को पुख्ता किया। पॉल जेनेट ने लिखा है कि “राजनीति शास्त्र का राजनीतिक अर्थव्यवस्था या अर्थशास्त्र से गहरा सम्बन्ध है इसका कानून से सम्बन्ध है चाहे वह प्राकृतिक हो या मानवीय जो कि नागरिकों के आपसी संबन्धों को नियमित करता है, वह इतिहास से सम्बन्धित है जो कि इसको आवश्यकता के अनुसार ‘तथ्य’ देता है, इसका ‘तत्व ज्ञान’ या दर्शनशास्त्र और विशेषकर नैतिकता या आचार से सम्बन्ध है जो कि इसको ‘सिद्धान्त’ देता है।
राजनीति विज्ञान तथा इतिहास
इतिहास मानव, मानव समुदाय, समाज, राज्य और अन्य संस्थाओं के उदय, विकास तथा पतन का वैज्ञानिक अध्ययन है। मानव सभ्यता तथा संस्कृति किन-किन दौरों से गुजरी, कैसे, क्यों गुजरी इसका अध्ययन इतिहास है। इतिहास गुजरे हुए जमाने का आईना है, जिसके द्वारा हम घटनाओं के कारण तथा प्रभाव (Cause and Effect) के सम्बन्धों को जानने का प्रयत्न करते हैं। इतिहास हमें सामाजिक विज्ञान के नियमों की जानकारी देता है। राजनीति विज्ञान तथा इतिहास परस्पर पूरक हैं। सीले के शब्दों में, “इतिहास बिना राजनीति की कोई जड़ नहीं। राजनीति बिना इतिहास का कोई फल नहीं।” फ्रीमैन ने दोनों विषयों की घनिष्ठता को व्यक्त करते हुए कहा है, “इतिहास अतीत की राजनीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है तथा राजनीति वर्तमान इतिहास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” अतः: दोनों विषयों की पारस्परिक प्रभावशीलता का अवलोकन आवश्यक है। इतिहास ने राजनीति विज्ञान को निम्न प्रकार प्रभावित किया है:-
1. इतिहास राजनीति विज्ञान का आधार है- इतिहास विगत की राजनीतिक घटनाओं व तथ्यों का एक ऐसा संग्रह है जिससे राजनीति विज्ञान को अपने सिद्धान्तों के निर्धारण में पर्याप्त सहायता मिलती है। लॉर्ड एक्टन ने कहा है, “राजनीति विज्ञान वह विज्ञान है जिसे इतिहास की धारा नदी के रेत में स्वर्ण-कणों की भाँति संग्रह करती है।” राजनीति विज्ञान इतिहास का मूल्यावान अनुभव है, जिससे राजनीतिक संस्थाओं को समझने में सहायता मिलती है। गैटिल का विचार है “राजनीतिक संस्थाओं को उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में ही समझा जा सकता है।”
2. इतिहास राजनीति विज्ञान की प्रयोगशाला है- अतीत के राजनीतिक कार्यों के परिणाम एवं प्रभाव का विवरण इतिहास में मिलता है। राजनीतिक क्षेत्र की इन घटनाओं को प्रयोग कहा जाता है और इतिहास को प्रयोगशाला कहा जाता है। उदाहरण के लिए भारत में जब भी केन्द्रीय शक्ति कमजोर हुई भारत की आजादी को खतरा उत्पन्न हुआ है। इसलिए संविधान में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। अतीत के प्रयोग व अनुभव वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने में और भविष्य को सुन्दर बनाने में सहायक होते है। इतिहास राजनीति के विद्यार्थी को सामाजिक परिवर्तन प्रक्रिया के लिए अन्तः दृष्टि प्रदान करता है।
