राजनीति विज्ञान / Political Science

राजनीति विषयक विभिन्न दृष्टिकोण | different perspectives on politics in Hindi

राजनीति विषयक विभिन्न दृष्टिकोण | different perspectives on politics in Hindi
राजनीति विषयक विभिन्न दृष्टिकोण | different perspectives on politics in Hindi

राजनीति विषयक विभिन्न दृष्टिकोणों का वर्णन कीजिये।

राजनीति विषयक विभिन्न दृष्टिकोण निम्न है-

1. राजनीति के विषय में सामान्य व्यक्ति का दृष्टिकोण (GENERALINDIVIDUAL’S VIEW ABOUTPOLITICS)

‘राजनीति’ शब्द का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन की बातचीत में भी करते हैं और वैज्ञानिक अध्ययन में भी इसका प्रयोग करते हैं। क्या इन दोनों सन्दर्भों में हमारा आशय एक समान होता है? सम्भवतः नहीं। परन्तु राजनीति के वैज्ञानिक रूप तक पहुँचने के लिए शुरू-शुरू में इस बात पर विचार कर लेना अत्यधिक रुचिकर होगा कि सामान्य व्यक्ति ‘राजनीति’ की कल्पना किस रूप में करता है? एलेन बाल ने अपनी पुस्तक ‘मॉर्डन पॉलिटिक्स एण्ड गवर्नमेंट’ (आधुनिक राजनीति और शासन) के अन्तर्गत यह संकेत दिया है कि राजनीतिक गतिविधि की सामान्य धारणा को अपना लेने पर दो प्रकार की समस्याएँ पैदा हो जाती है। सर्वप्रथम, “सामान्यतः यह मान लिया जाता है कि राजनीति का सरोकार केवल सार्वजनिक क्षेत्र से है अर्थात् संसदों, चुनावों और मन्त्रिमण्डलों से ही इसका सम्बन्ध है, मानवीय गतिविधि के अन्य क्षेत्रों से इसका कोई सरोकार नहीं है।” दूसरे, “इसमें यह खतरा निहित रहता है कि राजनीति को सम्पूर्ण दलगत राजनीति के साथ जोड़ दिया जाता है, जैसे इसका सरोकार कोई राजनीतिक मत रखने से हो या कम से कम इसमें सत्ता-लोलुप राजनीतिज्ञों के षड्यन्त्रों और चालबाजियों के प्रति घृणा की भावना निहित होती है।” इसका अर्थ यह है कि सामान्य व्यक्ति ‘राजनीति’ का अर्थ लगाते समय एक छोटी-सी सीमा को दृष्टि में रखकर सोचता है। वह इसे या तो केवल मन्त्रियों और विधायकों की गतिविधि मानकर चलता है या इसे राजनीतिज्ञों की चालबाजियों और चुनाव के पैतरों के साथ जोड़ने लगता है। वह यह अनुभव नहीं करता कि राजनीति एक व्यापक सामाजिक प्रक्रिया है जो सामाजिक जीवन के अनेक स्तरों पर निरन्तर चलती रहती है। बहुत से बहुत वह यह मान लेता है कि राजनीति के अन्तर्गत सार्वजनिक सभाएँ जलसे-जुलूस, नारेबाजी, प्रदर्शन, माँगें, हड़ताले, आँसू गैस और लाठी चार्ज जैसी गतिविधियाँ आ जाती हैं या फिर उसका ध्यान चुनावों, प्रचार या रैलियों के उस पक्ष की ओर चला जाता है जिसमें झूठे वादे किये जाते हैं और उनकी पूर्ति के झूठे समाचार फैलाये जाते हैं। इन्हीं गोल-मोल धारणाओं के परिणामस्वरूप राजनीति को कभी-कभी ‘धूर्तों का अन्तिम आश्रय’ कहकर इसकी निंदा की जाती है। अर्नेस्ट बैन ने राजनीति पर व्यंग्य करते हुए इसे ऐसी कला की संज्ञा दी है जिसमें ‘पहले तो मुसीबत को ढूँढ़ते हैं, फिर वह जहाँ हो, जिस रूप में हो, वहाँ से उसे पकड़ लाते हैं; उसका गलत निदान किया जाता है और फिर उसके लिए गलत उपचार का प्रयोग किया जाता है।’ इन अनोखी धारणाओं के आधार पर राजनीति को कभी-कभी ‘घिनौना खेल भी कहा जाता है।

2. राजनीति के विषय में शास्त्रीय दृष्टिकोण (CLASSICAL VIEW ABOUT POLITICS)

राजनीति के सही रूप को जानने-समझने के लिए उन भ्रांतियों को दूर करना अति आवश्यक है जो इसकी सामान्य धारणा के साथ सम्बद्ध हो गयी है। इसके लिए शुरू-शुरू में ‘राजनीति’ या ‘पॉलिटिक्स’ शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार कर लेना लाभदायक होगा। अंग्रेजी का ‘पॉलिटिक्स’ शब्द ग्रीक भाषा के ‘पोलिस’ शब्द से बना है। यह शब्द प्राचीन यूनानी नगर-राज्य का सूचक था। इन नगर-राज्यों की एक विशेषता यह थी कि इनके नागरिक सामान्यतः स्वयं अपना शासन चलाते थे। ये नागरिक राज्य के सदस्यों और संचालकों के रूप में जो भूमिका निभाते थे, उससे सम्बन्धित गतिविधियों को प्राचीन यूनानी विचारकों ने ‘पॉलिटिक्स’ की संज्ञा दी थी। इन गतिविधियों के व्यवस्थित अध्ययन को भी उन्होंने ‘पॉलिटिक्स’ नाम दिया था।

