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विनिर्दिष्ट प्रसंग-विधि-सामूहिक चयन तथा वैयक्तिक सृजन
कला में सामूहिक एवं वैयक्तिक दोनों ही प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता होती है। कुछ समस्याओं के उत्पन्न होने पर अब वैयक्तिक तथा सामूहिक शिक्षण के समन्वय की पद्धति को अपनाया जाने लगा है। इस प्रकार की पद्धतियों में वैयक्तिक और सामूहिक शिक्षण के दोष छिप जाते हैं और उनकी अच्छाइयाँ बढ़ जाती हैं। हमें इन दोनों प्रकार की पद्धतियों में यह निर्दिष्ट करना पड़ता है कि छात्र को क्या-क्या करना है ?
वैयक्तिक शिक्षण विधि
कला-शिक्षण में वैयक्तिक शिक्षण से तात्पर्य उस शिक्षण से है, जिसमें व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं को ध्यान में रखकर अलग-अलग शिक्षण दिया जाता है। इस विधि में शिक्षक द्वारा एक ही छात्र को पृथक् से शिक्षण दिया जाता है तथा एक ही बालक को एक कक्षा मान लिया जाता है।
वैयक्तिक शिक्षण-विधि के गुण
वैयक्तिक शिक्षण विधि के निम्नलिखित गुण है-
1. छात्र शिक्षक के व्यक्तिगत सम्पर्क में आने से उसके उत्तम व्यवहारों एवं गुणों से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है।
2. इस पद्धति में छात्र की व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं और शक्तियों का अच्छा विकास होता है।
3. छात्र को समुचित अध्ययन सामग्रियाँ जुटाकर उसकी विशेषताओं और व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षण दिया जाता है। छात्र की कमियों और शक्तियों की पूर्णता का भली प्रकार अध्ययन करने का अवसर इस शिक्षण पद्धति से प्राप्त होता है।
4. छात्र का पूर्ण अध्ययन करके उसके पूर्व अर्जित ज्ञान को जानते हुए आगामी कलात्मक ज्ञान क्रियात्मक विधियों द्वारा शिक्षक अपने संरक्षण में कराता है। क्रियात्मक कार्य कराते समय मिट्टी, कागज, गत्ते और अन्य शिल्प कार्य छात्र की की रुचि के अनुकूल सिखाने में सावधानी रखी जाती है और उसमें उसे दक्षता प्राप्त करा दी जाती है।
5. छात्र की शक्तियों का पता लगाकर उन्हें उपयोग में लाने का कार्य शिक्षक द्वारा सफलतापूर्वक किया जा सकता है। वह कमियों पर दृष्टि रखते हुए उनके अभाव की पूर्ति करता है
6. इस विधि में छात्र को कार्य करने की स्वतन्त्रता रहती है। वह कल्पना जगत में विचरण करते हुए स्वतन्त्र भाव प्रकाशन करने में स्वतन्त्र और उन्मुक्त रहता है। प्रत्येक छात्र कुशाम एवं औसत श्रेणी का नहीं होता। व्यक्तिगत शिक्षण में इस बात का अच्छी प्रकार ध्यान रखा जाता है।
वैयक्तिक शिक्षण विधि के दोष
वैयक्तिक शिक्षण पद्धति में निम्नलिखित दोष भी है-
1. वह इतना सचेत हो जाता है कि व्यक्तिगत आघात को सहन नहीं कर सकता। वह क्रोधी और अशिष्ट हो जाता है।
2. मानव सामाजिक प्राणी है, वह समाज से पृथक् रहकर जीवित नहीं रह सकता है। उसका व्यक्तित्व निखर नहीं सकता। वह सामाजिक गुणों से शून्य रहता है। उसमें उन्नति की भावना, सहयोग की भावना, आत्म-त्याग, सहिष्णुता, सहानुभूति, सहनशीलता, दूसरों की भावनाओं का आदर करने का अभाव रहता है।
“निस्समान व्यक्ति कोरी कल्पना है।” – रेमष्ट
3. छात्र व्यवहार कुशल नहीं हो पाता है, उसके व्यवहार असामाजिक होते हैं।
भारत जैसे विकासशील देश में यह पद्धति अधिक व्ययपूर्ण सिद्ध होगी। हमारे देश में न तो इतने साधन तथा उपकरण ही हैं कि शिक्षक प्रत्येक छात्र के लिए अलग-अलग व्यवस्था कर सके। साथ-ही-साथ शिक्षकों के अभाव के कारण यह पद्धति भारत में लागू नहीं हो सकती है। प्रोजेक्ट पद्धति, मॉण्टेसरी प्रणाली और किण्डरगार्टन पद्धति इस विधि के प्रमुख उदाहरण हैं।
सामूहिक शिक्षण-विधि