राजनीति के बिना इतिहास का अध्ययन फलदायी नहीं हो सकता। राजनैतिक विचारधाराएं, आन्दोलन, क्रांतियों तथा शासन व्यवस्थाएं ही इतिहास के अध्ययन के मुख्य विषय हैं। राजनैतिक घटनाओं के उल्लेख तथा विश्लेषण के बिना इतिहास महज एक सस्ता साहित्य रह जाता है जिसका उद्देष्य मनोरंजन करना तो हो सकता है, ज्ञानवृद्धि करना नहीं। अतः राजनीति का इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र
समाजशास्त्र सभी सामाजिक शास्त्रों की जड़ है। समाजशास्त्र सामाजिक समुदायों जीवन, विचारों, संगठन इत्यादि का क्रमबद्ध ज्ञान है। यह सामाजिक जीवन के तमाम पहलुओं का अध्ययन करता है। सामाजिक जीवन के पहलुओं में आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सभी पहलू शामिल हैं, ‘समाजशास्त्र इनके मूल तत्वों का अध्ययन करता है। 19वीं शताब्दी में समाजशास्त्र के जन्मदाता कॉम्टे ने समाज के अध्ययन को विभिन्न विषयों में बांटने के बजाय एक ही विषय ‘समाजशास्त्र’ के अन्तर्गत रखने का सुझाव दिया। किंतु 19वीं शताब्दी के अंत तथा 20वीं शताब्दी के आरम्भ में विभिन्न सामाजिक विज्ञान अस्तित्व में आए। समाजशास्त्र से उनका संबंध अवश्य है, क्योंकि हर सामाजिक शास्त्र, ‘समाजशास्त्र’ का ही अंग मात्र है। समाजशास्त्र मानव के राजनैतिक पहलू का भी अध्ययन करता है क्योंकि यह उसके सामाजिक जीवन का एक पहलू हैं, इसलिए राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र का आपसी संबंध है।
राजनीति विज्ञान पर समाजशास्त्र के मुख्य प्रभाव निम्न हैं:-
1. जो संबंध राज्य तथा समाज में है, वही सम्बन्ध राजनीति, राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र में है। राजनीति समाज की सेवा करने वाली, या समाज के एक वर्ग की सेवा करने वाली संस्था मानी जाती है, और यह समाज के विकास की एक निश्चित दशा में उभरती है। अतः समाज के विकास के नियमों को जाने बिना राजनीति विज्ञान का अध्ययन नहीं किया जा सकता।
2. पिछले 20-25 वर्षों में राजनीति में व्यवहारवाद के विकास के साथ-साथ समाजशास्त्र का राजनीति विज्ञान पर प्रभाव काफी बढ़ गया है। मानव का राजनैतिक व्यवहार समाज की परिस्थितियों एवं प्रक्रियाओं द्वारा प्रभावित होता है। राजनैतिक व्यवहार को समझने के लिए नागरिकों का राजनैतिक सामाजीकरण तथा समाज की राजनैतिक संस्कृति एवं परम्पराएं जानना आवश्यक है। इसलिए समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति को बहुत हद तक राजनीति विज्ञान में लगाया गया है। व्यवहारवाद के उदय से राजनीति विज्ञान तथा समाजशास्त्र काफी नजदीक आ गये है। और समाजशास्त्र का प्रभाव राजनीति विज्ञान पर पड़ा है।
3. समाजशास्त्र का राजनीति पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा है कि राजनीति विज्ञान की एक नई शाखा स्थापित कर ली गई है। नाम ‘राजनैतिक समाजशास्त्र’ रखा गया है। यह कहा जाता है कि आजकल राजनीति का सामाजीकरण और समाज का राजनीतिकरण हो गया है, इस प्रकार दोनों विषय से घुल-मिल गये हैं। इस मिले जुले रूप का अध्ययन ‘राजनैतिक समाजशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है।
