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सम्प्रभुता के प्रकार | Types of Sovereignty
सम्प्रभुता के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-
( 1 ) नाममात्र की सम्प्रभुता- नाममात्र की सम्प्रभुता का उपयोग प्रायः उस राजा का राजतन्त्रीय राजा के लिए किया जाता है जो किसी समय वास्तविक सम्प्रभु नहीं किन्तु नाममात्र का सम्प्रभु रह गया है। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड के राजा को सम्प्रभु कहा जाता है लेकिन उसकी सम्प्रभुता केवल नाममात्र की है। इंग्लैण्ड में पन्द्रहवीं शताब्दी तक राजा वास्तविक सम्प्रभु था लेकिन अब राजा की सम्प्रभुता नाम मात्र की है और उसकी समस्त शक्तियों का उपभोग मन्त्रिगण करते हैं।
(2) वैधानिक सम्प्रभुता- वैधानिक सम्प्रभुता का अभिप्राय राज्य की विधि बनाने वाली सर्वोच्च शक्ति है। इस सर्वोच्च शक्ति के आदेश कानून माने जाते हैं यह शक्ति धार्मिक निर्देशों, नैतिक सिद्धान्तों तथा जनमत के आदेशों का उल्लंघन करने में समर्थ होती है। इंग्लैण्ड में इस प्रकार सम्प्रभु (Sovereign) राजा सहित संसद है। डायसी के अनुसार “ब्रिटिश संसद वैधानिक रूप से इतनी शक्तिशाली है कि यह किसी व्यक्ति को राजद्रोह का अपराधी ठहरा सकती है। वह गैर कानूनी बच्चे को कानूनी घोषित कर सकती है और यदि उचित समझे तो व्यक्ति को अपने ही मामले में न्यायाधीश बना सकती है।”
इसी प्रकार वैधानिक सम्प्रभुता का अभिप्राय उस सर्वोच्च शक्ति से है जिसके आदेश कानूनों का रूप धारण करते हैं। डॉ० आशीर्वादम के अनुसार वैधानिक सम्प्रभुता की विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-
- यह निश्चयात्मक और निश्चित होती है।
- यह किसी एक व्यक्ति समूह में निहित रह सकती है।
- यह निश्चित रूप से संगठित, स्पष्ट और विधि द्वारा मान्य होती है।
- केवल यह ही वैधानिक शब्दों में राज्य की इच्छा की घोषणा करता है।
- इसकी आज्ञायें न मानने के मतलब होते हैं विधि को तोड़ना और इसलिए दण्ड पाना।
- अधिकारों की उत्पत्ति इसी से होती है।
- यह परमपूर्ण, असीमित और सर्वोच्च होती है।
( 3 ) राजनीतिक सम्प्रभुता – संवैधानिक सम्प्रभुता के अतिरिक्त प्रजातन्त्र में एक सम्प्रभुता की कल्पना की गयी है जिसे अधिकार तथा सत्ता का अन्तिम स्रोत माना जाता है। इसे राजनीतिक सम्प्रभुता के नाम से सम्बोधित किया गया है। डॉ० आशीर्वादम् के अनुसार, “लोकतन्त्रवादी देश में जहाँ सम्प्रभु को विधि बनाने वाला या लागू करने वाला माना जाता है, वहाँ उसके पीछे जनता की इच्छा निहित रहती है जिसे समस्त अधिकार तथा सत्ता का स्रोत माना जाता है। इस सत्ता के निर्णय के विरुद्ध किसी प्रकार की कोई अपील नहीं होती है। इसी प्रकार डायसी के मतानुसार जिस सम्प्रभु को वकील लोग मान्यता देते हैं, उसके पीछे एक ऐसी सम्प्रभुता होती है जिसके समक्ष वैधानिक सम्प्रभुता को झुकना पड़ता है।”
अतः राजनीतिक सम्प्रभुता से हमारा आशय उन प्रभावों से है जिनसे लोकमत का निर्माण होता है। राजनीतिक सम्प्रभुता को हम निर्दिष्ट नहीं करते। जिस देश में लोकतन्त्र होता है वहाँ संवैधानिक तथा राजनीतिक सम्प्रभुता में विशेष अन्तर नहीं होता। गेटेल के अनुसार, “वैधानिक सम्प्रभु में एक राजनीतिक सम्प्रभु की खोज का प्रयत्न सम्प्रभुता की सम्पूर्ण अवधारणा को समाप्त कर देता है और सम्प्रभुता के प्रभावों की सूची मात्र बना देता है।”
(क) कानूनी और राजनीतिक सम्प्रभुता में अन्तर-
कानूनी और राजनीतिक सम्प्रभुता अन्तर को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।
(i) लोकतन्त्रीय व्यवस्था में कानूनी सम्प्रभुता और राजनीतिक सम्प्रभुता का निवास- लोकतान्त्रिक राज्य में प्रतिनिधि सभा को कानून बनाने के असीमित अधिकार होते हैं, यह कानूनी सम्प्रभुता है। निर्वाचकों एवं समाज के प्रतिभाशाली वर्गों का प्रभाव संसद और उसके प्रतिनिधियों पर होता है। जनता का दबाव राजनीतिक सम्प्रभुता है।
(ii) न्यायालय की मान्यता- कानूनी सम्प्रभुता को न्यायालय द्वारा मान्यता दी जाती है परन्तु राजनीतिक सम्प्रभुता को न्यायालय मान्यता नहीं प्रदान करता।
