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संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992) की विवेचना कीजिए।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 1986 के लागू हो जाने के बाद इस शिक्षा नीति के प्रावधानों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया है। इस नीति के क्रियान्वयन के लगभग चार वर्ष बाद मई, 1990 में केवल इसकी समीक्षा के लिए आचार्य राममूर्ति समिति का गठन किया गया था। राममूर्ति समिति ने अपना प्रतिवेदन 26 दिसम्बर, 1990 को “एक प्रबुद्ध एवं मानवतापूर्ण समाज की ओर” शीर्षक से प्रस्तुत किया था। इस समिति ने शिक्षा नीति की विभिन्न योजनाओं की समीक्षा के लिए 6 उपसमितियों की नियुक्ति की थी और इनके सहयोग से अपने विचार सरकार के समक्ष प्रस्तुत किये थे। इस प्रकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 पर पहला संशोधन राम मूर्ति समिति के प्रतिवेदन के रूप में आया। राममूर्ति समिति ने शैक्षिक अवसरों की समानता, निरक्षरता उन्मूलन, न्यूनतम शिक्षा तथा शिक्षा का माध्यम आदि कुछ प्रकरणों पर नयी शिक्षा नीति से असहमत होते हुए भारतीय शिक्षा की असफलता का मुख्य कारण मैकाले की शिक्षा पद्धति का परित्याग न कर पाना बताया। इस समिति ने शिक्षा नीति के परस्पर विरोधी विचारों के सफलतापूर्वक कार्यान्वयन पर भी अपनी चिन्ता प्रदर्शित की। साथ ही समिति ने वर्तमान शिक्षा की उपयोगिता पर भी प्रश्न चिन्ह लगा दिया था। उसने निर्धन व धनी वर्ग की शिक्षा में भेद-भाव, शिक्षा का उत्पादनोन्मुख न होना, शिक्षा में लोकतांत्रिक पद्धति को न अपनाया जाना तथा ग्रामीण क्षेत्रों की उपेक्षा आदि को भारतीय शिक्षा की असफलता के लिए उत्तरदायी ठहराया था।
मार्च 1991 में राममूर्ति समिति के प्रतिवेदन पर केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद की बैठक में विचार-विमर्श किया गया। अन्त में किसी एक निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद के परामर्श पर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ० जनार्दन रेड्डी की अध्यक्षता में एक अन्य समिति की नियुक्ति की गयी। यह एक पुनरीक्षण समिति थी, जिसे “जनार्दन रेड्डी समिति 1992 के नाम से सम्बोधित किया गया था। यही समिति “संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 1992 अथवा राष्ट्रीय शिक्षा नीति संशोधित 1992 के नाम से भी जानी जाती है।
संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्य
संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 अर्थात् जनार्दन रेड्डी समिति ने 1986 की शिक्षा नीति के प्रावधानों के प्रति अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि शिक्षा नीति में किसी विशेष संशोधन की आवश्यकता नहीं है, किन्तु उसके द्वारा प्रस्तुत किये गये पी०ओ०ए० में परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता है। अतः समिति ने पुरानी योजना का पुनरावलोकन करते हुए अपनी ओर से कुल 23 टास्क फोर्स निश्चित किये थे। यह एक नयी कार्य योजना थी, इसलिए इसे “संशोधित कार्य योजना” नाम दिया गया।
संशोधित कार्य योजना में दिये गये सुझाव
जनार्दन रेड्डी समिति ने अपनी संशोधित कार्य योजना में जो सुझाव प्रस्तुत किये थे, उनका विवरण नीचे दिया जा रहा है।
शिक्षा का राष्ट्रीय स्वरूप