समाजशास्त्र पर राजनीति विज्ञान के मुख्य प्रभाव निम्न है:-
1. आजकल लोक कल्याणकारी राज्य के उदय हो जाने की वजह से राज्य तथा राजनीति, समाज के प्रत्येक क्षेत्र में घुस गई है। समाज के सारे सवाल सारे पहलू किसी न किसी रूप में राज्य तथा राजनीति से जुड़ गये हैं। समाज की हर संस्था एवं संगठन राजनीति से प्रभावित होता है। इसलिए समाजशास्त्र का अध्ययन राजनीति से गहरे रूप में प्रभावित होता हैं। समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान के अध्ययन के बिना अधूरा है क्योंकि आज समाज की हर गतिविधि राजनीति से प्रेरित रहती है।
2. राजनीति विज्ञान समाजशास्त्र को वे तथ्य प्रदान करता है जिनकी सहायता से समाजशास्त्र समाज के राजनैतिक जीवन का कुशलतापूर्वक अध्ययन करता है। राज्य की उत्पत्ति, संगठन, व कार्य आदि का ज्ञान समाजशास्त्र राजनीति विज्ञान से ही प्राप्त करता है।
राजनीति विज्ञान तथा मनोविज्ञान
प्रसिद्ध विद्वान स्काउट ने मनोविज्ञान की परिभाषा करते हुए कहा है, “मनोविज्ञान व्यक्ति की उन आन्तरिक शक्तियों का अध्ययन करता है जो मनुष्य को अपने जीवन में अनुभव करने, विचार करने तथा इच्छा करने की योग्यता प्रदान करती है।” मनोविज्ञान विभिन्न मानसिक अवस्थाओं में मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता है। मानव के बारे में हर ज्ञान का सम्बन्ध मानव के दिमाग, व्यवहार तथा सामाजिक परिस्थितियों से हैं, मनोविज्ञान मानव की भावनाओं (सैन्टीमैन्टस), मनोवेगों (इमोसन्स), वृत्तियों (इन्सटिंक्ट) आदि का अध्ययन भी करता है। अतः राजनीति विज्ञान और मनोविज्ञान में स्वाभाविक रूप से घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस धनिष्ठता को बैजहॉट ने अपनी पुस्तक ‘फिजिक्स एण्ड पॉलिटिक्स” (1873) में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया। हैरोल्ड लासवैल ने मनोविज्ञान के तत्वों को राजनीति के अध्ययन में प्रयोग किये जाने पर बल दिया तथा इसे ‘राजनैतिक मनोविज्ञान’ का नाम दिया जाता है। वर्तमान समय में लीबोन, मैकड्यूगाल ग्राहम वालास, यर्डे, दुर्खीम आदि विद्वानों ने राजनीति विज्ञान और मनोविज्ञान की पारस्परिक घनिष्ठता को आवश्यक माना है। 1905 में पावलोव, वाटसन, डाइक आदि ने ‘व्यावहारवादी मनोविज्ञान’ को प्रस्तुत किया। राजनीतिक विज्ञान में व्यवहारवाद के उदय से ये दोनों विषय और करीब आये।
मनोविज्ञान द्वारा राजनीति विज्ञान पर मुख्य प्रभाव निम्न हैं-
1. वर्तमान राजनीति विज्ञानी मानते हैं कि मनोविज्ञान वास्तविक अर्थों में राजनीति विज्ञान को आधार प्रदान करता है। बाइस का कथन है, राजनीति विज्ञान की जड़ें मनोविज्ञान में निहित है।” अर्थात् राजनीतिक समस्याओं का अध्ययन सामाजिक मनोविज्ञान के संदर्भ में किया जाना चाहिए। वही नेतृत्व एवं शासन जनता में प्रभावशाली हुआ है जिसने राजनीति में मनोवैज्ञानिक तथ्यों का प्रयोग किया है। इस दृष्टि से हिटलर, मुसोलिनी, आतातुर्क, कमालपाशा, महात्मा गाँधी आदि की सफलता का रहस्य यही है कि वे अपने राष्ट्र की जनता के मनोविज्ञान को समझते थे।
