राष्ट्रीय कवि के रूप में दिनकर जी के काव्य की समीक्षा कीजिए।
रामधारी सिंह दिनकर जी को ओज एवं पौरुष का कवि कहा जाता है। ओज से तात्पर्य यहाँ उनकी क्रान्तिकारी, राष्ट्रीय वीरतायुक्त रचनाओं से है तथा पौरुष का तात्पर्य कार्य से है। अत: पहले दिनकर जी की ओजस्वी वाणी जो राष्ट्रीयता से मुखरित हुई है, पर विचार करना आवश्यक है।
दिनकर जी के काव्य में राष्ट्रीय भावना- दिनकर जी की राष्ट्रीयता पर उनके युग का प्रभाव पड़ा है। उनका युग दलित और शोषण का युग था। छायावादी कवि उस परिस्थिति से कतरा कर निकल चुके थे, लेकिन दिनकर जी सीना तानकर आगे आये और तत्कालीन परिस्थितियों से लोहा लिया। उन्होंने बड़े साहस के साथ भारत माता की स्वतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए अपने ओजस्वी विचारों की खड्ग धारण की।
(1) अतीत का गौरव गान- दिनकर की राष्ट्रीय भावना देश के अतीत गौरव गान और देश की परतन्त्रता- मुक्ति के रूप में व्यक्त हुई। वर्तमान दुरावस्था से चिन्तित व्यक्ति को अतीत का स्मरण कर कुछ मानसिक सन्तोष प्रदान करता है। अतः दिनकर जी ने अपने आप रेणुका में अतीत का स्मरण इन शब्दों में किया-
“तू पूछ अवध से राम कहाँ, विद्यापति कवि के गान कहाँ। “
(2) क्रान्तिकारी भावना- दिनकर जी ने विदेशी शासन की परतन्त्रता से देश को मुक्त कराने के लिए अहिंसात्मक आन्दोलन का आग्रह किया। पौरुष और वीरता के कवि दिनकर को क्रान्तिकारी आन्दोलन में विश्वास रहा। क्रान्तिकारी दिनकर की मान्यता है कि शासक वर्ग शक्ति प्रदर्शन या उथल-पुथल मचाने से ही झुकता है। शासक प्रजा की शक्ति से ही अपनी इच्छानुसार शासन चक्र चलाता है तथा प्रजा की समस्त भावनाओं का दमन करता है यदि उसी शक्ति को प्रजा एकत्रित कर ले तो शासक का शासन हिलने लगेगा और जन समुदाय के समक्ष झुकना पड़ेगा। विदेशी शासन को दूर करने के लिए कवि ने हुँकार में इसी विनाशकारी शक्ति का स्मरण किया है। भारत के कण कण में ऐसी शक्ति व्याप्त है जो पल में विदेशी शासन का तख्ता पलट सकती है-
“मेरे मस्तक पर मुकुट बसु काल सर्पिणी के शत फल,
मुझ चिर कुमारिका के ललाट में नित्य रुधिर चन्दन।
पायल की पहली झलक सृष्टि में कोलाहल छा जाता है,
पड़ते जिस ओर चरण मेरे भूगोल उधर दब जाता है।”
( 3 ) एकता की भावना – स्वाधीनता आन्दोलन को सफल बनाने के लिये देशवासियों में एकता की भावना अवश्य होनी चाहिए। यह समस्या कई रूपों में हमारे सामने खड़ी हो जाती है जो देश आपस में फूट पैदा करके उसकी शक्ति को नष्ट कर देता है। अतः कवि के अनुसार देशवासियों में छुआछूत की भावना पारस्परिक भेदभाव, धार्मिक भेदवाद, ऊँच-नीच का भेदभाव, आर्थिक भेदभाव आदि नहीं होना चाहिये, जितना अधिक पारस्परिक भेद-भाव बढ़ेगा, स्वाधीनता का लक्ष्य उतना ही दूर होता जायेगा और शासकों का हित उतना ही सुरक्षित एवं सुदृढ़ होता जायेगा। अतः दिनकर जी ने पारस्परिक भेद-भाव के साथ ही हिन्दू मुस्लिम एकता पर भी बल दिया है। सर्व धर्म समानता में दिनकर जी की अपनी आस्था है। देश में दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक बँटवारे के समय जो भयंकर साम्प्रदायिक दंगे हुए उनसे बड़े-बड़े राष्ट्रवादी विचलित हो गये किन्तु दिनकर जी की ऐक्य भावना उस समय भी अक्षुण्ण रही उन्होंने रेणुका में लिखा है कि-
“जन समाज में सन्तुष्ट रहे, हिल मिल आपस में प्रेम बढ़ाकर।
धर्म भिन्नता हीन सभी जन, शैल तटी में हिल मिल जायें।”
दिनकर जी साम्प्रदायिकता के प्रश्न को बहुत महत्वपूर्ण मानते हुए धैर्य और विवेक के साथ उसका सम्मान करते हैं। भारत की धार्मिक एवं आनुवंशिक एकता की समस्या ऐसी नहीं है, जिनका समाधान जोश और निर्भयता से ढूंढ़ा जा सके। यह बड़ा ही नाजुक काम है।
दिनकर जी को देश की स्वाधीनता पर गर्व अवश्य है, लेकिन स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् उनकी विचारधारा समाप्त नहीं हुई बल्कि वह देशभक्ति में परिणित हो गई। देशभक्ति के लिये स्वाधीनता साध्य नहीं, वह देशभक्ति का साधन है। स्वतन्त्रता के पूर्व दिनकर जी अतीत गौरव, वर्तमान दुरावस्था, क्रान्तिकारी भावनाओं एवं एकता के प्रति जितने सजग रहे हैं उतने ही जागरूक वे स्वतन्त्रता के बाद भी रहे। अतः दिनकर जी के सम्पूर्ण कृतित्व में राष्ट्रीयता किसी न किसी रूप में व्याप्त है। इस दृष्टि से वे एक प्रतिनिधि राष्ट्रीय कवि सिद्ध होते हैं।
दिनकर जी के पौरुष के कवि- दिनकर जी भाग्यवाद के विरोधी तथा पुरुषार्थ के समर्थक रहे हैं। उन्होंने-
“उद्योगिनः पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी, दैवेन देवमिति कापुरुष वदन्ति ।”
दिनकर जी ने उन शासकों की घोर निन्दा की है, जो स्वयं शासक बन बैठे हैं तथा अपने पद को पूर्व जन्म के कर्मों का फल मानते हैं तथा दलित एवं पीड़ित व्यक्ति के दुःखों को पूर्व जन्म के कुकर्मों का फल मानते हैं। ऐसे तर्क अन्धविश्वास के प्रतीक होते हैं और समाज में व्यक्ति को उठने नहीं दे सकते। पूँजीपति अपने भाग्य को अच्छा कहकर सुख भोगते हैं तथा शोषितों के बुरे भाग्य की निन्दा करते हैं। दिनकर जी की यह मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति ब्रह्मा के यहाँ से भाग्य लिखाकर नहीं आता बल्कि वह अपने कर्मों के द्वारा अपने भाग्य का निर्माण करता है। भाग्यवाद की निन्दा करते हुए ‘कुरुक्षेत्र में उन्होंने लिखा है कि-
“भाग्यवाद आवरण पाप का और शस्त्र शोषण का,
जिससे रखता दबा एक जन भाग्य दूसरे जन का।”
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