वैदिक कालीन शिक्षा का अर्थ लिखिए तथा इसके आदर्शों का वर्णन कीजिए।
प्राचीन भारत की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था स्वयं एक आदर्श थी। शिक्षा की यह व्यवस्था प्राचीन भारत की शिक्षा की प्रमुख विशेषता है। वास्तव में गुरुकुल ही एकमात्र शिक्षा की संस्था थी और विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन करते थे। आधुनिक युग में भी वैदिक और उत्तर वैदिक युग की भांति कुछ गुरुकुल संस्थाएं देखने को मिल रही है। इनमें गुरुकुल कांगड़ी देहरादून, गुरुकुल वृंदावन, कन्या गुरुकुल देहरादून आदि उल्लेखनीय है।
वैदिक शिक्षा का व्यापक अर्थ- वैदिक शिक्षा एक अजीवन चलने वाली प्रक्रिया थी, जिसके व्यापक दृष्टिकोण की कोई सीमा निश्चित नहीं थी। वैदिक शिक्षा व्यक्ति के जीवन से पूर्णतया सम्बन्धित थी। मनुष्य जीवनपर्यन्त विद्यार्थी रहता है। शिक्षा उसे उन्नत एवं सभ्य बनाती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसका पथ प्रदर्शित करती है। डॉ० अलतेकर के अनुसारं, “वैदिक काल से लेकर आज तक भारत में शिक्षा का मूल तात्पर्य यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का वह स्रोत है, जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शन करती है।” वैदिक काल में शिक्षा का तात्पर्य इसी व्यापक दृष्टिकोण के आधार पर लगाया जाता है।
वैदिक शिक्षा का संकुचित अर्थ – वैदिक शिक्षा का एक संकुचित अर्थ भी था, जिसका सम्बन्ध औपचारिक शिक्षा से है, जिसके अनुसार शिक्षा से तात्पर्य उस शिक्षा से था, जो बालक अपने प्रारम्भिक जीवन के कुछ वर्षों तक गुरुकुल में रहकर, ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करता हुआ, अपने गुरु से प्राप्त करता था। यह शिक्षा अधिकांशतः पुस्तकों द्वारा प्राप्त होती थी। वैदिक काल में पुस्तकीय शिक्षा को “शिक्षा” का पर्याय नहीं माना जाता था। वस्तुतः वैदिक शिक्षा जीविकोपार्जन के साथ प्रकाशीय अन्तर्दृष्टि तथा संस्कृति प्रदान करते हुए हमें स्वावलम्बी तथा आत्म-निर्भर नागरिक बनाती है। संक्षेप में, वेदकालीन शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत शिक्षा का तात्पर्य उस प्रक्रिया या अन्तर्ज्योति तथा शक्ति से है जो विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास या व्यक्तित्त्व के विभिन्न पहलुओं जैसे-शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं का संतुलित विकास करती है ।
वैदिक शिक्षा के उद्देश्य/आदर्श
वैदिक शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य / आदर्श इस प्रकार है-
(1) व्यक्तित्व का विकास करना- प्राचीन काल की शिक्षा में बालक के व्यक्तित्व निर्माण पर बहुत बल दिया जाता था। छात्रों के शरीर तथा मन दोनों को विकसित करने के लिए पाठ्यक्रम में अनेक विषयों को सम्मिलित किया जाता था। बालक के भावात्मक विकास की ओर अधिक ध्यान दिया जाता था। भिक्षाटन भावात्मक विकास का बहुत बड़ा साधन थी जिससे किसी बड़े घर के बच्चे में अहं भावना तथा गरीब घर के बच्चों में हीन भावना पैदा नहीं होने पाती थी।
(2) नागरिक व सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन कराना- बालकों को अपने समाज का उत्तरदायी घटक बनाने के लिए उन्हें कर्त्तव्यों का ज्ञान कराया जाता था। उन्हें बताया जाता था कि मनुष्य के विकास में समाज के अनेक वर्ग सहयोग करते हैं जिनमें माता-पिता, गुरु तथा देव आदि का ऋण उनके ऊपर सबसे अधिक होता है, जिनसे मुक्त होने के लिए कुछ कर्त्तव्यों का पालन करना आवश्यक है। इनमें पुत्र, पति तथा पिता के कर्त्तव्यों का पालन, अतिथि सत्कार, दीन दुखियों की सहायता आदि प्रमुख थे। विद्यार्थियों को जिस क्षेत्र को उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी उसका उपयोग समाज के लिए करने के लिए उन्हें व्रत लेना होता था। इससे उनके अन्दर नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों के पालन का भाव कूट-कूट कर भर दिया जाता था।
(3) चरित्र का निर्माण कराना- प्राचीन काल की शिक्षा का एक अन्य महत्वपूर्ण उद्देश्य चरित्र निर्माण था। विद्यार्थियों के चरित्र विकास पर विशेष ध्यान दिया जाता था। चरित्रहीन छात्रों का प्रवेश गुरुकुल में वर्जित था। प्रवेश के बाद विद्यार्थी के चरित्र निर्माण पर विशेष बल दिया जाता था। इसके लिय ब्रह्मचर्य का पालन, खान-पान, रहन-सहन तथा व्यवहार में सादगी तथा पवित्रता एवं सदाचार पर बल दिया जाता था। विद्यार्थियों की चारित्रिक परीक्षा लेने के लिए गुरुओं द्वारा विशेष विधि अपनायी जाती थी। गुरुकुलों का वातावरण पवित्र तथा सदाचार युक्त रखा जाता था।
(4) ईश्वर भक्ति व धार्मिक भावना उत्पन्न करना- प्राचीनकाल में जीवन का उद्देश्य मोक्ष पाना माना जाता था। मोक्ष प्राप्त करने के लिए धार्मिक भावना की प्रधानता आवश्यक थी। अतः उस काल में शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य ईश्वर भक्ति तथा धार्मिक भावना था। यह माना गया था कि मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम कृति तथा ईश्वर का ही अंश है और मानव धर्म प्रधान जीवन बिताकर, साधना का मार्ग अपनाकर आत्म साक्षात्कार कर सकता है और ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। अतः उस काल में गुरु तथा शिष्य धार्मिक तथा साधनापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। यज्ञ, प्रार्थना, संध्या, व्रत तथा उपवास आदि धार्मिक क्रियाओं का जीवन में विशेष महत्व था।
(5) सामाजिकता का विकास करना- शिक्षा का यह उद्देश्य बालक की आजीविका से सम्बन्धित होता था । शिक्षा का उद्देश्य उस काल में भी व्यावसायिक कुशलता प्रदान करना था। बालक अपने भावी जीवन में सुखपूर्वक रह सके इसके लिए उनकी रुचि तथा वर्ण के अनुसार किसी न किसी उद्योग या व्यवसाय की शिक्षा दी जाती थी। यही कारण है कि प्राचीनकाल में भारत न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में अंग्रणी था बल्कि चिकित्सा, वाणिज्य, युद्ध विद्या तथा ललित कलाओं में भी बहुत विकसित था । व्यासायिकता परिवार शिक्षा का अंग बन गयी थी, जिससे व्यक्ति अपनी उन्नति के साथ-साथ देश की समृद्धि में भी सहभागी बनता था।
डॉ० अल्तेकर के अनुसारं, “ईश्वर भक्ति तथा धार्मिक भावना, चरित्र निर्माण व्यक्ति का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता में तथा राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श थे।”
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