(iii) प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लोकतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था- राजनीतिक सम्प्रभुता केवल अप्रत्यक्ष लोकतन्त्रीय शासन पद्धतियों में ही होती है। सम्प्रभुता के निर्वाचक कानूनी और राजनीतिक, दोनों सम्प्रभु होते हैं।
(iv) स्वरूप में अन्तर- कानूनी सम्प्रभुता संगठित, स्पष्ट एवं निश्चित होती है, जबकि राजनीतिक सम्प्रभुता अस्पष्ट, अनिश्चित और असंगठित होती है।
(ख) कानूनी एवं राजनीतिक सम्प्रभुता के मध्य सम्बन्ध-
कानूनी एवं राजनीतिक सम्प्रभुता के सम्बन्ध को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।
(i) सम्बद्ध – वास्तव में कानूनी सम्प्रभुता और राजनीतिक सम्प्रभुता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
(ii) आदर्श शासन में भूमिका- आदर्श शासन की स्थापना के हेतु कानून और राजनीतिक सम्प्रभुता के मध्य अधिकाधिक सामंजस्य स्थापित किया जाना आवश्यक है। एक राज्य में निर्वाचन मण्डल राजनीतिक सम्प्रभु होता है। वह अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति के हेतु कानूनी सम्प्रभु (संसद) का निर्माण करता है।
(iii) कानूनी सम्प्रभुता की उत्पत्ति- कानूनी सम्प्रभुता अथवा संसद की उत्पत्ति राजनीतिक सम्प्रभुता अथवा मतदाता अथवा निर्वाचक मण्डल के द्वारा होती है जिसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक सम्प्रभु की इच्छाओं को अभिव्यक्त करना होता है।
(iv) स्वामी-सेवक सम्बन्ध – राजनीतिक सम्प्रभुता स्वामी तथा कानूनी सम्प्रभुता सेवक होती है। यह कानूनी सम्प्रभु राजनीतिक सम्प्रभु की इच्छा को स्वीकार करती है चाहे न्यायालय राजनीतिक सम्प्रभु को दोषी न ठहराये। परन्तु कभी-न-कभी काननी सम्प्रभु को राजनीतिक सम्प्रभु के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है।
( 4 ) लोकप्रिय सम्प्रभुता- लोकप्रिय सम्प्रभुता की अवधारणा राजनीतिक सम्प्रभुता का विकास मात्र है। प्रजातन्त्र में यह माना जाता है कि शासन की अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में होती है। सम्प्रभुता की इस अवधारणा के विकास का श्रेय रूसों तथा अनेक मध्ययुगीन विचारकों को है। उन्नीसवीं शताब्दी में जब लोकतन्त्र का विकास हुआ तो लोकप्रिय सम्प्रभुता की अवधारणा को अधिक समर्थन प्राप्त हुआ। गार्नर के अनुसार, “लोकप्रिय सम्प्रभुता का आशय यह है कि जिन राज्यों में वयस्क व्यक्तियों को वोट देने के अधिकार हैं उनमें मतदाताओं को अपनी इच्छा प्रकट करने और उस पर अमल करवाने की सत्ता प्राप्त है।” लोकमत को सम्प्रभु होने के लिए उसको वैधानिक स्वरूप मिलना आवश्यक है। वैधानिक स्वरूप के बिना लोकमत ठीक उस प्रकार सम्प्रभु नहीं हो सकता जिस प्रकार से विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा प्रस्तुत गैर सरकारी प्रस्ताव विधि नहीं बन सकते।
इस दृष्टिकोण से विचार करने पर लोकप्रिय सम्प्रभुता तथा राजनीतिक सम्प्रभुता में बहुत में कम अन्तर रह जाता है। इसके विपरीत गेटेल का मत है कि, “लोकप्रिय सम्प्रभुता एक शाब्दिक अन्तर्विरोध है।”
(5) विधिसम्मत और वास्तविक सम्प्रभुता- अनेक बार विधिसम्मत और वास्तविक प्रभुसत्ता के बीच विभेद किया जाता है। विधिसम्मत सम्प्रभुता का अभिप्राय उस सम्प्रभुता से है जो वैधानिक दृष्टि से राज्य से सर्वोच्च आदेश जारी करता है। इसके विपरीत वास्तविक सम्प्रभु आज्ञाओं का पालन करती है। वह विधिक रूप से सम्प्रभु न हो।
विधिसम्मत तथा वास्तविक सम्प्रभुता का अन्तर विशेष रूप से क्रान्ति के दिनों से स्पष्ट होता है। अनेक बार क्रान्ति के लिए चीन में च्यांग-काई-शेक शासन की विधि-सम्मत सम्प्रभु की आज्ञाओं का ही पालन करता था।
प्रसिद्ध विधिशास्त्री ऑस्टिन ने वास्तविक तथा विधिसम्मत सम्प्रभुता के मध्य किये जाने वाले अन्तर का विरोध किया है। सम्प्रभुता के सम्बन्ध में “वैध” तथा “अवैध” शब्दों का उपयोग नहीं किया जा सकता। सम्प्रभुता में वह तत्व निहित रहता है जिसके द्वारा लोग उसकी आज्ञापालन करते हैं। वास्तविक सम्प्रभु स्वतः विधि सम्प्रभु बन जाता है।
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