राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के अनुसार सामाजिक विज्ञान के अन्तर अनुशासनात्मक पुस्तकों का निर्माण कैसे किया जाना चाहिए?
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) के अनुसार सामाजिक विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों का निर्माण –
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा में सुधार लाने के लिए कई शिक्षा आयोग, कमेटी और शिक्षा नीति बनाई गई जैसे माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53), शिक्षा आयोग (1964-66), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968), राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (1975) और राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) आदि। इन सभी का उद्देश्य स्कूली शिक्षा के पाठ्यचर्या में सुधार करना और उसे व्यावहारिक बनाना था। धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि दिनों दिन पाठ्यचर्या का बोझ बढ़ता जा रहा है जिससे छात्रों के मस्तिष्क पर तनाव बढ़ रहा है। और बच्चों का शारीरिक-मानसिक विकास हो रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई जिसका उद्देश्य था ‘लर्निंग विदाउट बर्डन’ अर्थात् ‘बोझ मुक्त शिक्षा’ जिससे बस्ते का बोझ कम हो सके इस समिति की रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया गया है कि स्कूलों में पढ़ाई तब तक आनंददायी और तनाव रहित नहीं हो सकती जब तक बच्चों के संबंध में हमारी समझ में बदलाव नहीं आयेगा। इसी क्रम में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2000) की समीक्षा बच्चे पर पाठ्यचर्या के बढ़ते बोझ की समस्या को ध्यान में रखकर की गई और पाठ्यपुस्तकों को आनंददायी बनाने की सिफरिश की गई। अंततः राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) नाम दस्तावेज प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में तैयार किया गया। इस रिपोर्ट की संस्तति के आधार पर प्राथमिक स्तर के लिए बोझ मुक्त और तनाव मुक्त पाठ्य-पुस्तकों का निर्माण किया गया जो पूर्णतया क्रियाकलापों पर आधारित है। इस प्रकार उच्च प्राथमिक स्तर पर सामाजिक विज्ञान को अलग किंतु विषय के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) में सामाजिक विज्ञान को भूगोल, इतिहास अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के रूप में पढ़ाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य सामाजिक विज्ञान के शिक्षण को आनंददायी बनाना है और बोझ एवं तनाव मुक्त करना है। इसी परिप्रेक्ष्य में सामाजिक अध्ययन की पाठ्यपुस्तकों का निर्माण किया गया जिसका आधार निम्नलिखित है-
- बहु-सांस्कृतिक स्वरूप जैसे लिंग, वर्ग, संस्कृति, धर्म भाषा और क्षेत्र को समान रूप में समाहित किया गया है।
- प्राकृतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारकों के विषय वस्तु को समग्र रूप में प्रस्तुत किया गया है।
- बच्चों को पर्यावरण और इसके संरक्षण और सामाजिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील विकसित करने पर पुस्तक में बल दिया गया है।
- शिक्षण को बच्चे के वास्तविक जीवन से जोड़कर विषय वस्तु का संपादन करने पर बल दिया है।
- पुस्तकीय ज्ञान को बाहरी वातावरण से जोड़ने पर विशेष बल दिया है।
- करके सीखने को प्रेरित किया गया है।
- पाठ्यपुस्तक की विषय-वस्तु बालकेंद्रित बनाया गया है।
- रटने की आदत को पाठ्यपुस्तक में कोई स्थान नहीं है।
- पुस्तक में पाठ्यपुस्तक और उस पर आधारित क्रियाकलाप को स्थानीय वातावरण के अनुसार परिवर्तन का सुझाव है।
- पुस्तक की विषय वस्तु जिंदगी से जुड़ी हुई घटनाओं, समस्याओं और सामायिक घटनाओं से निपटने के उपाय भी है।
- पाठ्यपुस्तक के विषय वस्तु पर आधारित क्रियाकलाप जैसे अवलोकन, खोज, वर्गीकरण, प्रयोग कार्टून बनाना, अंतर ढूंढना, बातचीत करना आदि के द्वारा करने को सुझाव दिया गया है।
- चित्रों और आरेखों का प्रयोग इस तरह से हो कि वे लिखित कार्य के पूरक बन सकें।
- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने पर विशेष वक्त है।
- पाठ्य पुस्तक में बोलचाल की भाषा के प्रयोग पर बल दिया गया है।
- पाठ्य पुस्तक में रूचिकर और व्यावहारिक जीवन से जुड़ी विषय वस्तु का समावेश है।
- स्वयं करके सीखने, अपने विचार प्रकट करने, प्रश्न करने, स्वयं प्रयोग करने आदि को प्रेरित किया गया है।
- क्रियाकलाप संपादित करते समय बच्चों को पूरी स्वतंत्रता और समय देने का प्रावधान है।
- रचनात्मक कार्य करते समय बच्चे की प्रशंसा करने का भी प्रावधान किया गया है।
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