प्लेटो, अरस्तू और उनके समकालीन यूनानी विचारकों की दृष्टि में ‘पोलिस’ या ‘नगर राज्य के विषय इतने महत्वपूर्ण होते थे कि उन्होंने इनके अध्ययन को ‘सर्वोच्च विज्ञान’ या ‘परम-विद्या’ की संज्ञा दे डाली थी। उनका विचार था कि नागरिक के लिए ‘नगर-राज्य’ के जीवन में भाग लेना उत्तम जीवन की आवश्यक शर्त है। यूनानी विचारक यह मानते थे कि “राज्य मनुष्य के जीवन को संचालित करने के लिए अस्तित्व में आया है और सद्जीवन की सिद्धि के लिए निरन्तर बना रहता है।” अरस्तू ने तो यहाँ तक कहा है कि जो मनुष्य राज्य में निवास नहीं करता था जिसे राज्य की आवश्यकता अनुभव नहीं होती, वह या तो केवल पशु होगा या अतिमानव होगा अर्थात् वह या तो मनुष्यता से बहुत नीचे गिरा हुआ होगा या बहुत ऊँचा उठा होगा। उनका मत था कि राज्य के अभाव में किसी मनुष्य को मनुष्य के रूप में नहीं पहचाना जा सकता। राज्य में सद्जीवन की प्राप्ति के लिए मनुष्य जो भी करता है या राज्य की जिन गतिविधियों में भाग लेता है या जो भी नियम, संस्थाएँ और संगठन बनाता है, उन सबकों अरस्तू ने राजनीति के अध्ययन का विषय माना है। इसे ही हम राजनीति की ‘शास्त्रीय’ धारणा कहते हैं। इस युग में मनुष्य के समस्त सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं का अध्ययन ‘राजनीति’ के अन्तर्गत होता था; अन्य सामाजिक विज्ञान, जैसे- समाज विज्ञान, अर्थशास्त्र, सामाजिक मनोविज्ञान, सांस्कृतिक मनोविज्ञान इत्यादि उन दिनों स्वतन्त्र रूप से विकसित नहीं हुए थे। अरस्तू ने राजनीति को इसीलिए ‘सर्वोच्च विज्ञान’ कहकर सम्बोधित किया था क्योंकि वह मानव समाज के अन्तर्गत विभिन्न सम्बन्धों को व्यवस्थित करने में निर्णायक और महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। राजनीति की सहायता से ही मनुष्य इस पृथ्वी पर अपनी नियति को वश में करने का प्रयास करते हैं।

3. राजनीति के विषय में आधुनिक दृष्टिकोण (MODERN VIES ABOUT POLTICS)

राजनीति की शास्त्रीय धारणा के विपरीत, आज के युग में राजनीति का प्रयोग क्षेत्र तो सीमित हो गया है परन्तु इसमें भाग लेने वालों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी है। दूसरे शब्दों में, आज राजनीति के अध्ययन में मनुष्य के सामाजिक जीवन की समस्त गतिविधियों पर विचार नहीं किया जाता है वरन् उन गतिविधियों पर विचार किया जाता है जो सार्वजनिक नीति और सार्वजनिक निर्णयों को प्रभावित करती है। आज के युग में सार्वजनिक नीतियाँ और निर्णय गिने चुने शासकों, विधायकों या सत्ताधारियों की इच्छा को व्यक्त नहीं करते बल्कि समाज के भिन्न भिन्न समूहों की परस्पर क्रिया के फलस्वरूप उभरकर सामने आते हैं। इस तरह राजनीति जन सामान्य की उन गतिविधियों की ओर संकेत करती है जिनके द्वारा भिन्न-भिन्न समूह अपने अपने परस्पर विरोधी हितों में सामंजस्य और समन्वय बनाये रखने का प्रयत्न करते हैं। यह आवश्यक नहीं कि इस समन्वय का कोई न्यायसंगत समाधान ही निकले। कुछ समूह अधिक संगठित, अधिक साधन-सम्पन्न, अधिक मुखर और अधिक व्यवहार-कुशल होते हैं अतः वे अपने हितों को अन्य समूहों के हितों से ऊपर रखने में सफल हो जाते हैं जिससे सामाजिक जीवन में असन्तुलन पैदा हो जाता है परन्तु यह आशा की जाती है कि राजनीतिक प्रक्रिया में अन्य समूहों को अपने हितों को संगठित करने और प्रोत्साहन देने का अवसर प्राप्त होता रहेगा जिससे आगे चलकर न्यायसंगत समाधान की सम्भावना बनी रहेगी।

परम्परागत राजनीति का मुख्य सरोकार ‘राज्य’ से था, इसीलिए इसकी परिभाषा ‘राज्य विज्ञान’ के रूप में दी जाती थी। राजनीति के परम्परागत विद्वानों और लेखकों ने अपना ध्यान मुख्य रूप से इन समस्याओं पर केन्द्रित किया था- (1) राज्य के लक्षण, मूल तत्व और संस्थाएँ क्या है और (2) ‘सर्वगुण सम्पन्न राज्य’ का स्वरूप कैसा होगा? परन्तु आधुनिक लेखक यह अनुभव करते हैं कि ‘राजनीति’ मनुष्य की एक व्यापक क्रिया है; यह केवल ‘राज्य’ की गतिविधि नहीं है बल्कि सम्पूर्ण सामाजिक संगठन के साथ जुड़ी हुई गतिविधि है। अतः आज के युग में राजनीति को राज्य की औपचारिक संस्थाओं और उनके कार्यों का समुच्चय नहीं माना जाता बल्कि एक व्यापक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है।

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Anjali Yadav

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