2. राजनीति में मनोवैज्ञानिक तथ्यों की उपयोगिता को स्वीकारते हुए वर्तमान राजनीति विज्ञानी मनोवैज्ञानिक अध्ययन पद्धति पर जोर देने लगे हैं। मनोवैज्ञानिक पद्धति बताती है। कि मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार के पीछे बुद्धि, तर्क व विवेक के स्थान पर अबुद्धिवादी भावनाओं, आदतों, प्रवृतियों तथा अनुकरण व संकेत आदि के तत्वों का विशेष महत्व होता हैं राजनीतिज्ञों ने इन निष्कर्षों का प्रयोग प्रमुख रूप से राजनैतिक प्रचार व चुनावों में सफल रूप से किया है। प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्धों के दौरान दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जनता में उत्साह बनाये रखने के उद्देश्य से मनोविज्ञान का कुशलतम प्रयोग किया था।
3. यह विश्वास किया जाता है कि जब शासन की नीतियाँ जनता के मनोविज्ञान के अनुसार निर्धारित की जाती हैं, तो जन-असन्तोष जन्म नहीं लेता और क्रान्ति की सम्भावना भी सीमित हो जाती है। फ्रान्स की क्रान्ति (1789) तथा बांग्लादेश के निर्माण के पीछे सम्बन्धित शासकों द्वारा जनता के मनोविज्ञान की उपेक्षा निहित थी।
राजनीति विज्ञान द्वारा मनोविज्ञान को मुख्य रूप से निम्न प्रकार प्रभावित किया है-
1. राजनीति विज्ञान मनोविज्ञान को राजनीतिक क्रियाकलापों से सम्बन्धित अध्ययन सामग्री प्रदान करता है जिससे मनोविज्ञान और भी समृद्ध होता है।
2. राजनीति जन मनोविज्ञान को प्रभावित करती है। प्रत्येक देश की शासन व्यवस्था का उसकी जनता के सोचने, विचारने व कार्यों पर प्रभाव पड़ता है, अधिनायकवादी राज्य में जनता के मनोविज्ञान के क्रूर पक्ष उभरते हैं, किन्तु प्रजातंत्र राज्य में उदारवादी तत्व प्रमुख रूप से दीख पड़ते हैं। उदाहरण के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व नाजी जर्मनी, फासिस्ट इटली व जापान की अधिनायकवादी व्यवस्थाओं ने इन देशों की जनता को साम्राज्यवादी व युद्ध-प्रिय बनाया था, किन्तु आज इन राज्यों में जनतंत्र है और इनकी जनता शान्तिप्रिय व मानवतावादी है।
राजनीति विज्ञान तथा नीतिशास्त्र
राजनीति विज्ञान और नीतिशास्त्र में परस्पर अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है। मैकेन्जी का कथन है, “नीतिशास्त्र मात्र आचरण में निहित आदेशों का अध्ययन है।” इस प्रकार नीतिशास्त्र व्यक्ति के आचरण से सम्बन्धित है, किन्तु राजनीति विज्ञान राज्य के आचरण से सम्बन्धित है तो भी इन दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसका कारण यह है कि हम राजनीतिक कार्यों के औचित्य का निश्चय नीतिशास्त्र की मान्यताओं के आधार पर ही करते हैं। फॉय का कथन है, ‘यदि कोई बात नैतिक दृष्टि से गलत है तो वह राजनीतिक दृष्टि से भी सही नहीं हो सकती है।” इन दोनों की घनिष्ठता को अभिव्यक्त करते हुए गाँधीजी ने कहा है ‘धर्महीन राजनीति, राजनीति नहीं होती है। धर्महीन राजनीति मृत्यु जाल है क्योंकि वह आत्मा के पतन का कारण बनती है। किन्तु हॉब्स व मैकियावली जैसे विचारकों का विश्वास है कि राजनीति और नैतिकता में न तो कोई घनिष्ठता है और न होनी चाहिए सर्क्षेप में दोनों विषयों की पारस्परिक प्रभावशीलता को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