सामूहिक शिक्षण से अभिप्राय कक्षा-शिक्षण से है। इस पद्धति में एक शिक्षक 35-40 छात्रों को एक साथ एक समय में पढ़ाता है। छात्रों को औसत आयु वर्ग तथा शैक्षिक योग्यता के आधार पर वर्गीकृत कर लिया जाता है। उनकी विभिन्न रुचियों, क्षमताओं, शक्तियों तथा विविध आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखा जाता है। कुशल तथा निर्बल सभी प्रकार के छात्र एक साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं। सम्पूर्ण कक्षा के छात्रों को सामान्य साधनों और उपकरणों से कला-शिक्षण का ज्ञान दिया जाता है। किसी भी क्रियात्मक कार्य को सम्पूर्ण कक्षा के लिए एक साथ सम्पन्न करा लिया जाता है।
सामूहिक शिक्षण-विधि के गुण
सामूहिक शिक्षण विधि के निम्नलिखित गुण हैं-
1. छात्रों में प्रतियोगिता का भाव पैदा होता है, जिससे छात्र उन्नति कर सकते हैं।
2. छात्र प्रगतिशील और व्यवहार कुशल बन जाता है।
3. इस विधि में कमजोर छात्र मेधावी छात्रों से प्रेरणा लेते हैं।
4. छात्रों में सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता, सहानुभूति और उत्तरदायित्वूपर्ण कार्य करने की भावना का विकास होता हैं।
सामूहिक शिक्षण विधि के दोष
सामूहिक शिक्षण विधि में अग्रलिखित दोष होते हैं-
1. छात्र की कक्षा का वर्गीकरण भी छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर नहीं किया जाता।
2. इस पद्धति में शिक्षार्थी और शिक्षक का व्यक्तिगत सम्पर्क नहीं रह पाता है, जिससे शिक्षक छात्र की व्यक्तिगत रुचियों, मान्यताओं, योग्यताओं, आवश्यकताओं और क्षमताओं से परिचित नहीं हो पाता। परिणामतः छात्र के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
3. यह विधि अमनोवैज्ञानिक है। इसमें छात्र की रुचियों और क्षमताओं का व्यक्तिगत रूप से हनन होता है और वे कुण्ठित हो जाती हैं।
* सामूहिक तथा व्यक्तिगत शिक्षण-पद्धतियों का समन्वय
दोनों पद्धतियाँ दोषयुक्त हैं। अतः दोनों पद्धतियों के दोषों को दूर करते हुए कोई मध्य का मार्ग निर्धारित किया जाना चाहिए। इस समन्वय पद्धति में सामाजिक तथा व्यक्तिगत दोनों पद्धतियों को सुधार की दृष्टि से मिलाकर उपयोग में लाना चाहिए। इसके लिए निम्नलिखित बातें उपयोग में लायी जानी चाहिएँ-
1. कक्षा में छात्रों की संख्या 20 से अधिक नहीं होनी चाहिए, ऐसा करने से शिक्षक और शिक्षार्थी में व्यक्तिगत सम्पर्क अधिक रहता है।
2. छात्रों की पढ़ाई के घण्टे का समय 1 या ½ घण्टे का बनाया जाए, जिसे तीन भागों में विभाजित करके प्रथम अंश में पूर्व अर्जित ज्ञान का परिचय, पिछले पाठ की पुनरावृत्ति और नवीन समस्या को प्रस्तुत किया जाए। दूसरे अंश में, छात्रों की व्यक्तिगत योग्यताओं को ध्यान में रखकर समस्यात्मक कार्य दिया जाए। तीसरे अंश में छात्र स्व-क्रियाओं और अपने प्रयत्नों द्वारा सीखने का प्रयास करता है।
3. एक-सी रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं और आवश्यकताओं वाले छात्रों की टोलियाँ बनाकर एक शिक्षक की देख-रेख में उन्हें रखना चाहिए। एक टोली में 3-4 छात्रों से अधिक नहीं होने चाहिएँ। इस प्रकार छात्रों की व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं के अनुरूप कला का शिक्षण दिया जा सकता है
4. इसमें छात्रों को स्वतन्त्रतापूर्वक निर्धारित पाठ पढ़ने को कहा जाता है। बाद में वर्णन, चित्रण तथा क्रियात्मक कार्यों द्वारा सीखे हुए ज्ञान की पुनरावृत्ति करायी जा सकती है।
5. कक्षा में छात्रों को 2-3 समूहों में विभाजित कर देना चाहिए और इनसे एक ही समय में विविध कार्यक्रम कराने का प्रयास करना चाहिए, यदि आधे छात्र पढ़ने का कार्य करते हैं तो आधे क्रियात्मक कार्य करते हैं। प्रत्येक समूह अलग-अलग कार्य करते हैं। कोई वाद-विवाद कोई स्मृति-चित्रण और कोई क्रियात्मक कार्य करते हैं। आवश्यकतानुसार शिक्षक उन्हें मार्ग-दर्शन प्रदान कर सहायता करता है।
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