‘लोकनीति सिद्धान्त’ की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए। उन ठहरावों का उदाहरण दीजिए जो लोकनीति के विरुद्ध हैं?
लोकनीति के विरुद्ध ठहराव (समझौते)- जो ठहराव (समझौते) सामान्य हित अथवा दो के विरुद्ध कहलाते हैं, उन ठहरावों को व्यर्थ समझा जाता है। वास्तव में ठहरावों का वर्गीकरण करना एक समस्या है, क्योंकि ‘लोकनीति’ शब्द अपने आप से बहुत ही इस तरह के व्यापक तथा लोचदार है। उदाहरणार्थ, यदि मोहन अपना कमरा कुछ लोगों को जुआ खेलने के लिए देता है। ऐसी स्थिति में यह अनुबन्ध व्यर्थ होगा क्योंकि यह लोकनीति के विरुद्ध है। अत: लोकनीति सन्नियम का यह सिद्धान्त है कि उसके अनुसार कोई भी व्यक्ति जनता के किसी भी व्यक्ति को हानि नहीं पहुँचा सकता है और न कोई ऐसा काम ही कर सकता है जो कि जनसाधारण हित के विरुद्ध हो। लोकनीति के सम्बन्ध में विभिन्न न्यायाधीशों ने विभिन्न तरह के मत प्रकट किये हैं। परन्तु फिर भी लोकनीति से सम्बन्धित कुछ सिद्धान्त निश्चित कर दिये गये हैं, जिनके आधार पर ठहरावों को लोक नीति के विरुद्ध समझा जा सकता है।
लोकनीति के विरुद्ध ठहरावों के कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण
1. विदेशी शत्रु के साथ व्यापार- विदेशी शत्रु से व्यापार करने के लिए सरकार की आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक है। इसके अभाव में इस तरह का व्यापार लोकनीति के विरुद्ध समझा जाता है। इस तरह के कार्य राज्यों के हितों के विपरीत होते हैं। अतः बिना लाइसेन्स अथवा राजकीय आज्ञा प्राप्त किये, भारत सरकार के विदेशी शत्रुओं से व्यापार करना अवैध है।
2. न्याय सम्बन्धी कार्यों में रुकावट डालने वाले ठहराव- इस प्रकार के ठहराव दो प्रकार के होते हैं- (i) अभियोग वाद से बचने का ठहराव और (ii) न्यायालय के क्षेत्र से परे जाने का ठहराव। अभियोगवाद से बचने का ठहराव लोक नीति के विरुद्ध होता है, क्योंकि इसके अन्तर्गत अपराधी व्यक्ति दण्ड से बचने का प्रयत्न करता है जिसे दण्ड अवश्य मिलता चाहिए। अत: इस प्रकार के ठहराव लोक नीति के विरुद्ध होते हैं तथा उन्हें व्यर्थ समझा जाता है। उदाहरणार्थ, मोहन ने किसी व्यक्ति का खून कर दिया है जो न्यायालय की दृष्टि में अपराध है। इस बात को सोहन जानता है। मोहन, सोहन से कहता है कि वह उसके द्वारा किये गये खून के विषय में किसी से न बताये, इसके प्रतिफल में वह उसे एक निश्चित राशि देगा। यहाँ पर इसे अभियोग-वाद बचने का ठहराव कहा जायेगा जो लोकनीति के विरुद्ध है तथा व्यर्थ है। इसी प्रकार न्यायालय के से क्षेत्र से परे जाने का ठहराव भी लोकनीति के विरुद्ध होता है। इस प्रकार का ठहराव लोकनीति के विरुद्ध होने के कारण व्यर्थ होता है। यह वास्तव में “वैधानिक कार्यवाही में रुकावट उत्पन्न करने वाला ठहराव होता है।”
3. अवधि में परिवर्तन करने वाले ठहराव- अवधि अधिनियम द्वारा निश्चित अवधि को घटाने अथवा बढ़ाने से सम्बन्धित ठहराव लोकनीति के विरुद्ध समझे जाते हैं तथा व्यर्थ होते हैं। इससे सन्नियम के प्रमुख उद्देश्य पर ही कुठाराघात होता है।
4. न्याय में हस्तक्षेप का ठहराव – ऐसे ठहराव जो न्यायिक मामलों में हस्तक्षेप करें, लोकनीति के विरुद्ध समझे जाते हैं। उदाहरण के लिए यदि ‘अ’ न्यायालय के जज’ब’ से यह कहे कि वह उनको 1,00,000 रु० देगा, यदि निर्णय उसके पक्ष में दिया जाता है। ऐसा ठहराव लोकनीति के विरुद्ध होगा तथा व्यर्थ समझा जायेगा।