1. भारत की शिक्षा व्यवस्था तभी राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर सकती है, जब पूरे राष्ट्र में एक ही प्रकार की शैक्षिक संरचना हो। इस दृष्टि से पूरे देश में 10+2+3 संरचना को स्वीकार कर लिया गया है।
2. शिक्षा में समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धान्त का पालन किया जाना चाहिए।
3. भारत में महिला शिक्षा की स्थितियाँ बहुत खराब अतः नारी सशक्तीकरण के लिए स्त्री शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए।
कमजोर वर्ग की शिक्षा
4. अनुसूचित जाति, जनजाति तथा समाज के दूसरे पिछड़े वर्गों की शिक्षा के लिए और अधिक विद्यालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा इनको सुविधा सम्पन्न बनाना चाहिए।
5. विकलांगों एवं अल्प संख्यकों की शिक्षा के लिए प्रबन्धकों, प्रधानाचार्यों एवं शिक्षकों को एन。सी。ई。आर०टी० द्वारा प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
6. कमजोर वर्ग के छात्रों के लिए विशेष कोचिंग तथा प्रेरणादायक कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए और इनके लिए अधिक छात्रवृत्तियाँ दी जानी चाहिए।
7. विकलांग बच्चों के लिए विशेष प्रकार के विद्यालय तथा उनके उपयुक्त व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाये।
प्रारम्भिक शिक्षा
1. पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए बच्चों के स्वाभाविक विकास से सम्बन्धित कार्यक्रमों का संचालन किया जाये।
2. प्राथमिक स्तर पर 14 वर्ष तक के बालकों को अनिवार्य शिक्षा प्रदान करनी चाहिए तथा इसके लिए पूर्ण साक्षरता अभियान चलाया जाये।
3. शिक्षक वर्ग में आधी संख्या शिक्षिकाओं की होनी चाहिए।
4. आपरेशन ब्लैक बोर्ड अभियान प्रभावी रूप से चलाया जाना चाहिए।
5. विद्यालयी शिक्षा के अन्तर्गत 18 करोड़ बालकों का 40 पर के अनुपात से 35000 नये विद्यालय, 45 लाख शिक्षक तथा 11 लाख कक्षा-कक्षों के निर्माण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
माध्यमिक शिक्षा
1. पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संगठन लागू किया जाये।
2. कक्षा 10 का राष्ट्रीय पाठ्यक्रम निर्मित किया जाये।
3. पिछड़े वर्ग को शिक्षा की विशेष सुविधायें दी जाये।
4. स्त्री शिक्षा का समुचित विस्तार किया जाये।
5. विद्यालयों को अधिक सुविधायें प्रदान कर उनका आधुनिकीकरण किया जाये।
6. माध्यमिक शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाया जाये।
7. इस स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की बालिकाओं की सहभागिता पर विशेष जोर दिया जाये।
8. बालकों को कम्प्यूटर के विभिन्न उपयोगों से परिचित कराया जाये।
मुक्त विश्वविद्यालय
1. मुक्त विश्वविद्यालयों में इलैक्ट्रानिक मीडिया के प्रयोग को बढ़ाया जाये।
2. सम्पूर्ण साक्षरता कार्यक्रम को पर्याप्त महत्त्व दिया जाये।
3. सरकारों, सामाजिक राजनीतिक संगठनों, स्वयं सेवी संस्थाओं तथा लगभग समस्त शिक्षित व सक्षम व्यक्तियों का प्रौढ़ शिक्षा कार्य में सहयोग करना चाहिए।
4. प्रौढ़ शिक्षा के माध्यम से लोगों को पर्यावरण रक्षा, गरीबी उन्मूलन, जनसंख्या नियंत्रण, स्वास्थ्य का ध्यान, राष्ट्रीय एकता तथा धर्म निरपेक्षता आदि के प्रति जागरूक बनाया जाना चाहिए।
मूल्यांकन प्रणाली