नीतिशास्त्र ने राजनीति विज्ञान को निम्न रूप में प्रभावित किया है:-
राजनीति विज्ञान, नीतिशास्त्र का अनुसरण करता है। अत्यन्त प्राचीन समय से ही राजनीति विज्ञानियों का विचार रहा है कि राजनीति विज्ञान को नीतिशास्त्र का अनुसरण करना चाहिए। प्लेटो का विचार था कि राजनीति विज्ञान दर्शनशास्त्र की एक शाखा है और सद नागरिक को सदगुणी भी होना चाहिए। अपने राज्य का उद्देश्य नैतिक मूल्यों की प्राप्ति माना। अरस्तू का विचार है ‘राज्य सद्जीवन की प्राप्ति के लिए मौजूद है। लार्ड एक्टन का विचार है कि राजनीतिविज्ञान को नीतिशास्त्र का अनुसरण करना चाहिए और यदि वह नीतिशास्त्र से विमुख होती है तो स्वयं महत्वहीन हो जाती है।” मॉटेस्क्यू ने कहा है कि “यदि कोई ऐसा कार्य हो जो मेरे देश के लिए हितकर हो, किन्तु यूरोप के लिए हानिकारक अथवा यूरोप के लिए तो लाभदायक हो किन्तु मानव जाति को हानि पहुँचाने वाला हो, तो मैं ऐसे कार्य को अपराध समझँगा।” गांधीजी भारत की आजादी को मानव जाति की सेवा के लिए आवश्यक मानते थे।
राजनीति विज्ञान ने नीतिशास्त्र को निम्न प्रकार प्रभावित किया है:-
1. राजनीति विज्ञान नैतिक जीवन को सम्भव बनाता है। राज्य शान्ति, व्यवस्था व सुरक्षा की स्थापना करता है, अनैतिक व्यक्तियों के आचरण से नैतिक व्यक्तियों की रक्षा करता है। यदि राज्य इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न न करे तो नैतिक जीवन भी सम्भव न हो।
2. राज्य वास्तविक नैतिक मूल्यों की स्थापना करता है। प्रत्येक समाज में अनेक कुरीतियाँ परम्परागत नैतिक मूल्यों के रूप में उपस्थित रहती हैं और ये समाज की प्रगति में बाधक होती हैं। राज्य इस प्रकार अवास्तविक नैतिक मान्यताओं को समाप्त करता है और उनके स्थान पर वास्तविक व विवेक सम्मत नैतिक मूल्यों को कानून की मदद से स्थापित करता हैं। उदाहरण के लिए भारत में हुआछूत की अवास्तविक नैतिक मान्यता के स्थान पर राज्य ने कानून द्वारा सामाजिक समता के विवेक-संगत नैतिक मूल्य की स्थापना की है।
3. राज्य नैतिकता का जनक है। प्रत्ययवादी विचारक हीगल व बोसांके का मत है कि राज्य स्वयं नैतिकता का मूर्तरूप है और वह नैतिकता का स्वयं पालन या अनुसरण नहीं करता है अपितु नैतिकता का निर्धारण करता है।
राजनीति विज्ञान तथा गणित एवं सांख्यिकी
कुछ लोगों को राजनीति और सांख्यिकी बिल्कुल विरोधी और एक-दूसरे के विपरीत क्षेत्र दिख सकते हैं क्योंकि उनके अनुसार एक अनिश्चित मत का क्षेत्र है, और दूसरा सुनिश्चित मापन का क्षेत्र और इन दोनों के बीच एक बड़ी तथा अलंघ्य खाई है।