5. चेम्पर्टी तथा मेण्टीनेन्स के ठहराव- चेम्पर्टी ऐसे ठहराव को कहते हैं जिसके अन्तर्गत एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को सम्पत्ति दिलवाने में सहायता करता है और उसके बदले में उक्त वाद द्वारा प्राप्त सम्पत्ति में हिस्सा पाता है।
दूसरी ओर, जब कोई व्यक्ति ऐसे वाद को बढ़ावा देने अथवा उसका पोषण करने का वचन देता है, जिसमें उस व्यक्ति का कोई हित नहीं है तो उसे ‘मेण्टीनेन्स ठहराव’ कहते हैं। अंग्रेजी अधिनियम के अनुसार उक्त दोनों ही प्रकार के ठहराव व्यर्थ समझे जाते हैं परन्तु भारत में ऐसे ठहराव तब तक व्यर्थ नहीं होते हैं जब तक कि वे स्पष्ट रूप से अनुचित एवं लोकनीति के विरुद्ध न हों या जिसका उद्देश्य अनुचित रूप में मुकदमेबाजी को बढ़ावा देना हो। इस सम्बन्ध में Ram Kumar Vs. Chandra Kant का वाद उल्लेखनीय है।
6. उपाधि अथवा पदवी के विक्रय का ठहराव- ‘उपाधि’ अथवा ‘पदवी’ का विक्रय लोकनीति के विरुद्ध होता है और इस प्रकार का ठहराव व्यर्थ होता है। उदाहरण के लिए ‘क’ को पदम् श्री उपाधि से विभूषित किया गया जिसे वह ‘ख’ को बेचने का ठहराव करता है। इस प्रकार का ठहराव लोकनीति के विरुद्ध तथा व्यर्थ है। इसी प्रकार हाईस्कूल, इण्टर, बी०ए०, एम० ए०, पी-एच०डी० आदि की उपाधियों को खरीदा अथवा बेचा नहीं जा सकता।
7. लोक सेवाओं का विक्रय- इस तरह के ठहराव भी लोकनीति के विरुद्ध होते हैं तथा व्यर्थ समझे जाते हैं। उदाहरण के लिए, ‘क’ख’ को 1,000 रुपये के बदले नौकरी दिलवाने का वचन देता है। यह ठहराव व्यर्थ होगा क्योंकि यह लोकनीति के विरुद्ध है।
8. शादी के लिए दलाली का ठहराव- यदि शादी कराने के लिए किसी के द्वारा धन लिया जाता है तो ऐसा अनुबन्ध व्यर्थ होगा क्योंकि ऐसा करना लोकनीति के विरुद्ध है। उदाहरणार्थ, ‘अ’ ‘ब’ को 500 रुपये में शादी कराने का वचन देता है। यह ठहराव व्यर्थ समझा जायेगा।
9. कर्तव्य पालन से विमुख करने का ठहराव- किसी को कर्तव्य पालन के विमुख करना भी लोकनीति के विरुद्ध होता है। उदाहरणार्थ, कर्मचारी को रिश्वत देकर अवैधानिक कार्य कराना, अवयस्क के माता-ण्विा अथवा संरक्षकों को रुपया देकर अवयस्क की शादी का प्रस्ताव रखना आदि।
10. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में बाधा – ऐसा ठहराव जो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में बाधा डालता है, व्यर्थ होता है तथा उसे लोकनीति के विरुद्ध समझा जाता है। उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को गुलाम (दास) बनाने का ठहराव लोकनीति के विरुद्ध तथा व्यर्थ है।
11. पैतृक अधिकार में रुकावट- प्रत्येक माता-पिता को अपने बच्चों का पालन-पोषण करने का पैतृक अधिकार है। अत: ऐसा कोई ठहराव जो इस मूलभूत अधिकार से उन्हें वंचित करता है, लोकनीति के विरुद्ध तथा व्यर्थ समझा जाता है इस सम्बन्ध में गिन्दू नाराणीश बनाम श्रीमती एनी बेसेण्ट का विवाद उल्लेखनीय है।
उपर्युक्त के सम्बन्ध में यह कहना भी उचित ही है, कि अनैतिक ठहराव केवल व्यर्थ ही नहीं होते, वरन् अवैध ही होते हैं। उदाहरणार्थ, निम्न ठहराव अनैतिक हैं जिसके कारण वे प्रवर्तनीय नहीं हैं-
(i) एक वेश्या को जान-बूझकर उसके पेशे को चलाने के लिए कमरा किराये पर देना तथा फिर किराये के लिए वाद प्रस्तुत करना ।
(ii) एक वेश्या को, उसके पेशे को चलाने के लिए रुपया, जेवर, साड़ियाँ आदि देना में तथा फिर उसकी वापसी या मूल्य प्राप्ति के लिए न्यायालय में वाद प्रस्तुत करना।
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