शिक्षाशास्त्र / Education

बौद्ध कालीन गुरु शिष्य सम्बन्ध | Buddhist teacher-disciple relationship in Hindi

बौद्ध कालीन गुरु शिष्य सम्बन्धों का वर्णन कीजिए ।

गुरु-शिष्य सम्बन्ध – इस काल में गुरु और शिष्य के परस्पर सम्बन्ध स्नेहपूर्ण थे। गुरु तथा शिष्य का पवित्र सम्बन्ध बौद्ध शिक्षा प्रणाली की एक विशेषता है। उपाध्याय आदर्श जीवन व्यतीत करते थे और मितव्ययी होते थे। इनके जीवन का लक्ष्य अध्ययन एवं अध्यापन था। जीवन का एक अन्य लक्ष्य बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रचार था। उपाध्याय आजन्म ब्रह्मचारी होते थे। शिष्य को सद्विहारक या सिद्ध विहारक कहा जाता था। गुरु आदर्श चरित्रवान् व्यक्ति होते थे। वे भेदभाव से मुक्त होकर सभी शिष्यों को समभाव से शिक्षा देते थे और उनके मानसिक स्तर को ऊँचा उठाने का पूरा प्रयास करते थे। वे आदर के पात्र होते थे, निःस्वार्थ भाव से शिक्षा दान करते थे, समाज भी उन्हें आदर देता था क्योंकि वे ज्ञान दान करते थे। ज्ञान प्राप्ति से ही निर्वाण सम्भव था। बौद्ध धर्म में ज्ञान और विद्या को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, उन्हें निर्वाण प्राप्ति का साधन माना गया है। डॉ० अल्तेकर के अनुसार, “शिक्षकों को दिया जाने वाला यह आदर कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, क्योंकि यह सर्वमान्य है कि भव्य इमारतें या उपकरण विद्यार्थियों को इतना अधिक प्रभावित नहीं करते जितना कि सभ्य और योग्य शिक्षक, जो न केवल शिक्षा ही देते हैं वरन् प्रेरणा भी देते हैं।” इस प्रकार गुरु महान् विद्वान होते थे। वे मुक्त हृदय से ज्ञान दान करते थे। विषय पर उनका पूर्ण अधिकार होता था। उनकी अभिव्यक्ति क्षमता अद्भुत होती थी। विद्वान् होते हुए भी उनका जीवन सादा होता था। नालन्दा जैसे विद्यालयों तक में वे नियमित रूप से कोई वेतन ग्रहण नहीं करते थे। विश्वविद्यालय उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करता था, इसके लिए धन की मात्रा शिष्य के लिए व्यय किये जाने वाले धन की तिगुनी होती थी।

शिष्य का गुरु एवं गुरु का शिष्य के प्रति कर्त्तव्य

शिष्य का कर्त्तव्य- इस समय शिष्य का गुरु के प्रति कुछ कर्त्तव्य थे, जिनका पृथक् उल्लेख मिलता है। वह गुरु के प्रातः काल उठने से पूर्व ही शय्या त्याग देता था और नियमित रूप से उसके नित्यकर्म की व्यवस्था करता था। वह स्वयं निवास स्थान की सफाई करता था और शिक्षा के लिए उपाध्याय के साथ जाता था। उपाध्याय के प्रत्येक व्यक्तिगत कार्य को शिष्य स्वयं करता था। जैसे-वस्त्र धोना, अस्वस्थ होने पर उनकी सुश्रूषा करना, भोजन कराना, बर्तन साफ करना आदि। गुरु के भी शिष्य के प्रति कुछ उत्तरदायित्व थे जिनको वह निभाता था। वह शिष्य के प्रति स्नेहपूर्ण भाव रखता था। वह शिष्य के मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न करता था। शिष्य के अस्वस्थ होने पर उसकी सुश्रूपा करता था। शिष्य से अपने दैनिक कर्यों में सहायता लेने का गुरु को पूर्ण अधिकार था। किन्तु विद्या अध्ययन समाप्त होने के उपरान्त गुरु शिष्य से किसी प्रकार की सेवा की माँग नहीं कर सकता था। निर्धन शिष्य विशेष रूप से गुरु के दैनिक कार्य करते थे और रात्रि के समय शिक्षा ग्रहण करते थे।

गुरु का कर्त्तव्य- इस समय गुरु का शिष्य के प्रति कुछ कर्त्तव्य थे, जिनका उल्लेख हमें बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। गुरु आत्मज्ञानी और आत्मनियंत्रक होते थे। ह्वेनसांग का उल्लेख है कि बौद्ध • विहारों के अध्यापक आदर्श और अनुकरणीय चरित्र के व्यक्ति थे। वे शिष्यों को प्रोत्साहित करते थे। का ध्यान रखते थे। शिष्यों को प्रेरित करने के लिए और उनकी उत्सुकता जगाने के लिए वे तरह-तरह की अध्यापन विधि का प्रयोग करते थे जिससे शिष्यों की विषय के प्रति रुचि जागृत हो जाती थी और वे विषय का गहन अध्ययन करते थे। किन्तु बौद्ध शिक्षा प्रणाली में संघ का स्थान सबसे अधिक ऊँचा था। शिक्षक और छात्र दोनों ही संघ के अधीन थे। यदि गुरु संघ के दृष्टिकोण में कोई अपमानजनक कार्य करता था तो यह शिष्य का कर्त्तव्य था कि वह संघ के समक्ष इसका उल्लेख करे। संघ द्वारा दण्डित किये जाने के उपरान्त शिष्य उसी गुरु से पुन: विद्या प्राप्त करने के लिए विनती कर सकता था। वह संघ से गुरु को क्षमा करने की माँग कर सकता था।

अतः उपरोक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि बौद्ध काल में गुरु शिष्य के सम्बन्ध उच्च धरातल पर विद्यमान थे।

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Anjali Yadav

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