फिर भी ऐसा माना जाता है कि कई शताब्दियों से राजनीति और सांख्यिकी घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित रही हैं। प्लेटो ने यह उद्घोषित किया कि आदर्श राज्य में नागरिकों की संख्या 5040 होनी चाहिए क्योंकि यह संख्या 59 भाजकों द्वारा पूरी पूरी विभाज्य है और इस प्रकार उसमें मात्रिक गुण है। उन्होंने यह सिद्ध किया कि निरंकुश शासक न्यायशील शासक से 729 गुणा कम सुखी है क्योंकि यह संख्या 9 की घन है। क्योंकि विवेक, साहस, और संयम के तीन गुणों की विकृति निरंकुशता है, इसलिए यह घन निस्सन्देह प्राप्त होता है। विद्धान प्लेटो के मस्तिष्क में किसी गणित के क्रियाशील होने का यह एक उदाहरण है। इसी प्रकार 16 वीं शताब्दी में अन्य दृष्टियों से ज्ञानी और सूक्ष्मदर्शी बोदाँ ने भी अपने राजनीतिक निष्कर्षों के समर्थन में अंकों के रहस्यवाद का अवलम्बन किया।
विश्व के इतिहास में सांख्यिकीय मापन का उद्भव अपेक्षाकृत हाल का है और विशेषकर 19 वीं सदी की देन है। आधुनिक सांख्यिक प्रविधियों का प्रारम्भ सामान्यतः प्रसिद्ध बेल्जियम अध्येता अदोल्फक्वेतिले से माना जाता है, जिन्होंने अध्ययन के क्षेत्र में आधुनिक परिमाणात्मक मापन की नींव डालीं। शासन के क्षेत्र में सांख्यिकी का प्रयोग लोकवित्त के विकास के साथ विकसित हुआ। वस्तुतः सांख्यिकी के प्रयोग में राजनीति सभी सामाजिक विज्ञानों में प्रथम थी। सैन्य संगठन की आवश्यकताओं के साथ, करारोपण की माँगों के साथ, जनसंख्या के आकलन के प्रयोग की जानकारी के साथ, निर्वाचन सम्बन्धी युक्तियाँ के उद्भव के साथ, लागत-लेखा विधि द्वारा शासकीय क्रियाकलापों के मापन के साथ, राजकीय सेवा का शीघ्रता से विस्तार हुआ। राजनीतिक, आर्थिक, अन्य सामाजिक प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप मानव में राज्य की अभिरूचि का श्रेष्ठ उदाहरण जनगणना है। यह अभिरूचि शासन में विज्ञान के प्रादुर्भाव की दिशा में एक लम्बे कदम की द्योतक है।
व्यावहारवादी राजनीति विज्ञान के विकास के साथ-साथ राजनीतिक शोध में सांख्यिकी का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया है। उच्चस्तरीय गणितीय सांख्यिकी और इलैक्ट्रानिक कम्प्यूटरों के अधिक संख्या में प्राप्त होने से नये क्षेत्रों में शोध करने में बहुत अधिक सहायता मिली है। परीक्षण यंत्र, सर्वेक्षण पद्धतियाँ, सांख्यिकी विश्लेषण, प्रयोगशालाओं में छोटे समूहों पर किये गये प्रयोग, गणितीय प्रारूप और परीक्षण जैसे तकनीकी अविष्कार अब राजनीति विज्ञान में व्यापक रूप से प्रयोग में लाये जाने लगे।
राजनीति में गणित और सांख्यिकी के बढ़ते हुए प्रयोग से चिन्तित होकर कतिपय आलोचकों का मत है कि क्या परिमाणात्मक मापन के बीच रहकर राज सिद्धान्त गणितीय शब्दावली और प्रविधि की चकाचौंध में धुंधला न हो जायेगा जो वस्तुतः पूरी तरह से प्रयोग भी न की जा सके। हो सकता है कि एक ओर हम गणितीय सुनिश्चितता भी न पा सकें और दूसरी ओर दार्शनिक अनुशीलन से भी हाथ धो बैठें ?
फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि मापन सामान्य निरीक्षण या धारणा पर आधारित मत को बहिष्कृत करने में सहायक होता है, मापन तथ्य प्रेशित करता है जिनको लेकर अपेक्षाकृत कम ही विवाद हो सकता है। संक्षेप में, राजनीति अनुभवसिद्ध रीति से हटकर अधिक सुनिश्चित मापन की ओर, कला से हटकर विज्ञान की ओर अग्रसर होने की सामान्य समस्या का सामना कर रही है।
राजनीति विज्ञान तथा दर्शनशास्त्र
दर्शनशास्त्र जीवन और जगत् की प्रकृति और उसके मूल सम्बन्धी मानव की खोज से सम्बन्धित शास्त्र है। यह उन सिद्धान्तों का अध्ययन करता है जिनका प्रतिपादन सृष्टि, जीवन और जगत् के सम्बन्ध में किया गया है।
राजनीति विज्ञान के अन्तर्गत अध्ययन किये जाने वाले ‘राजनीतिक जीवन’ और ‘राजनीतिक विश्व’ उस विश्व का ही भाग है, जिसकी प्रकृति और जिसके मूल की खोज दर्शनशास्त्र के अध्ययन का विषय है। इस दृष्टि से इन दोनों विषयों का परस्पर सम्बन्ध होना स्वाभाविक है।
राजनीति विज्ञान और दर्शनशास्त्र में निम्न मुख्य समानतायें हैं:-
1. उद्देश्यों की समानता- दर्शनशास्त्र का उद्देश्य इस बात की खोज करता है. कि सृष्टि क्या है, विश्व क्या है, इन सबके मूल में क्या है। राजनीति विज्ञान का उद्देश्य भी राज्य और राजनीतिक जीवन के स्वरूप तथा उसके मूल की खोज करना है। ये दोनों ही विषय अपने अध्ययन विषय के मूल और उसकी प्रकृति का अध्ययन करने के लिए प्रयत्नशील है। इस प्रकार दोनों विषयों का उद्देश्य समान है।
2. अध्ययन के स्वरूप की समानता- दर्शनशास्त्र सैद्धान्तिक और वैचारिक अध्ययन का विषय है। की प्रकृति और उसका मूल तत्व चेतन, अचेतन, द्वैतवाद आदि उसके अध्ययन विषय के प्रमुख तत्व हैं। यद्यपि राजनीति विज्ञान का समस्त अध्ययन विषय मात्र सैद्धान्तिक और वैचारिक नहीं है और आज राजनीति विज्ञान में व्यावहारिक राजनीति के अध्ययन पर अधिक बल दिया जाता है। लेकिन आज भी सैद्धान्तिक अध्ययन इस विषय के सम्पूर्ण अध्ययन का एक प्रमुख भाग बना हुआ हैं राज्य की उत्पत्ति, राज्य का उद्देश्य, स्वतंत्रता, समानता, विधि, सम्प्रभुता और ऐसी अनेक राजनीतिक धारणाओं और राजनीतिक विचारधाराओं का अध्ययन इस विषय में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
3. अध्ययन पद्धति की समानता- दर्शनशास्त्र की अध्ययन पद्धति दार्शनिक है। राजनीति विज्ञान की दो अध्ययन पद्धतियाँ है। पहली-आनुभाविक वैज्ञानिक पद्धति दूसरी दार्शनिक पद्धति। जिसका प्लेटो, थॉमस मूनरो, रूसो, हीगल, ग्रीन तथा बोंसांके आदि ने प्रमुख रूप से प्रयोग किया है। अत: दोनों में यह पद्धति समान रूप से प्रयुक्त की जाती है।
राजनीति विज्ञान तथा भूगोल
भूगोल का सम्बन्ध भूमि, जल, वायु, वर्षा, खनिज पदार्थ, कृषि, समुद्र, नदी तथा पहाड, इत्यादि से होता है। भूगोल उन ‘प्राकृतिक’ दशाओं का वर्णन करता है जिनका मनुष्य के जीवन पर विशेष प्रभाव पड़ता है। राज्य के निर्माणकारी तत्वों में भूखण्ड अर्थात् पृथ्वी, जल तथा वायु होते हैं। अतः भूगोल और राजनीति विज्ञान में परस्पर घनिष्ठ रूप से संबद्ध होते हैं।