1. वर्तमान परीक्षा प्रणाली के दोषों को दूर करने के लिए परीक्षा सुधार की प्रक्रिया की ठोस योजना बनायी जानी चाहिए।
2. परीक्षा प्रणाली में पर्याप्त लचीलापन होना चाहिए।
3. परीक्षा प्रणाली में शैक्षिक तकनीकी की सहायता ली जाये।
भाषा नीति
1. प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत कक्षा 2 तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए।
2. तीसरी कक्षा में क्षेत्रीय भाषा को भी पढ़ाया जाना चाहिए।
3. मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा के मध्य सन्तुलन सेतु बनाया जाना चाहिए।
जनार्दन रेड्डी समिति का मूल्यांकन
जनार्दन रेड्डी समिति की नियुक्ति नयी शिक्षा नीति 1986 के लागू होने के लगभग 6 वर्ष बाद 1992 में की गयी थी अतः स्वाभाविक रूप से उसके प्रतिवेदन में दिये गये सुझावों पर विगत 6 वर्षों में शिक्षा जगत में हुए परिवर्तनों का प्रभाव पड़ा था। नयी शिक्षानीति को लेकर विद्वानों, छात्रों और शिक्षकों की प्रतिक्रियायें भी इस दौरान सामने आ गयी थीं। साथ ही 1991 की जनगणना का प्रभाव भी इस समिति द्वारा किये गये अध्ययन में साफ देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए उक्त जनगणना में महिला साक्षरता दर 39.42 प्रतिशत घोषित की गयी थी। समिति ने इसी आधार पर महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिये जाने की सिफारिश भी की थी। इस प्रकार समिति द्वारा प्रस्तुत की गयी संशोधित कार्य योजना में नयी शिक्षा नीति को और अधिक परिमार्जित करने के प्रयास किये गये थे। किन्तु इसके साथ एक समस्या यह थी कि वह केवल एक पुनरीक्षण समिति थी, जिसका कार्य नयी शिक्षा नीति तथा राममूर्ति समिति के प्रतिवेदन की नये परिप्रेक्ष्य से समीक्षा मात्र करना था। अतः इस समिति से भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए किसी नवीन योजना अथवा किसी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन की आशा नहीं थी। इस समिति ने अपने दायित्व को भली प्रकार निभाते हुए ऐसी अनेक संस्तुतियाँ की, जिन्होंने आगे की शिक्षा को लाभान्वित किया परन्तु कुल मिलाकर श्रेष्ठ परिणाम सामने न आ सके। इस समिति के सुझावों के बाद लगभग 13 वर्ष हो चुके हैं मगर शिक्षा के द्वारा राष्ट्र का जिस प्रकार का सामाजिक, राजनैतिक, चारित्रिक तथा नैतिक विकास होना चाहिए थे, आज उसके कहीं दर्शन तक नहीं होते हैं।
उक्त शिक्षा नीति का इतना लाभ अवश्य हुआ कि देश में आधुनिक सूचना तकनीकी में तीव्र गति से विकास हुआ किन्तु इस विकास में मानवता, स्नेह, प्रेम, सहानुभूति, पर-दुःख, कातरता, संवेदनशीलता, विद्वता, चिन्तन, मौलिकता आदि सब कहीं खो गये हैं। सत्य तो यह है कि इस शिक्षा नीति के लागू होने के बाद भारत की लगभग शत प्रतिशत जनता शिक्षा के मूल उद्देश्यों को भूल कर केवल धन कमाने की अंधी प्रतियोगिता में आँखें बन्द कर भागती जा रही है। आज की शिक्षा केवल अधिक से अधिक धन अर्जित कर लेने का साधन बन कर रह गयी है। इसके साथ ही अंग्रेजी इस देश पर इस कदर हावी हो गयी है कि अब राष्ट्र भाषा को अपने अस्तित्त्व की रक्षा के लिए ही जूझना पड़ रहा है। शैक्षिक विकास की दृष्टि से यह स्थिति बहुत घातक है। जितना शीघ्र हो सके, इस स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाया जाना बहुत आवश्यक है।
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