अरस्तू ने सर्वप्रथम प्रतिपादन किया था कि जलवायु, भूमि, समुद्री तट, पहाड और नदियाँ तथा खाड़ियाँ आदि राजनीतिक इतिहास तथा किसी देश की सभ्यता और संस्कृति पर अमिट छाप छोड़ देती है। बोदॉ ने राजनीति विज्ञान तथा भूमि के सम्बन्ध की घनिष्ठता पर बल दिया है। मान्टेस्क्यू का कथन था ठण्डे देशों के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता तथा गर्म देशों के लिए दासता स्वाभाविक है।” रूसो ने 18वीं शताब्दी में जलवायु तथा सरकार में सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहा है कि “गर्म जलवायु निरंकुश शासन के लिए, ठण्डी जलवायु बर्बरता के लिए और सम जलवायु अच्छे जनतंत्रीय शासन के लिए उपयुक्त होती है।”
थॉमस बक्ल के अनुसार “किसी देश के लोगों के चरित्र और उनके राजनीतिक संस्थाओं को निर्धारित करने वाला सबसे प्रमुख तत्व, उनकी भौगोलिक एवं भौतिक परिस्थिति है।” ब्लंटशली, रायटर और मेकाइवर आदि आधुनिक विद्वानों ने भी राजनीतिक जीवन पर भौगोलिक परिस्थितियों के प्रभाव के महत्व को स्वीकार किया है।
किसी भी देश के समाज की राजनीतिक समस्याओं तथा जीवन को समझने के लिए वहाँ के भूगोल का पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक है। भूगोल राष्ट्र की गृहनीति व विदेश नीति को भी प्रभावित करता है। अमेरिका तथा रूस की राष्ट्रीय शक्ति वृद्धि का कारण, उनकी प्राकृतिक सम्पदा और विभिन्न पदार्थों की बहुतायत रहा है।
अपनी भौगोलिक स्थिति, खनिज पदार्थों की बहुतायत पेट्रोल के विशाल भण्डार के कारण आज पश्चिमी एशिया के देश अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र बन गये हैं। स्विटजरलैण्ड में प्रत्यक्ष प्रजातंत्र की सफलता का कारण वहाँ की भौगोलिक स्थिति है। भूटान और नेपाल जैसे देशों का राजनीतिक दृष्टि से पिछड़ा होना प्राकृतिक साधनों की दृष्टि से उनके असम्पन्न होने के कारण है। भूगोल के बढ़ते महत्व के कारण ‘भू-राजनीति’ नाम से एक नये विषय का निर्माण हुआ है जो भौगोलिकता के राजनीति प्रभावों का अध्ययन करता है।
सारांश
समाजशास्त्रों में पारस्परिक अन्तर्निर्भरता पायी जाती है। कोई भी एक समाज विज्ञान समाज का उचित एवं समग्र अध्ययन नहीं कर सकता। क्योंकि समाज तथा सामाजिक मानव के हर पहलू आपस में इस तरह जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग-अलग करके अध्ययन करना असंभव है। इसलिए तमाम समाजशास्त्र आपस में सम्बन्धित हैं और अन्तर्शास्त्रीय अध्ययन पद्धति ने फिर से समाजशास्त्रों के इस सम्बन्ध को उभार दिया है। आज राजनैतिक अर्थशास्त्र (पॉलिटिकल इकोनॉमी), राजनैतिक नैतिकता (पॉलिटिकल मौरेलिटी), राजनैतिक इतिहास (पॉलिटिकल हिस्ट्री), राजनैतिक समाजशास्त्र (पॉलिटिकल सोशियोलॉजी), राजनैतिक मनोविज्ञान (पॉलिटिकल साइकोलॉजी), तथा राजनैतिक भूगोल (पॉलिटिकल ज्योग्रॉफी) आदि विभिन्न राजनीति विज्ञान की नई शाखाओं का खुलना इस बात का प्रतीक है कि राजनीति विज्ञान अन्य समाज विज्ञानों से सम्बन्ध स्थापित किये बिना नहीं चल सकता। न ही अन्य समाज विज्ञान, राजनीति विज्ञान से सम्बन्ध विच्छेद कर सकते हैं। समाज के जटिल संगठन का अध्ययन समाज विज्ञानों की आपसी एकता तथा आदान प्रदान से ही किया जा सकता है। गार्नर ने भी कहा है- ‘हम दूसरे सहायक विज्ञानों या विषयों के ज्ञान के बिना, राज्य की तथ्यात्मक घटनाओं की पूर्णता के एक विज्ञान के रूप में राजनीति विज्ञान को पर्याप्त मात्रा में नहीं समझ सकते है।”
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